बहस है ‘सनातन’ पर! सवाल है ‘सनातन’ के बहाने ‘हिंदू’ पर! भला ‘सनातन’ की परिभाषा क्या? कहा है इसका उद्गम? यह शब्द न तो वेद-उपनिषद् में है और न मनुस्मृति में। यह तो ब्राह्मणों का रूढ़िवाद है। उनकी बनाई कुरीतियों का कवच है। वह शब्द है, जिसका उन्नीसवीं सदी से पहले उपयोग नहीं था। तब यह सती प्रथा, बाल विवाह, पितृसत्तात्मक व्यवस्था, जाति प्रथा आदि को सही बतलाने का जुमला था। इसलिए यह एक व्याधि है, बीमारी है। ऐसे ही ‘हिंदू’ क्या है? वेद-उपनिषद-पुराण, रामायण, महाभारत में कहीं ‘हिंदू’ नहीं लिखा है। ऐसा है क्या जो हिंदू धर्म कहलाए, उस पर इतराए?
सवाल गंभीर है। और इनका होना भारत के मौजूदा विग्रही समय का प्रमाण है। मैंने ‘सनातन’ की पिछली विवेचना में अपनी चार पीढ़ियों के जीवन व्यवहार में हुए मौन, युगानुकूल परिवर्तनों का बोध बताया। चार पीढ़ियों के कोई दो सौ साल पहले हिंदू होने के जो लक्षण थे, जो लोक शास्त्र था वह आज नहीं है। बावजूद इसके यह कोर सत्य अपनी जगह है कि जीवन जीते हुए वे भाव तब भी थे और अब भी हैं, जिससे यह सहज संस्कार बना कि सब कुछ देखो पर जो मन, आत्मानुकूल लगे वह करो। जो आंखों देखी है उसके सत्य को बूझो और ग्रहण करो। फिर भले वह परपंरा और लोक व्यवहार को छोडता हुआ हो, मेल न खाता हो। इसलिए क्योंकि अंततः कर्म व्यक्ति का, उसकेकर्म फल का।
आप भी अपनी तीन-चार पीढ़ियों के अनुभवों पर सोचें। वेशभूषा, खानपान, प्राथमिकताओं, मान्यताओं, कर्मकांडों, रीति-रिवाजों, परंपरा में चाहे जो फर्क आया हो पर हर घर में यह बोध सबको, समान भाव गृहित रहा हुआ होगा कि जीवन की आचरण संहिता उन सभी मूल्यों में ढली है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। किसी ने कितना ही बहकाया, कितने ही फतवे आए, कितने ही सौदागर आए, कितने ही जुल्म हुए पर दिमाग और अंतर्मन कास्वंयस्फूर्त व्यवहार। एक मोटा उदाहरण गाय का। क्या गाय के प्रति सनातनधर्मी का भाव किसी राज्याज्ञा, फतवे, फरमान आदि की अनिवार्यता से बना? हम चौदह सौ साल गुलाम रहे पर गौ की महिमा, पूजा और उसका धर्म-संस्कृति का मर्मस्थल बना रहना सदा-सनातन से है। किसी को जैसे यह पता नहीं कि सनातन का ऐतिहासिक उद्गम कब है वैसे गौ पूजा के उद्गम का भी पता नहीं है। लेकिन गाय सिंधु नदी घाटी के यायावर-कृषि युग से लेकर आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के मौजूदा सफर तक में वह भावना है, जिसमें हम हम उसे जानवर नहीं, बल्कि पशुत्व से ऊपर उठी हुई गौमाता मानते हैं।
सो बिना शास्त्र पढ़े, बिना पैगम्बर या पोथी धर्म की आज्ञा के हमारी धारी हुई जीवन वृत्ति, हमारा अंतर्मन अपने आप पीढ़ी-दर-पीढ़ी वह भाव, स्वभाव, व्यवहार बनाए होता है जो, अजस्र धारा की तरह प्रवाहित होता है। ऐसा किसी धर्ममठ, धर्मग्रंथ, धर्माज्ञा या राज्याज्ञा के कारण नहीं, बल्कि व्यक्ति की निज वैयक्कितता के विवेक से है, आत्मानुकूलता, सदाचार, स्मृति और लोकाचार से है।
यह सब कालजयी है। इसलिए विस्मयकारी है। ज्ञात इतिहास का कोई भी काल खंगालें, विदेशी यात्री या विदेशी हमलावर, सबके लिए दक्षिण एशिया के लोग अबूझ रहे। कौतुक और पहेली का विषय रहे। जितने भी यूनानी और चाइनीज यात्री आए उन्होंने अपने यात्रा वृतांतों में अच्छा या बुरा जो लिखा वह सब इस विस्मय में था कि भारत के लोग कैसे अजब-गजब हैं। अंग्रेज भारत आए तो पश्चिमी विद्वानों ने वेद-उपनिषद, संस्कृत-प्राकृत शास्त्रों को खंगाला। अनुवाद किया। वेद-उपनिषद में धर्म और सनातनता को तलाशा तो तमाम तरह के उत्खननों में क्या वे हैरान नहीं थे? भारत का डिस्कवर होना क्या विस्मयकारी नहीं था? अंग्रेजों के साथ धर्मांतरण के लिए आई ईसाई मिशनियों ने, प्रारंभिक गजेटियरनों ने बनारस या उत्तर भारत के शहरों की कुरूपताओं, दुर्दशा का भयावह विवरण दिया है लेकिन बावजूद इस सबके पश्चिमीजन उस सनातन भाव, आस्था से पार नहीं पा सके जो लोकाचार में निरंतर मथता आया है।
सो, वह जीवन धारा जो न प्रगट और न विलुप्त लेकिन चेतना में धड़कती हुई। कैसा भी काल हो, कैसा भी राज हो, कैसी भी प्रकृति हो, कितनी भी आपदा-विपदा हो दक्षिण एशिया का होमो सेपियन ‘सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ की कसौटियों में इटरनल जीवन का वह अमृत या जादू मंतर लिए हुए है, जिससे उसकी जीवन जीने की पद्धति अमिट है। सोचें, क्या मामूली बात जो योग्यतम, स्वस्थतम, तलवारी और सभ्यताजन शक्तियों की मार की परिस्थितियों, परिवेश और प्रतिकूलताओं के बावजूद भारत के लोगों की उत्तरजीविता, जिजीविषा अखंड है, अक्षुण्ण है। क्या यह वस्तुस्थिति अपने आपमें यह सत्य बतलाते हुए नहीं है कि सनातन क्या है!
सनातनी उत्तरजीविता का कारण न शास्त्र है, न आस्था है और न धर्म का सांगठनिक रूप। जो है वह व्यक्ति की वैयक्तिक्ता में जीने का अंदाज और व्यवहार है। वह धर्म या आस्था विशेष से या काल से बंधा हुआ नहीं है। निश्चित ही उसकी प्रथाएं हैं, पुजारी हैं, रीति-रिवाज और मंदिर हैं, संस्थाएं हैं लेकिन धर्म संस्थागत नहीं है। पूरी व्यवस्था में निर्णयकर्ता वह धर्मपरायण मनुष्य है, जो अपने विवेक, अपने संस्कारों में देश और काल पर विचार करके रास्ता-व्यवहार बनाए होता है कि क्या सही है और क्या गलत। देश और काल अनुसार वह जीवन जीता है! वह विश्वास और आस्था का बंधुआ नहीं है। मगर हां, पुण्य-पाप, कर्मफलों के बोध में बुद्धि, विद्या, सत्य, अक्रोध, धैर्य के दस व्यापक लक्षणों में अपने आपको तौलता हुआ होता है।
हिंदी साहित्य के महामना विद्यानिवास मिश्र ने जीवन में सनातन की खोज में हिंदू धर्म को लोकसंग्रही धर्म लिखा है, ‘उसका लोक बहुत विशाल है, वह किसी जाति, किसी चेहरे, किसी नस्ल, किसी का हो सकता है, उसे लोक होना चाहिए। लोक के दो अर्थ हैं। एक अर्थ है प्रकाश, प्रकाश का स्वभाव है प्रसरण, सब तरफ फैलना; दूसरा अर्थ है 14 भुवन (ऊपर के सात भू-लोक, भुवर्लोक, स्वलोक, तपोलोक, लोक, जनलोक, महोलोक, सत्यलोक और नीचे के सात तल, अतल, सुतल, पाताल, रसातल आदि)। तीसरा अर्थ है प्रकाश और भुवन जैसे फैली हुई प्रकृति का मनुष्य, सामान्य जन (आम आदमी) जो देखता है, पर अपने लिए और केवल अपनी आंख से नहीं देखता है और वह आंख खोलकर देखता है और ‘सब’ को देखता है, सबमें एक को देखता है।…हिंदू धर्म ज्ञानमय भाव है, न वह ज्ञानरूप है, न विश्वासरूप, न कोरा भावरूप, भाव और ज्ञान अलग होते है तो हिंदू धर्म खंडित होता है। जब-जब ऐसे खंडन के अवसर आए हैं, तब-तब लोक ने अपने आपको मथा है….शास्त्र जब भी जड़ हुआ, लोकनिरपेक्ष हुआ तो एक न एक नया बौद्धिक और भावनात्मक आंदोलन हुआ..’।
लब्बोलुआब चिरंतन यात्रा, मानव धर्म की, सद्धर्म की। यह सहस्त्राब्दियों पुरानी आदि काल से चली आ रही जीवन धारा है। तभी गारंटीशुदा यह जान लेना चाहिए कि सदा से जो चला आया है वह चलता रहेगा। दूसरी बात सनातनी जनमानस की प्रकृति क्षणिक या समय विशेष के बवंडरों में नहीं बदलने वाली। संभव नहीं जो किसी सत्ता, किसी चेहरे, किसी नैरेटिव से सनातन के शाश्वत मूल्य, हिंदू की प्रकृति, उसका स्वभाव बदल जाए। वह कभी वैसा नहीं हो सकता जैसे इस्लाम और ईसा धर्म के आस्थावान हैं। हिंदू संगठित धर्म में अपने को कनवर्ट कर ही नहीं सकता। वह किसी एक पैगम्बर, किसी कथित अवतारी राजा से कतई दीक्षित नहीं हो सकता। इतिहास के प्रतिशोध में सत्ता की माया, उसके बहकावे या लोभ व दिमागी दिवालियेपन के अहंकारों में वह क्षणिक समय के लिए भले भटके लेकिन संस्कार, व्यवहार मूल में अटके रहेंगे। मौजूदा वक्त का यह खटका स्वाभाविक है कि पता नहीं बीस-पचास सालों में सनातन धर्म क्या रूप ले ले? यदि उसने अपना मूल गंवा दिया तो सभ्यताओं के संघर्षों में उसकी अक्षुण्णता, चिरंतनता बच पाएगी? तभी सोचना गलत नहीं हैं कि मौजूदा वक्त सनातन की परीक्षा का है। बावजूद इसके अपना यह विश्वास है अपनी सनातनता क्योंकि कालजयी है तो कौम, धर्म, नस्ल, देश में पचास-सौ साल का समय बेमानी। न सनातन भटकना है, न बदलना है और न कभी खत्म होना है।