हर दौर वक्त की छाप लिए होता है। वह राहु-केतु-शनि की प्रवृत्तियों के अपने साये में जीव-जंतुओं का खेला बनाए होता है। तभी तो मौजूदा दौर विनाश के विषाणुओं, वायरस का है। मानो समय थक गया है। पृथ्वी छीज गई है। पिछली सदी के आखिर में व इक्कीसवीं सदी के आरंभ में उम्मीदों का उत्साह था। नई सहस्त्राब्दी, ग्लोबलाइज्ड जीवन, तकनीक-संचार-डिजिटल क्रांति की भविष्यगामी उमंगें थीं। मिलेनियम पीढ़ी, भावी पीढ़ियों का सुनहरा वक्त आता लगता था। इतिहास खत्म होने मतलब लड़ाई-झगड़े, युद्ध की समाप्ति की भविष्यवाणी थी। टाइम कैप्सूल के गड्ढों में अतीत दफन होता हुआ था। तभी अचानक 9/11 हुआ। और सोचें, उस दिन और आज के दिन के 22 वर्षों पर? क्या समय की छाप का निचोड़ वायरस-विनाश काल नहीं है? पृथ्वी गर्म है। जलवायु-आबोहवा असहनीय है तो पृथ्वी के आठ अरब लोग कुल मिलाकर उन वायरसों के मारे हैं, जिसका नाता अतीत से है। मनुष्य की शैतानी व पशुगत प्रवृत्तियों की निचताओं से है।
मोटा-मोटी हम भारतीयों को यह सब समझ नहीं आता है। हम क्योंकि गुलामी और बेसुधी में जीने के संस्कारों में ढले हुए हैं तो यह सुध संभव नहीं है कि वायरस अनुभव ने 140 करोड़ लोगों की जिंदगी को कैसे छिजाते हुए है। हम कैसे और कितने अतीतगामी हो गए हैं। लूट और अशिक्षा के शिकार हैं। आंखों के आगे रियलिटी है। मसलन वायरस काल के बाद चिकित्सा अब लूटने का धंधा है। कथित आनलाइन-वर्चुअल शिक्षा नई पीढ़ियों के भविष्य खा रही है। आर्थिकी दीमक से दिनों-दिन खोखला होते हुए है तो जन जीवन झूठ, अंधविश्वासों-मूर्खताओं व नियति-भाग्य-अवतारो-धर्मादे, रेवड़ियों-खैरातों के दलदल में धंसता हुआ। बावजूद इसके ख्याल-इलहाम क्या? हम विश्वगुरू हैं!
समय न केवल भारत से मजाक करता हुआ है, बल्कि उन तमाम देशों के साथ भारत को घसीटता हुआ है जो आत्महत्या के रास्ते पर चलते हुए है। 23 सालों का वक्त यदि पृथ्वी और जलवायु को कगार पर ले आया है तो उन देशों, नस्लों और लोगों को आत्महत्या की और दौड़ाते हुए है, जिनमें अतीत का वह घमंड लौटा है कि हमसे है समय। हम जो चाहेंगे वह होगा और हम देख लेंगे सबको!
सचमुच मानव समाज न केवल पृथ्वी का, मौसम और आबोहवा का भस्मासुर प्रमाणित है, बल्कि वह भूमंडलीकृत गांव के आठ अरब लोगों को महामारी, युद्ध, महंगाई, तकलीफों के ऐसे-ऐसे अनुभव कराते हुए है जिसमें सब कुछ मानों समय की स्वचालित लीला!
मैंने कल्पना नहीं की थी कि भारत में मणिपुर अचानक गृहयुद्ध में बंटा हुआ होगा। जंगल राज से भी भयावह अमानुषी व्यवहार का जंगल होगा। कोई माने या न माने, समय साफ बता रहा है कि 140 करोड़ लोगों के भारत का क्या भविष्य है। सोचें, इक्कीसवीं सदी के 23 वर्षों में हम भारतीय कितने अंधे, बहरे और छोटे हुए हैं जो यह सुध भी नहीं कि मणिपुर का क्या अर्थ है? झूठ और सत्य का क्या फर्क है?
पर भारत का समय दुनिया का भी समय। इस सप्ताह कई तस्वीरें दिखलाई दीं। उत्तर कोरिया की राजधानी प्योंगयांग में तानाशाह राष्ट्रपति किम जोंग उन ने कोरियाई युद्धविराम की 70वीं वर्षगांठ के मौके पर सैन्य परेड से ताकत का प्रदर्शन किया। और उनके साथ तालियां बजाते हुए थे रूसी रक्षा मंत्री सर्गेई शोइगु तथा चीन के आला नेता ली होंगजॉन्ग। इस परेड में पानी के नीचे हमला करने वाले ड्रोन और ठोस ईंधन से लैस ह्वासोंग-18 अंतरमहाद्वीपीय बैलेस्टिक मिसाइल इसलिए प्रदर्शित हुए ताकि बगल का दक्षिण कोरिया, जापान कंपकंपाएं और अमेरिका अपने को निशाने में पाए।
क्या अर्थ है? क्या यह नहीं कि इतिहास इस इक्कीसवीं सदी में नई ताकत के साथ पुनर्जीवित है। इक्कीसवीं सदी होगी महायुद्ध की! न किम जोंग का कुनबा थकेगा और न पुतिन व शी जिनफिंग और न इनके वारिस थकेंगे। इन्हें लड़ना है। दुनिया को अपने माफिक बनाना है। ऐसा ही संकल्प ईरान के अयातुल्लाह का है। अफगानिस्तान के तालिबान का है। माली-नाइजर-चाड-सूडान-सोमालिया याकि अफ्रीका के सहेल, साहेल, सहारा रेगिस्तान में छितरे-फैले अल-कायदा, दाएस (आईएसआईएस), बोको हराम के जुनूनियों का है।
जाहिर है धरती अपने आपको, पृथ्वी के लोगों को रूलाते हुए है तो मनुष्य जात अहंकारों में अपनी वह विनाशलीला बुनते हुए है, जिससे न केवल लोग मरने हैं, बल्कि डूबती धरती को और विनाशक हथियारों व हिंसा से धक्का लगेगा। मतलब लगता है मानों धरती और मनुष्य दोनों इक्कीसवीं सदी को आत्महत्या की सदी बनाने की और बढ़ते हुए हैं।
क्या मैं गलत हूं? क्या चौतरफा अहंकार, झूठ और भूख के वायरसों का संक्रमण नहीं है?
सर्वत्र वायरस फैले हुए हैं। इस्लाम के अहंकार से शुरू सदी अब चाइनीज, स्लैविक, यहूदी, हिंदू आदि तमाम सभ्यताओं में किस्म-किस्म के तानाशाह पैदा किए है। चीन के शी जिनफिंग ने पूरी पृथ्वी की धुरी होने का 150 करोड़ चीनियों को सपना बेचा हुआ है। रूस के राष्ट्रपति पुतिन का सपना है कि वे स्टालिन वाला गौरव पाएं। जारशाही जैसा रूसी साम्राज्य बने तो उत्तर कोरिया के राष्ट्रपति का सपना है कि दुनिया के कथित चौकीदार पर मिसाइल दाग कर उसे उसकी औकात दिखलाई जाए! वही हम हिंदू अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अवतार से अपने आपको विश्वगुरू बना समझ रहे हैं। हर नेता दहाड़ रहा है। हर नेता जिद्दी है। हर नेता आत्ममुग्ध है। हर नेता गर्मी खाता हुआ है, गर्मी निकालता हुआ है।
सवाल है गर्मी सन् 2000 के बाद कैसे लगातार बनती और बढ़ती हुई है? क्यों 9/11, अफगानिस्तान और इराक रणक्षेत्र बने या पुतिन के दिमाग में यूक्रेन को खाने की भूख बनी?
किसी भी तरह सोचें, किसी भी आग्रह-पूर्वाग्रह या विचार के खांचे में विचार करें तो एक ही कारण जिम्मेवार लगता है। और वह यह कि मनुष्य उस दिमाग का मारा है जो धरती के तमाम जीव-जंतुओं और पशुओं की सभी तरह की प्रवृत्तियों का समुच्चय है। मानव दिमाग क्योंकि भिन्न-भिन्न पशुओं के स्वभाव के बीजों में रचा-पका है तभी वह न तो पशु अतीत से बाहर निकल पाता है और न समय उसे सौ टका मनुष्य बना पाया है।
खेला दिमागी जड़ता का है। ढांचे में बंधे होने का है। मनुष्य ने नस्ल, धर्म, सीमा, सभ्यता-संस्कृति के जितने खांचे बनाए हैं वह मानव का विकास नहीं था अपितु पशुगत स्वभावों की पहचान व गोलबंदियां है। इसमें हजारों सालों से जो जितना बंधा रहा, ढला रहा वह उतना ही अतीत का पालतू हुआ है। उस नाते यह भी सत्य है कि मानव सभ्यता के विकास, जागरण, पुनर्जागरण तथा ज्ञान-विज्ञान की असंख्य गंगोत्रियों का उद्भव उन इंसानों की खोपड़ी से हुआ है, जिनके डीएनए नित नई उडान में उड़े और खिले।
विषयांतर हो रहा है। इन दिनों अमेरिकी परमाणु वैज्ञानिक ‘ओपेनहाइमर’ फिल्म का हल्ला है। जरूर देखना चाहिए। यह भी बूझने के लिए कि रिसर्च-ज्ञान-विज्ञान-तकनीक-दिमाग-पुरुषार्थ-उद्यमशीलता-शिक्षा का क्यों अमेरिका है घरौंदा? हिटलर के साथ महायुद्ध के अधबीच अमेरिकी सेना ने ओपेनहाइमर को विश्वविद्यालय से खोज कर उन्हें पूरी स्वतंत्रता देते हुए एटम बम बनाने का जो प्रोजेक्ट दिया और फिर ओपेनहाइमर ने तमाम स्वतंत्र मिजाजी वैज्ञानिकों को जैसे इकट्ठा करके रिसर्च को सिरे चढ़ाया तो उसे कई सत्य अपने आप साबित है। असल बात यह सच्चाई है कि मनुष्य दिमाग तब खोजी होता है जब उसे उड़ने की भरपूर आजादी हो। यों इस फिल्म में अमेरिकी सिस्टम के चेक-बैलेंस और राजनीति में ओपेनहाइमर की प्रताड़ना, पूछताछ व अग्निपरीक्षा भी है। मगर असल पहलू स्वतंत्र मिजाजी व्यक्ति के आजाद ख्यालों में जिंदगी जीने की जिद्द का है। और ओपेनहाइमर के साथ अल्बर्ट आइंस्टीन के संवाद से भी साफ झलकता है कि बाड़े का बंधुआ दिमाग और स्वतंत्र गरूड़ उड़ान का फर्क ही मनुष्य-मनुष्य का फर्क है।
मेरा मानना है यहूदियों की बुद्धि का जवाब नहीं है। इस पर मैं पहले भी लिख चुका हूं। ध्यान रहे ओपेनहाइमर व आइंस्टीन दोनों यहूदी थे। और यहूदियों से ही पश्चिम के बाकी धर्म निकले हैं। लेकिन नए धर्मों से ही यहूदियों की प्रताड़ना हुई। वे अपनी जमीन से बेदखल हुए। नफरत झेली। नरसंहार भुगता। बावजूद इसके दुनिया भर में भटकने के अनुभवों ने यहूदी दिमाग को वे पंख दिए कि दिमाग अनंत ऊंचाइयों को छूता हुआ। कोई आश्चर्य नहीं जो ज्ञान-विज्ञान के आधुनिक काल, पश्चिमी सभ्यता के पुनर्जागरण, आविष्कारों-शोध, पूंजी-मुनाफे से लेकर विचार, आइडिया, विकास का मानव सफर यहूदी वैज्ञानिकों, क्रांतिकारियों, विचारकों के फुट प्रिंट लिए हुए है।
मैं यहूदियों के साथ हिंदुओं को तौलता आया हूं। मेरा मानना है कि दोनों में वह बुनियादी फर्क है, जिससे हिंदू गुलामी में ढल कर कलियुगी हुए। हम जड़ बुद्धि, भक्त, रट्टामार, जुगाड़ू और अतीत के मिथक विश्व के मुगालती बने। बुद्धि और सत्य से नाता तोड़ा! डीएनए में गुलामी, भयाकुलता तथा भाग्य इनबिल्ट हुआ। सब एक ढर्रे में। नया कुछ नहीं। ऐसा यहूदियों के साथ नहीं हुआ।
जरा 1947 में हिंदुओं को मिली आजादी बनाम 1948 में यहूदियों को मिले इजराइल के फर्क पर गौर करें। पता है आपको इजराइल बिना संविधान के है। जब इजराइल बना तो पहली प्रधानमंत्री गोल्डा मेयर आदि यहूदी नेताओं ने संविधान का आइडिया खारिज किया। गोल्डा मेयर का मानना था हम यहूदियों के जीने का जो स्वभाव है, जो परंपरा है वह जब है तब संविधान की क्या जरूरत! संविधान कोई रामबाण नहीं, जिससे लोकतंत्र और मानवाधिकारों की गारंटी सौ टका हो। इस यहूदी सोच, स्वभाव पर इजराइली दार्शनिक मिकाह गुडमैन (Micah Goodman) ने खुलासा करते हुए बताया है कि संविधान और कानून तो नागरिक और सरकार दोनों को बांध देते हैं, जबकि कानून समय बनाता है। कानून शाश्वत नहीं हुआ करता। तब भला क्यों संविधान बना कर देश उन लोगों के हाथ बांधे जो ससंद में पांच साल के लिए चुने जाते हैं। क्या मौजूदा सासंदों में आने वाली पीढ़ियों से अधिक ज्ञान है जो उनके लिए सब कुछ पहले तय कर दो। क्यों हम डरें कि जो लोग बाद में आएंगे वे समझदार नहीं होंगे और देश की चिंता करने वाले नहीं होंगे!
कल्पना करें हम हिंदू क्या ऐसे सोच सकते हैं? बावजूद इसके इक्कीसवीं सदी का कमाल है, विडंबना है जो समय ने इजराइल में आज नेतन्याहू नाम का वह प्रधानमंत्री है, जिसके खिलाफ यहूदी जनता तेलअवीव की सड़कों पर प्रदर्शन के लिए मजबूर है। अतीत के जीने वाले कट्टर यहूदी इजराइली नेता सुप्रीम कोर्ट को संसद के अधीन बना रहे हैं। इसका दुनिया भर के यहूदियों में विरोध है। लेकिन प्रधानमंत्री नेतन्याहू भी सत्ता भूख के वायरस से संक्रमित हैं तो इजराइल जैसा देश भी संकट में है। हालांकि मेरा मानना है कि नेतन्याहू का कानून अगली संसद, अगली पीढ़ी के नेता कूड़ेदानी में फेंक देंगे। और ऐसा हो सकना ही बिना संविधान के समाज व्यवहार की खूबी है।
लब्बोलुआब, मौजूदा समय की छाप में वह सब है, जिसकी मार में आठ अरब मनुष्यों की जिंदगी सूखी और बंजर होते हुए है। फिर भले ऐसा दिखलाई नहीं दे।