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सौ साल के जिमी कार्टर!

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मंगलवार को अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जिमी कार्टर शतायु हो रहे हैं! बकौल उनके पोते वे चेतन अवस्था में हैं। उनका दिमाग एलर्ट है और उन्होंने डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार कमला हैरिस के लिए मतदान करने की इच्छा जताई है। लेकिन हकीकत यह भी है कि वे अर्से से हास्पिस केयर में है। अर्थात मरणासन्न रोगियों की देख रेख के लिए बनी मेडिकल, भावनात्मक केयर में उनकी दिनचर्या है। बावजूद इसके अपने ही घर में इस केयर में सांसें लेते हुए जिमी कार्टर की सौ वर्ष की जिंदगी के बहुत मायने हैं।

वे अमेरिकी इतिहास के पहले शतायु राष्ट्रपति हैं। इसलिए स्वाभाविक है जो मंगलवार को अमेरिका उनका अभिनंदन करता हुआ होगा। आम तौर पर सत्ता, पॉवर से बाहर होने के बाद राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों का बुढ़ापा मजे की रिटायरी में नहीं गुजरा करता। और जिमी कार्टर तो वे नेता हैं, जो ठेठ 1981 में रिटायर हुए थे।

मगर जिमी कार्टर वे बिरले पूर्व राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने रिटायर होने के बाद अपनी पत्नी रोजलिन के साथ कोई 35 वर्ष लगातार अपने एनजीओ संगठन कार्टर सेंटर के जरिए मानवीय सरोकारों में अच्छे काम किए। देश और विदेश सभी तरफ सक्रिय रहे। नवंबर 2023 में उनकी पत्नी की मृत्यु 96 वर्ष की उम्र में जब हुई तब जिमी कार्टर 99 वर्ष के थे। और वे 77 साल के वैवाहिक जीवन की अपनी संगिनी की अंतिम सांसों के समय उनके पास पूरी रात व्हीलचेयर पर बैठे रहे। वे भी हास्पिस केयर में थीं।

इसलिए जिमी कार्टर और रोजलिन कार्टर सम सामयिक अमेरिकी इतिहास की हस्तियों में एक अलग ही तरह का सम्मान लिए हुए हैं। इन दोनों ने जिस ऊर्जा, सक्रियता, जिंदादिली के साथ जीवन जीया उसकी गाथा मामूली नहीं है। तभी जिमी कार्टर के राष्ट्रपति बनते वक्त भी उनको लेकर अमेरिकियों में अच्छी फील थी तो चुनाव हार जाने के बाद भी रही। और उनके रिटायर जीवन के योगदान को लेकर तो खैर कहने ही क्या!

मेरे लिए जिमी कार्टर वे पहले विश्व नेता हैं, जिन्हें मैंने दिल्ली के कनॉट प्लेस में खुली कार में खड़े देखा था। तब भारत ने उनका तहेदिल स्वागत किया था। वह आजाद भारत का बहुमूल्य लम्हा था। 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी हारी थीं। इमरजेंसी खत्म हुई थी और उसकी वैश्विक वाह में जनवरी 1978 में अमेरिका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने भारत की यात्रा कर भारत के लोकतंत्र को सलाम किया। मानवाधिकारों की अपनी धुन की डुगडुगी बजाई। भारत को सोवियत संघ, कम्युनिस्ट प्रभावों से बाहर निकालने का प्रयास किया।

प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की निर्भयता, उनके गांधीवादी और जिद्दी स्वभाव का आदर किया। हां, जिमी कार्टर ने यात्रा के दौरान मोरारजी सरकार को परमाणु परिसीमन संधि (एनपीटी) के लिए मनाने की भी बहुत कोशिश की। लेकिन मोरारजी सरकार का स्टैंड पूर्ववर्ती सरकारों जैसा रहा। बावजूद इसके भारत ने जिमी कार्टर का मन से स्वागत किया और उनके नाम पर हरियाणा के एक गांव का नामकरण कार्टरपुरी हुआ। वजह यह भी थी कि उस गांव में कभी जिमी कार्टर की मां ने पीस कोर्प की तरफ से भारत आकर स्वयंसेविका के रूप में काम किया था।

और मेरा मानना है कि जिमी कार्टर की यात्रा से भारत तब अमेरिका से जैसी भावनात्मकता से जुड़ा वैसा फिर कभी नहीं हुआ। इसलिए क्योंकि 1977-78 के उस समय में अमेरिका रिचर्ड निक्सन, जेराल्ड फोर्ड के रिपब्लिकन प्रशासन से मुक्त हुआ था और उनकी जगह मानवाधिकारों के पैरोकार डेमोक्रेटिक नेता जिमी कार्टर राष्ट्रपति चुने गए थे। सो, एक तरफ भारत में इमरजेंसी की विलेन इंदिरा गांधी को भारत के लोगों ने दरवाजा दिखाया था वही अमेरिका भी निक्सनवाद से बाहर निकला। इसलिए लोकतंत्र के सबसे ताकतवर अमेरिका और सबसे बड़े देश भारत की केमिस्ट्री में परस्पर सद्भावना की सुनामी बनी।

और उस समय का यह तथ्य भी जानें कि तानाशाही को परास्त करने वाले भारतीय जनादेश के बाद दुनिया भर के नेता भारत यात्रा पर आए थे। एक के बाद एक नेताओं का तांता लगा था। कभी जर्मनी के विली ब्रांट आ रहे हैं तो कभी ब्रितानी प्रधानमंत्री, कभी स्पेन के राजा-रानी तो कभी ईरान के शाह मगर सबसे उत्साही यात्रा जिमी कार्टर की ही थी।

कोई न माने इस बात को, लेकिन सत्य है कि स्वतंत्र भारत के अब तक के इतिहास में भारत की विश्व रंगमंच में उपस्थिति के तीन ही असली लम्हे हैं। एक, इंदिरा गांधी की कमान में बांग्लादेश का निर्माण। दो, 1977 में तानाशाही के खिलाफ जनादेश। और तीन, 1992 में आर्थिकी का उदारीकरण। तभी मेरी धारणा है कि इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई और पीवी नरसिंह राव के हाथों भारत राष्ट्र-राज्य की कहानी में जो मोड़ आए हैं वही असल कथानक हैं बाकी सब तो टाइमपास है!

वैसा ही कुछ मामला जिमी कार्टर का है। वे एक ही टर्म राष्ट्रपति रहे। 1980 में वे रिपब्लिकन उम्मीदवार रोनाल्ड रीगन से चुनाव हार गए। लेकिन जनवरी 1977 से जनवरी 1981 के चार वर्षों में ही उन्होंने इजराइल और मिस्र में दोस्ती बनवाई। कैंप डेविड समझौता हुआ। सोवियत संघ और साम्यवादी देशों में मानवाधिकारों के हनन के खिलाफ उन्होंने आवाज बुलंद की। और मेरा मानना है कार्टर के वैश्विक मानवाधिकार दबावों तथा 1979 में अफगानिस्तान पर सोवियत संघ के कब्जे के वे दो कारण थे, जिससे रोनाल्ड रीगन के कार्यकाल में अचानक सोवियत संघ ढह गया। और तो और ईरान के शाह का तख्त भी पलटा।

ईरान की घटना के कारण जिमी कार्टर का कार्यकाल अमेरिका में अलोकप्रिय हुआ। ईरान में अमेरिकी बंधकों का वह वैश्विक संकट बना, जिसे सुलटाते-सुलटाते जिमी कार्टर चुनाव हार गए। कार्टर की प्राथमिकता में मानवाधिकार थे तो परमाणु हथियारों की होड़ को रोकने की साल्ट-2 संधि भी थी। उनके कार्यकाल में पनामा नहर संधि पर संसद की पुष्टि हुई तो चीन से अमेरिका के पूर्ण राजनयिक रिश्ते बने। अमेरिका की घरेलू राजनीति में वे हमेशा हंसता, मुस्कराता चेहरा रहे। उनके आगे महंगाई, बेरोजगारी तथा बजट घाटे की चुनौती थी। इनमें कुछ सफलता मिली तो असफलताएं भी थीं। मगर चुनाव आते-आते महंगाई, ऊंची ब्याज दर तथा मंदी ने उनका ग्राफ लुढ़काया। अनुदारवादी रोनाल्ड रीगन के दक्षिणपंथी नारों ने अमेरिका में भी वह परिवर्तन कराया, जैसा लगभग उसी समय ब्रिटेन में मारग्रेट थैचर के उदय से हुआ।

व्हाइट हाउस से जिमी कार्टर की विदाई के बाद उनकी छाप महसूस की गई। दुनिया में ऐसे बिरले ही नेता हैं, जो कम समय के शासन के बावजूद लोगों के मान-सम्मान के महानायक रहे हैं। जिमी कार्टर ने अपने कार्यकाल में सिविल सेवा को सुधारा। रिकॉर्ड संख्या में महिलाओं, अश्वेत तथा लातिनी समुदाय के लिए सरकारी नौकरियों में अवसर बनाए। पर्यावरण की चिंता से लेकर ऊर्जा संकट के समाधान, नागरिक उड्डयन क्षेत्र में उदारीकरण की कई ऐसी नीतियां बनाईं, जिसका बाद में असर हुआ। पश्चिम एशिया में शांति प्रक्रिया में आगे के समझौते हुए। इसलिए सन् 2002 में जिमी कार्टर को इस बात के लिए नोबेल शांति पुरस्कार मिला क्योंकि उन्होंने अंतरराष्ट्रीय झगड़ों के शांतिपूर्ण समाधान के साथ लोकतंत्र व मानवाधिकारों पर बल और आर्थिकी-सामाजिक विकास को प्रमोट किया।

जाहिर है सक्रिय राजनीति से रिटायर होने के बाद उन्होंने तथा उनकी पत्नी रोजलिन ने 1982 में अपना एनजीओ याकि कार्टर सेंटर की स्थापना कर अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और अमेरिका के भीतर अलग-अलग समुदायों की मदद के लिए जो किया उसकी गंभीरता और पुण्यताओं से कार्टर दंपत्ति का मान बना। गौर करें जिमी कार्टर के इस वाक्य पर कि, ‘हमें पता है कि एक-तिहाई की अमीरी और दो-तिहाई की भूख के रहते लंबे समय तक विश्व शांति नहीं बनी रह सकती’। इसी सोच में जिमी कार्टर अपनी पत्नी के साथ लगातार ताउम्र अपने फितरत में सक्रिय रहे। पत्नी के निधन के बाद उन पर उम्र का असर बढ़ा। संभवतया अकेलेपन में टूटे। और पहले मेडिकल देख रेख में रहे और इन दिनों घर पर ही हास्पिस केयर में है।

जॉर्जिया के एक गांव में एक अक्टूबर 2024 में जन्मे जिमी कार्टर कल यानी एक अक्टूबर 2024 को चेतन दिमाग के साथ सौ साल पूरा करेंगे तो निश्चित ही अमेरिकी तहेदिल अपने भले, हंसमुख, अच्छे और संस्कारी पूर्व राष्ट्रपति जिमी कार्टर का अभिनंदन करेंगे। और अपनी उम्मीद है कि उनके मान से शायद अमेरिकी मानस कुछ और जागे। और दुष्ट पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का दूसरी बार राष्ट्रपति बनने का सपना धरा रह जाए।

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By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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