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समान नागरिक संहिता कूडेदानी में!

विश्वास मुझे भी नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी ने भोपाल में एक घर, एक कानून की बात कही और महिने भर में ही उस संकल्प की हवा निकल गई! नोट रखे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 2024 का लोकसभा चुनाव जीतना है तो आदिवासियों, सिक्खों, ईसाई, उत्तर-पूर्व के माहौल की चिंता में अब समान नागरिक संहिता का बिल न तो लोकसभा में रखा जाएगा और यदि दिखावे के लिए रख भी दिया तो उसे लटकाएंगे। न राम मिलेंगे और न माया। मतलब भैंस गई पानी में। एक महिने में हवा निकल गई। इसलिए क्योंकि तैयारी तो थी नहीं। सबसे बड़ी बात केवल वोट के हिसाब से हिंदुओं को बहकाने का जुमला था लेकिन उस पर जब चौतरफा वोट राजनीति बिग़डने की फीडबैक हुई तो छोड़ो, भाड़ में जाए समान नागरिक संहिता का वायदा।

शायद ग्रह-नक्षत्र और उलटे समय की माया है कि वह सब हो रहा है जिसकी नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने कल्पना नहीं की होगी। जैसे अचानक आदिवासी-दलित के प्रति ज्यादती का अखिल भारतीय हल्ला बनना। मणिपुर में आदिवासी, ईसाई आबादी के अनुभव न केवल उत्तर-पूर्व के राज्यों में चर्चित है बल्कि राजस्थान-मध्यप्रदेश तक चर्चा में है।  दलित पर एक भाजपाई के पेशाब करने की इमेज ने पूरे देश को झिंझोडा है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उसके पांव धोए, चरणामृत पीया तो उस पर भी इस तरह के रिएक्शन है कि ऐसे तो नरेंद्र मोदी ने भी पांव धोए थे। मतलब ये नौटंकिया है। आदिवासी संगठनों से चौतरफा हल्ला हो गया है कि समान नागरिक संहिता उनके खिलाफ है। उधर सिक्खों में इसका ऐसा विरोध बना है कि आम आदमी पार्टी के स्टेंड से अलग पंजाब के आप मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान को स्टेंड लेना पड़ा!

यह सब क्यों? इसलिए कि नौ वर्षों में भाजपा ने पूरी राजनीति जात-पात के समीकरणों की उठा-पटक में की। जातवाद बढ़ाया। देश-विदेश में सिक्खों को भडकाने के काम किए। हर वर्ग और हर वर्ण की भावनाओं को आहत किया न कि समरसता की सोची। सबकुछ वोट के गणित में तभी अब फारवर्ड और भक्त हिंदूओं को छोड सब इस इंतजार में है कि कब समय आए और भाजपा को ठिकाने लगाएं। मामूली बात नहीं है जो समान नागरिक संहिता में देश भर के अलग-अलग आदिवासी इसे अपने खिलाफ समझ रहे है। कोई यह सुनने-समझने को तैयार ही नहीं है कि देश व समाज के लिए एक समान नागरिक संहिता क्यों जरूरी है?

ध्यान रहे मध्यप्रदेश, राजस्थान, छतीसगढ़, झारखंड सभी तरफ अचानक वह सिविल सोसायटी, ऐसे संगठन, ऐसे व्हाट्सअप ग्रुप एक्टीव हुए है जिससे समान नागरिक संहिता का आईडिया ही बदनाम होता हुआ है।  खुद भाजपा के नेता जैसे सुशील मोदी आदि ने बयान दे कर कंफ्यूजन बनवाया मानों समान नागरिक संहिता का अर्थ आदिवासियों का अहित। कहा भाजपा मुस्लिम आबादी को टारगेट बना कर समान नागरिक संहिता से हिंदुओं के वोट पटाने, उन्हे गोलबंद बनाने के ख्याल में थी और अब चिंता है कि फटाफट इस मसले से पिंड छुडाओं!

सोचे, सबकुछ मोदी सरकार के कंट्रोल में। सारा मीडिया और उसका नैरेटिव मोदी सरकार के इशारों पर। लेकिन बावजूद इसके समान नागरिक संहिता की वाहवाही बनने की बजाय कैसे उसके खिलाफ तमाम तरह के विरोध!

इसलिए क्योंकि समय खराब है। तभी प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह के फैसले हडबडी वाले हो रहे है। वैसे हिसाब से फैसले ले ही नहीं पा रहे है। विधानसभा चुनाव कैसे लड़ा जाए, किन चेहरों को प्रोजेक्ट करके लड़ा जाए, प्रदेश अध्यक्ष, केंद्रीय केबिनेट और सगंठन के फैसलों के लिए घंटो-घंटो बैठके हो रही है लेकिन सबकुछ क्या अटका हुआ नहीं?

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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