भाऱतीय जनता पार्टी कर्नाटक के चुनाव नतीजों के बाद परेशान थी। उससे पहले वह हिमाचल प्रदेश में हारी थी लेकिन तब गुजरात की जीत ने उस हार को ढक दिया था। कर्नाटक का चुनाव अकेले हुआ था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पूरी ताकत लगाने, बजरंग बली के जयकारे और दूसरे सारे उपाय करने के बावजूद भाजपा बुरी तरह हारी। कांग्रेस की बड़ी जीत हुई। उसके बाद विपक्षी पार्टियों के गठबंधन की पहली बैठक पटना में हो गई। तमाम आशंकाओं के बावजूद सारे नेता जुट गए और एकजुट होकर लड़ने का संकल्प भी लिया। तभी भाजपा की परेशानी बढ़ी और नैरेटिव बदलने के प्रयास शुरू हुए।
नैरेटिव बदलने के कई उपाय हो रहे थे। कई उपाय आगे होने हैं। लेकिन उस बीच अचानक समान नागरिक संहिता का मुद्दा उठा और उसके बाद महाराष्ट्र में शरद पवार की पार्टी तोड़ कर उनके भतीजे अजित पवार को महाराष्ट्र सरकार में उप मुख्यमंत्री बनाया गया।
सवाल है कि जब दूसरे उपाय थे और है तो समान नागरिक संहिता की क्या जरूरत थी? महाराष्ट्र में क्यों एनसीपी को तोड़ना था? अजीत पवार-प्रफुल्ल पटेल को सिर पर बैठाना था? ध्यान रहे कर्नाटक चुनाव के बाद प्रधानमंत्री की ऑस्ट्रेलिया और पापुआ न्यूगिनी की यात्रा हुई थी और उसको जिस तरह से हाईलाइट किया गया वह नैरेटिव बदलने के प्रयासों का हिस्सा था। उसके बाद प्रधानमंत्री अमेरिका के दौरे पर गए, जिसे उनके विश्वगुरू होने की निशानी के तौर पर प्रचारित किया गया। आगे अगले दो महीने जी 20 देशों की बैठक का हल्ला बना रहना है। सितंबर में दिल्ली में दुनिया के 20 सबसे शक्तिशाली देशों के नेता जुटेंगे। उनके अलावा भी कई देशों के प्रमुखों को अतिथि के तौर पर बुलाया गया है। उससे भी भारत और प्रधानमंत्री मोदी के विश्वगुरू होने का मैसेज बनवाया जाएगा। अगले साल लोकसभा चुनाव से ठीक पहले अयोध्या में भव्य राममंदिर का उद्घाटन होना है, जिसका उत्सव कई दिन तक चलेगा।
इन सबके बीच भाजपा ने अचानक समान नागरिक संहिता का दांव चला। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी वकालत की है तो दूसरी ओर विपक्ष की एक मजबूत पार्टी को तोड़ कर विपक्ष को कमजोर करने का प्रयास हुआ है। सवाल है कि क्या भाजपा को प्रधानमंत्री मोदी के विश्वगुरू वाले एजेंडे पर पूरा भरोसा नहीं है? क्या भाजपा अयोध्या में राममंदिर को चुनाव जिताने वाला एजेंडा नहीं मान रही है? अगर भाजपा को अपने इन दोनों एजेंडों पर भरोसा होता तो यूसीसी का मुद्दा नहीं उठाया जाता और न ही महाराष्ट्र में तोड़-फोड़ की जरूरत नहीं होती।
महाराष्ट्र के मामले में बडा सवाल है कि जब चुनाव आयोग की ओर घोषित असली शिव सेना भाजपा के साथ है तो उसे शरद पवार की पार्टी की क्या जरूरत है? जिस पार्टी को भाजपा नेता नेचुरली करप्ट पार्टी बताते हैं और 70 हजार करोड़ रुपए के घोटाले के आरोप लगाते हैं उस पार्टी के आरोपी नेताओं को साथ लेने की क्या मजबूरी है? ध्यान रहे राज्य की भाजपा और शिंदे सरकार को 160 के करीब विधायकों का समर्थन है इसके बावजूद पवार के 30-40 और विधायक साथ लाने की क्या जरूरत महसूस हो रही है? जाहिर है कथित असली शिव सेना यानी एकनाथ शिंदे के पार्टी के साथ लेने और शिंदे को मुख्यमंत्री बनवाने के बावजूद भाजपा अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है। इसलिए उसे लग रहा है कि कांग्रेस, एनसीपी और शिव सेना का उद्धव ठाकरे गुट बड़ी चुनौती है। इसलिए लोकसभा सदस्यों की संख्या के लिहाज से देश के दूसरे सबसे बड़े राज्य में विपक्ष को कमजोर करना जरूरी है। जाहिर है भाजपा को न अपने सहयोगियों पर भरोसा है और न अपने एजेंडे पर। इसलिए तोड़ फोड़ करके विपक्ष को कमजोर करने और विपक्ष के नेताओं को साथ लाकर अपना समीकरण मजबूत करने का प्रयास हो रहा है। लेकिन बिना यह सोचे कि इससे भाजपा के मजबूत होने की पोल अपने आप खुल रही है। उसकी मजबूरी जाहिर हो रही है। वह ऐसे नेताओं का हाथ पकड रही है, जिनके साथ उसका वैचारिक टकराव था, रहा है और जिनको लेकर नैतिकता के गंभीर सवाल भी हैं।