भाजपा न केवल चुनावी एजेंडे को लेकर दुविधा में है बल्किवह यह भी नहीं बूझ पा रही है कि कौन सा मुद्दा क्लिक करेगा? पार्टी संगठन को लेकर भी संशय में है। हर जगह पार्टी मजबूरी में समझौता कर रही है। सोचें, कर्नाटक में विधानसभा चुनाव हारने के बाद भाजपा के प्रदेश नेताओं की पहली बैठक में यह मुद्दा उठा था कि पार्टी ने बहुत समझौते किए। अलग-अलग समूहों की तुष्टिकरण के हिसाब से टिकट बांटे इसलिए पार्टी हारी। इसके बावजूद पार्टी की मजबूरी है कि वह तुष्टिकरण की नीति नहीं छोड़ पा रही है। सभी राज्यों में भाजपा मजबूरी में समझौते कर रही है। राज्यों में मजबूरी के अध्यक्ष बनाए जा रहे हैं। बाहर से आए नेताओं को प्रदेश की कमान दी जा रही है।
भाजपा ने झारखंड में बाबूलाल मरांडी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है। दिसंबर 2019 का विधानसभा चुनाव हारने के बाद भाजपा ने उनकी पार्टी झारखंड विकास मोर्चा का विलय अपनी पार्टी में कराया था। कोई 13 साल बाद मरांडी की घर वापसी हुई थी। तब पार्टी ने उनको विधायक दल का नेता बनाया लेकिन साढ़े तीन साल में उनको नेता प्रतिपक्ष का दर्जा नहीं मिला। उनकी पार्टी के बाकी दो विधायक कांग्रेस में चले गए हैं और उनकी शिकायत पर मरांडी की सदस्यता का मामला अटका है, जिस पर स्पीकर को फैसला करना है। जब वे नेता विपक्ष नहीं बन पाए तो अब उनको प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है। मरांडी को झारखंड की कमान देने की दो मजबूरी है। पहली तो यह कि देश भर से यह मैसेज है कि आदिवासी भाजपा से नाराज हैं। कर्नाटक में भाजपा एक भी आदिवासी सीट नहीं जीत पाई। अब छत्तीसगढ़ में चुनाव है, जहां 27 फीसदी आदिवासी हैं और मध्य प्रदेश में भी 14 फीसदी आदिवासी हैं। दूसरी मजबूरी यह है कि झारखंड में पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा एसटी के लिए आरक्षित 28 में से सिर्फ दो सीट जीत पाई थी। पिछले साढ़े तीन साल में आदिवासी नेता के तौर पर हेमंत सोरेन स्थापित हुए हैं। तभी भाजपा ने 2014 में जो गैर आदिवासी राजनीति करने का रास्ता चुना था उसको छोड़ कर अब वह मजबूरी में आदिवासी राजनीति पर लौटी।
कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी अभी तक न विधायक दल का नेता चुन पाई और न प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त हुआ। भाजपा ने कई बार की बैठकों के बाद चार राज्यों में प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किए। उसके साथ ही कर्नाटक में भी अध्यक्ष नियुक्त होना था। नलिन कुमार कतिल का कार्यकाल पिछले साल अगस्त में खत्म हो गया था और अब विस्तारित कार्यकाल भी खत्म हो रहा है। लेकिन बीएस येदियुरप्पा बनाम अन्य की लड़ाई में कोई फैसला नहीं हुआ। चुनाव के बाद विधानसभा का सत्र चालू हो गया लेकिन दो महीने में भाजपा विधायक दल का नेता नहीं चुन पाई। पूर्व मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई बनेंगे या कोई और इसका फैसला नहीं हो पाया। जिस राज्य में एडजस्टमेंट की राजनीति का सबसे ज्यादा विरोध हुआ वही पर समझौते के प्रयास चल रहे हैं।
भाजपा ने पिछले तीन महीने में छह राज्यों के प्रदेश अध्यक्ष बदले हैं, जिनमें से तीन राज्यों में दूसरी पार्टियों से आए नेताओं को पार्टी की कमान दी गई है। सोचें, एक समय था, जब राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की दीक्षा के बगैर संगठन में कोई बड़ी जिम्मेदारी नहीं मिलती थी लेकिन अब दूसरी पार्टियों से आकर एक साल के अंदर नेता प्रदेश अध्यक्ष बन रहे हैं। भाजपा ने पंजाब में सुनील जाखड़ को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है, जो पिछले ही साल कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए। अपनी हताशा में भाजपा सोच रही है कि जाखड़ जाट सिख और हिंदू दोनों वोट भाजपा को दिला देंगे। इसी तरह आंध्र प्रदेश में भाजपा ने डी पुरंदेश्वरी को अध्यक्ष बनाया है, जो दिवंगत एनटी रामाराव की बेटी हैं। वे पहले टीडीपी में थीं और वहां से कांग्रेस में गई थीं, जहां मनमोहन सिंह की सरकार में उनको मंत्री बनाया गया था। वे कांग्रेस छोड़ कर भाजपा मे गईं तो महासचिव बनीं और अब आंध्र प्रदेश का अध्यक्ष बनाया गया है। भाजपा को लग रहा है कि पुरंदेश्वरी अपने परिवार की पार्टी टीडीपी के साथ तालमेल में काम आएंगी। इससे पहले बिहार में सम्राट चौधरी को अध्यक्ष बनाया गया, जो पहले राजद में थे और फिर जदयू में चले गए थे। उनको अध्यक्ष बना कर भाजपा कुशवाहा और अन्य पिछड़ी जातियों का वोट जोड़ने की कोशिश कर रही है।
अपने संगठन में इधर उधर से आए नेताओं को कमान देकर भाजपा चुनावी जीत का तानाबाना बना रही है और साथ ही दर्जनों छोटी छोटी पार्टियों से तालमेल करके एक एक सीट की रणनीति बना रही है। जितने सहयोगी साथ छोड़ कर चले गए थे सबको वापस लाने की कोशिश हो रही है। इसके लिए मंत्रिमंडल में जगह बनाई जा रही है ताकि उनके नेताओं को केंद्र सरकार में मंत्री बनाया जा सके। अकाली दल और टीडीपी जैसे पुराने सहयोगियों से फिर तालमेल किया जा रहा है। बिहार में जीतन राम मांझी, चिराग पासवान, उपेंद्र कुशवाहा आदि नेताओं से तालमेल हो रहा है। कर्नाटक में जेडीएस को साथ लाने की बात है। सोचें, पिछले ही साल जुलाई में पटना में भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने ऐलान किया था कि सारी प्रादेशिक पार्टियां खत्म हो जाएंगी। एक साल बाद अब भाजपा मजबूरी में सारी प्रादेशिक पार्टियों को संजीवनी देकर जिंदा कर रही है क्योंकि उसको लग रहा है कि 10 साल के राज के बाद सत्ता बचाए रखने के लिए उसे इनकी जरूरत है।