पृथ्वी के आठ अरब लोगों में हम सर्वाधिक संख्या वाले 140 करोड़। जाहिर है मानव सभ्यता की सभी प्रवृत्तियों के प्रतिनिधि चेहरे। समझदार और मूर्ख। भयाकुल और निर्भयी। भक्त, नियतिवादी तो कर्मयोगी-पुरुषार्थी। सवाल है इन सबके बीच आम समझ कैसी?प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त 2023 के दिन लाल किले से पते की बात कही। उन्होने देश-दुनिया को याद दिलाया कि भारत हजार साल गुलाम रहा। जबकि पिछले 9-10 सालों से भारत विश्व का प्रकाश पुंज है! अच्छे दिन हैं। अमृत काल में है! आगे के हजार साल के स्वर्णिम भारत के बीज अंकुरित हो रहे हैं।
निःसंदेह नेता यदि सपने नहीं बेचे, जादू नहीं दिखाए तो वह नेता कैसा! इन दिनों दुनिया में सभी तरफ यही होता हुआ है। डोनाल्ड ट्रम्प अमेरिका को ‘ग्रेट’ बना रहे हैं। पुतिन सोवियत संघ के दिनों का रूस बना रहे हैं। शी जिनफिंग विश्व की धुरी बन रहे हैं। पृथ्वी भले जल रही हो, मानव सभ्यता प्रलय के करीबी के दसियों लक्षण लिए हुए है लेकिन नरेंद्र मोदी हजार साल की हिंदू गुलामी की याद दिला कर भारतीयों को स्वर्णिम हजार सालदिखला रहे हैं। इसमें मोदी की गलती नहीं है। वे समझदार हैं क्योंकि वे वही कर रहे हैं, जो नस्ल, कौम के दिमाग में हजार साला गुलामी से पकी मूर्खताएं है। नींद व सपने में रहने का यदि कौम का स्वभाव है तो मोदी फट्टे मारें तो यह उनकी गलती नहीं है। जब भक्त प्रजा को सब अच्छा, अमृत काल, विकसित देश, स्वर्णिम देश का सफर समझ आ रहा है, वह कीर्तनरत है तो बेसिक सवाल है कि हम दिमाग में बुद्धि लिए हुए हैं या मूर्खता?
असल बात गुलाम इतिहास है। हमारे हजार साल क्योंकि दासता, चाकरी, भयाकुलता तथा भूख के थे तो अब दिमाग हर उस समय को संतोष, विश्वास तथा भक्ति में जीता है जब अपना राजा सत्तावान होता है। ऐसा नेहरू, इंदिरा गाधी, राजीव गांधी, वाजपेयी, नरेंद्र मोदी सबके साथ है। जैसे नरेंद्र मोदी विश्व मित्र, प्रकाश पुंज, जी-20 बैठक के नगाड़ों से लोगों को मुग्ध बनाए हुए हैं वैसे पंडित नेहरू की निर्गुट, पंचशील आदि की जुमलेबाजी में भी हम लोगों ने दुनिया में शांति-अमन के कबूतर उड़ते माने थे।
इसलिए प्रधानमंत्री या नेता पर विचार निरर्थक है। असल मसला दिमाग का है? उसमें कितनी मूर्खता या समझदारी है? हजार साल की गुलामी से बनी मनोदशा निश्चित गी पृथ्वी के बाकी लोगों से भिन्न होगी? यों वैश्विक सत्य है कि इंसान ने पृथ्वी पर अपने अलग-अलग बाड़े बना कर सुरक्षा, समृद्धि, विकास के जितने भी जतन किए है उनमें उलटे वह ठगा गया। मूर्ख बना। उसकी पशु रेवड़ बन गई। भेड़-बकरी जैसा पालतू हुआ। चतुर लोमड़ियों, भेड़ियों का शिकार हुआ। मतलब वह न केवल गड़ेरियों पर आश्रित हुआ बल्कि गुलाम बन, इतना मंद बुद्धि हुआ जो यह बोध भी खत्म हुआ कि प्रकृति और ईश्वर ने उसे वह मष्तिष्क दिया है, जिसकी विशिष्टता की वजह से वह भेड़-बकरी, गधे, भैंस, भेड़िए याकि पशु जगत से अलग है।
हां, मनुष्य और उसकी भीड़ का पशुपना वह संकट है, जिससे मानव इतिहास मूर्खताओं से भरा पड़ा है। इतिहास और परिवेश की अलग-अलग वजह से कम या अधिक मात्रा में मनुष्य दिमाग अपंग होता ही है। लोग न केवल उल्लू बनते हैं, बल्कि पृथ्वी के सर्वाधिक मंद बुद्धि जीवों की तरह व्यवहार करते हैं? इंसानी दिमाग तमाम मूर्खताओं का पिटारा। कई मायनों में इक्कीसवीं सदी का यह नंबर एक संकट है जो मनुष्य मष्तिष्क एक तरफ आर्टिफिशियल मष्तिष्क, क्वांटम कंप्यूटिंग, अंतरिक्ष को भेदता हुआ है वही दूसरी तरफ लोग ऐसे मूढ़, मंद हुए है कि वह सामान्य रियलिटी तक बूझ नहीं पाते। मूर्ख पशु जैसे जीवन गुजारते है।
जैसे एक पशु है- कोआला। वैज्ञानिकों के अनुसार ऑस्ट्रेलिया में पेड़ से चिपके रहने वाला यह भालू उर्फ कोआला दुनिया का नंबर एक बेवकूफ, मूर्ख जीव है। इसमें मष्तिष्क है लेकिन वह उसका न्यूनतम उपयोग करता है।
वैसे हम भारत में गधे को नंबर एक गधा मानते हैं। असलियत में मूर्ख पशुओं की श्रेणी में गधे का नंबर बहुत बाद में है। कोआला नंबर एक पर है। यह स्तनधारी जीव यूकेलिप्टस खाता है, जिसे बाकी जीव नहीं खाते क्योंकि यह अपाच्य व जहरीला होता है। लेकिन कोआला यूकेलिप्टस खाने, 20 घंटे सोने, क्लैमाइडिया-ग्रस्त साथी से संभोग से संतान पैदा करने की सनातनी जीवन पद्धति में ढला जीवन जीते हुए चला आ रहा है। वैज्ञानिकों की मानें तो इसके द्वारा दिमाग का न्यूनतम इस्तेमाल ही इस प्रजाति के जीवित रहने की वजह है। दिमाग है लेकिन छोटा। वह सोचने-समझने व पुरुषार्थ की जहमत नहीं उठाता। शायद वह भी यूकेलिप्टस के ऊंचे पेड़ पर चिपके रहते हुए अपने आपको विश्व गुरू, विश्वमित्र मानता हो। वह रियलिटी याकि परिवेश की सच्चाई नहीं बूझता। मतलब बारिश है तब भी बचाव में छाया में जाने की जहमत नहीं उठाएगा। बारिश में पड़ा रहेगा। आग लगे तब भी लपटों के पहुंचने तक वह पेड़ के भीतर पड़ा रहेगा। उन्हें खाने को यूकेलिप्टस की पत्तियां दें तो वह उसे नहीं खाएगा क्योंकि उसे तो खुद यूकेलिप्टस से चिपके रह कर खाना है। तभी वह शिकारियों का आसान निशाना होता है।
कोआला मूर्ख मष्तिष्क का एक प्रतिमान है। अब गौर करें मूर्खता के अपने पर्याय गधे पर! गधे को क्यों हम मूर्ख मानते हैं? क्या इसलिए क्योंकि वह सीधा और सहनशील होता है? उसे कितना ही मारो, दुत्कारो वह मालिक को छोड़ कर नहीं जाता है। कभी-कभी मालिक से रूठता है। जिद्दी हो जाता है। चलना बंद कर देता है लेकिन मोटा-मोटी वह आदेश पालक होता है। भक्त होता है। उसके लिए दिन-रात खटता है। वह सोचता नहीं है। गधा कितना ही भूखा मरे, बेरोजगार-आवारा रहे वह कभी गुस्साएगा नहीं। मालिक गधे को कितना ही मारे, उसे खराब राशन-पानी दे और उसे चैन से नहीं रहने दे तब भी गधा नाराज नहीं होगा। असंतोष नहीं दिखाएगा। खूंटा छोड़ भागेगा नहीं। उसमें कभी जोश आया मतलब वसंत में उल्लास हुआ तब वह मानों मालिक के तराने गाते हुए। गधा संयमी होता है, संतुष्ट होता है। दिन-रात मेहनत करता है लेकिन उसे न मेहनत का प्रायोजन मालूम होता होता है और न मेहनत का परिणाम!
सवाल है कोआला और गधे के साथ क्या भेड़-बकरी के दिमाग को रख सकते हैं? मनुष्यों में कोआला और गधे की प्रजाति के दिमागी स्वभाव में मानसिक अपंगता, मूर्खतापूर्ण, मंद आचरण अधिक है या भेड़-बकरी का? हिसाब से मनुष्य भीड़ की हर्ड मनोवृत्ति पर मनोवैज्ञानिकों का अधिक काम है। फिर पृथ्वी की बहुसंख्यक आबादी (चीन, रूस से लेकर तीसरी दुनिया के कई देश) की अनुशासित-पालतू रियलिटी से भी जाहिर है कि भेड़-बकरी की रेवड़ और गड़ेरियों का आचरण मानव समाज पर अधिक बैठा है। भेड़-बकरी को गड़ेरिया जो कहेगा वह मानेगी। वह जो खिलाएंगा भेड़ें खा लेंगी। उससे सुरक्षा का विश्वास दिनचर्या का संतोष है तो जिंदगी को नियति व स्थितप्रज्ञता में जीते जाना है।
ऐसे कई पशु (लंगूर, भेड़िए, लोमड़ी आदि) और हैं, जिनकी दिमागी तासीर में मनुष्य मष्तिष्क के तमाम स्वभाव फिट बैठते है। मुझे लगता है कि भैंस का मामला भी सटीक है। भैंस की बुद्धि, उसके दिमाग के क्या कहने! वह कभी परिवेश, अनुभव में विचलित होती नहीं दिखती। भैंस के आगे कितनी ही बीन बजाएं, उसके दिमाग में हलचल नहीं होगी। वह भूखी रहे तो भी ज्यादा हल्ला नहीं। उसका बच्चा याकि पाड़ा तो इतना सुधी भी नहीं बनता कि मां के पास जा कर दूध के लिए छटपटाए।
सोचें, कोआला से ले कर भैंस और उसके पाड़े की तासीर में यदि मनुष्य के व्यवहार को अलग-अलग जांचें तो आठ अरब लोगों के मनुष्य व्यवहार में कितनी तरह की मूर्खताएं, कैसी-कैसी मानसिक अपंगताएं मिलेंगी? मूर्खताओं के कितने सांचे, कितने रूप हैं, जिनमें नस्ल और कौम का सफर रहा है और अब भी है। शायद तभी कई वैज्ञानिक इक्कीसवीं सदी को ले कर चेताते हुए हैं।