अपने पंकज शर्मा ने लिखा कि कमलनाथ, गहलोत, भूपेश के 23 पर टिका है 24 का चुनाव! पर क्या ऐसा है? कमलनाथ, गहलोत, भूपेश क्या 23 में मोदी को हरा सकते हैं? क्या इन चुनावों में भी मध्य के निर्णायक वोट अखिल भारतीय सरोकारों के एजेंडे में नहीं गिरेंगे? क्या 23 का चुनाव 24 के दंगल से अलग होगा? और यदि नहीं हुआ तो ठीकरा कमलनाथ, गहलोत, भूपेश पर फूटेगा या राहुल गांधी पर? सोचें, यदि कांग्रेस तीन राज्यों में हार गई तो 24 में राहुल गांधी, कांग्रेस, खड़गे चेहरा दिखाने लायक रहेंगे? ‘इंडिया’ में क्या लोकसभा चुनाव लड़ने का हौसला बचेगा?
मोदी 23 का चुनाव लड़ रहे हैं, जबकि राहुल गांधी ने ऐन वक्त सियासी आत्महत्या का रास्ता पकड़ा है। हकीकत पर गौर करें। पहली बात, मोदी व शाह और नड्डा खुद चुनाव संभालते हुए हैं। मोदी अपने केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों, तमाम दिग्गजों को उम्मीदवार बना रहे हैं। दूसरी बात, वे जनता में वैश्विक हवाबाजी, कनाडा, खालिस्तान, हिंदू-मुस्लिम, महिलाओं की वंदना जैसे अखिल भारतीय सरोकारों, मुद्दों का हल्ला बना रहे हैं। भावनाओं और संसाधनों का सैलाब ला देंगे। वे कांग्रेस और उसकी सरकारों की नेगेटिविटी, भ्रष्टाचार, वंशवाद आदि पर भाषण देते हुए हैं। मतलब 23 का चुनाव उसी पिच पर, जिस पर 24 का होगा। जाहिर है सेमी फाइनल में ही नरेंद्र मोदी कांग्रेस की कमर तोड़ेंगे ताकि राहुल गांधी का गुब्बारा पिचके। नतीजतन महाराष्ट्र से लेकर पश्चिम बंगाल, दक्षिण सभी तरफ ‘इंडिया’ वालों का मनोबल खलास।
ठीक विपरित राहुल गांधी क्या कर रहे हैं? अपनी पिच छोड़ बैठे हैं। हां, भारत यात्रा से राहुल गांधी का नया समय शुरू होता लगा था। उनकी एक अखिल भारतीय पुण्यता बनी। मोदी सरकार के तौर-तरीकों, क्रोनी पूंजीवाद व अडानी के खिलाफ निडर लीडरशीप और जुझारूपन से राहुल को लेकर नई धारणा बनी। फिर विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के गठन से भी वाह हुई। उससे नरेंद्र मोदी-अमित शाह हैरान व परेशान हुए।
तभी जी-20 के साथ मोदी ने संसद के विशेष सत्र और महिला बिल का पासा चला। और इसमें ओबीसी नेताओं का हल्ला हुआ, उन्होने राजनीति कीऔर राहुल गांधी पटरी से उतर गए। वे अपने पाले को छोड़ बैठे। ऐसा राग अपनाया, जिसमें ओबीसी नरेंद्र मोदी के आगे ब्राह्मण राहुल गांधी इंच भर नहीं जीत सकते है। राहुल गांधी भारत यात्रा और भ्रष्टाचार-अडानी-अंबानी, महंगाई आदि सबको बैकग्राउंड में धकेल उन पिछड़े वोटों को पाने के ख्यालों में हैं, जिनके नरेंद्र मोदी पर्याय हैं! जिनमें नरेंद्र मोदी जन्म-कर्म से नाता जोड़े हुए उनके आईकॉन हैं! यह सियासी मूर्खता की हद है, जो राहुल गांधी, नीतीश कुमार इस मुगालते में हैं कि वे पिछड़ों की बात करेंगे तो पिछड़ों के वोट कांग्रेस को मिलेंगे और ‘इंडिया’ जीत जाएगा।
कैसे हुआ यह? जवाब में यह संभावना है कि नीतीश कुमार के अपने कारणों से या मोदी-शाह की परोक्ष राजनीति (नीतीश के कैबिनेट व बेहद करीबियों में भाजपा के चहेते लोग हैं) से राहुल गांधी भटके हैं। नीतीश और लालू यादव एक ही सियासी सिक्के के दो पहलू हैं। याद करें दोनों को कैसे जबरदस्त अवसर मिले। बिहार में मनमानी से राज किया लेकिन शासन और विकास (सामाजिक न्याय में भी) में एक उपलब्धि ऐसी नहीं, जो राष्ट्रीय नेतृत्व व प्रधानमंत्री पद की कसौटी में खरी हो। लालू यादव का जहां जंगल राज था वही नीतीश कुमार का बेगारी भरा जड़ राज। देहात, कृषि, औद्योगिक विकास नहीं तो न शिक्षा विकास या सामाजिक समता। इन दो मंडलवादी नेताओं से पहले बिहार आईएएस-आईपीएस, प्रोफेसर व काबिल लोग पैदा करता था जबकि लालू-नीतीश की कुल उपलब्धि या तो लोगों का पलायन है या मजूदरों की हाट। नीतीश कुमार ले दे कर अपने पूर्ववर्ती लालू यादव के जंगलराज के कंट्रास्ट में अपने को सुशासन बाबू, सोशल इंजीनियरिंग का मास्टर, धर्मनिरपेक्षता की जुमलेबाजी करते हुए राष्ट्रीय राजनीति में जात राजनीति की ढुगढुगी बजाते रहते हैं। मतलब उन जैसा शातिर जातिय नेता दूसरा नहीं और वरिष्ठ तो खैर हैं ही।
सो, भारत यात्रा से राहुल गांधी का जब हल्ला बना और ‘इंडिया’ का गठव हुआ और उसमें अपने आपको हाशिए में जाते देखा तो नीतीश कुमार ने कांग्रेस व राहुल गांधी को पटरी से उतारने के लिए दांवपेंच भिड़ाए। तमाम प्रगतिशीलों-समाजवादियों-सेकुलरों के जरिए राहुल गांधी को मंडल राजनीति की और धकेलने (मेरा मानना है इसके पीछे मोदी-शाह की भी शह है) का योजनाबद्ध काम हुआ। तभी महिला आरक्षण बिल आया तो राहुल गांधी को ऐसी पट्टी पढ़ाई कि कांग्रेस और सोनिया गांधी के विधयेक बनवाने की वाह बनाने की बजाय राहुल गांधी माफी मांगते हुए मिले कि कांग्रेस ने तब गलत किया था। परिणाम सामने है। कांग्रेस पूरी तरह ओबीसी वोटों की राजनीति में रंग गई है।
सोचें, नरेंद्र मोदी के लिए कैसी गजब आदर्श स्थिति है! चुनाव में जातिवाद लौटे तो इससे ओबीसी मोदी को फायदा होगा या राहुल गांधी को? भारत यात्रा, भ्रष्टाचार, मंहगाई, बेरोजगारी याकि लोगों की रोजमर्रा जिंदगी की बेसिक तकलीफों को भुलाकर लोग क्या इस बहस में फंसे हुए नहीं होंगे कि मोदी असली ओबीसी हैं या राहुल गांधी? अडानी और क्रोनी पूंजीवाद के हवाले राहुल गांधी का मोदी सरकार को कटघरे में लाना हाशिए में चला जाएगा और शहरी-मध्यवर्गीय वोट में राहुल गांधी की हिम्मत, ईमानदारी की छाप धूमिल।
दरअसल राहुल गांधी हम हिंदुओं के पीढ़ीजन व्यवहार का एक उदाहरण हैं। पिछले बीस वर्षों से राहुल गांधी के आग्रह-पूर्वाग्रह, जिद्द दसियों बार बदले हैं। इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने परिवार, कांग्रेस के सियासी अखिल भारतीय चरित्र तथा कांग्रेस की विरासत की बारीकियों को नहीं समझा हुआ है। मेरा मानना है और मैंने इसे मनमोहन सरकार के वक्त भी कई बार लिखा कि कांग्रेस की असंख्य गलतियों में राहुल गांधी की ब्रितानी सांसद से विमर्श से लेकर गाहे-बगाहे हिंदू आंतकवाद के फैंके गए वे जुमले भी जिम्मेवार हैं, जिससे नरेंद्र मोदी का दिल्ली चलो का सपना सधता गया। हम हिंदू परिवारों के पीढ़ीगत व्यवहार का एक ढर्रा है। पहली पीढ़ी नींव बनाती है (मोतीलाल नेहरू)। दूसरी पीढ़ी इमारत बना प्रतिष्ठा प्राप्त करती है (नेहरू)। तीसरी पीढ़ी इमारत की जगमग में परम सुख भोगती है (इंदिरा गांधी)। और फिर चौथी पीढ़ी उस विरासत पर खानदानी, सामंती घमंड, दरबारी तौर-तरीकों के आचरण से अपने हाथों अपने पराभव, बरबादी को न्योतती है (राजीव गांधी)। क्योंकि तीसरी-चौथी को सब बना-बनाया मिलता है, उन्हें मालूम नहीं होता कि पूर्वर्जों ने किस मेहनत या विचारशीलता से सब बनाया है। हम हिंदू क्योंकि परिवार से इतर (मतलब बुद्धिगत, प्रोफेशनलिज्म) को अपनाते नहीं हैं और वंश की पीढ़ी दर पीढ़ी आश्रित रिले रेस होती है तो कांग्रेस के मौजूदा संदर्भ में राहुल गांधी की नादानियां और जिद्द व अपने आपको महाज्ञानी मानना इसलिए सहज है क्योंकि उन्हें बोध नहीं है कि कांग्रेस की आत्मा सर्वजनीय है। उसका अखिल भारतीय कैनवस है न कि आंचलिकता का या वर्ग-वर्ण-जात विशेष का। कांग्रेस का कैनवस गांधी की रामधुनी व हिंदू आइडिया में सीमाबद्ध है। हां, राहुल गांधी को यह भी बोध नहीं होगा कि नेहरू से वैयक्तिक चिढ़ तथा कांग्रेस के वर्चस्व को तोड़ने के लिए डॉ. राममनोहर लोहिया ने ‘पिछड़े पावें सौ में साठ’ का नारा दे कर समाजवादी व जातिवादी पैदा किए थे।
विषयांतर हो रहा है। नेहरू बनाम लोहिया का इतिहास खुल रहा है। मोटी बात है कि कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार धर्मनिरपेक्षता, जाति निरपेक्षता (लोहिया हल्ला करते थे जनेऊ तोड़ो जाति छोड़ो की बातों का, जबकि नेहरू दशकों पहले जनेऊ छोड़ धर्मनिरपेक्ष व साइंटिफिक टेम्परामेंट) के आग्रही थे। उन्होंने दलित आरक्षण रखवाया तो इस शर्त के साथ कि कुछ दशक बाद यह खत्म होगा। इस विरासत की बारीकियों और इंडिया सरोकार में ही कांग्रेस व मनमोहन सरकार तक आरक्षण को मानते हुए भी अखिल भारतीय कैनवस, समग्र समाज की चिंता में काम करती रहे। तभी डॉ. मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, कांग्रेस कार्यसमिति ने महिला आरक्षण के खांचे में जातियों का विभाजन नहीं किया। उन्होने लालू यादव, उमा भारती, मुलायम सिंह यादव आदि के विरोध की परवाह नहीं की। सोनिया गांधी ने वह बिल बनवाया जो कांग्रेस की वैचारिक विरासत में सही था।
जबकि अब राहुल गांधी क्या बोल रहे हैं? हमने गलती की जो हमने महिला बिल में आरक्षण नहीं बनवाया। इससे क्या मध्य प्रदेश, राजस्थान में कांग्रेस को ओबीसी वोट मिलेगा? राहुल व उनके सलाहाकारों, सर्वेक्षकों को यह सच्चाई भी मालूम नहीं है कि ओबीसी जातियां कट्टर मोदी भक्त हैं क्योंकि गांव, देहात, भूमि और खेती के रिश्तों में मुसलमान का जाट, गुर्जर, यादव, कुर्मी याकि ओबीसी से रोजमर्रा के व्यवहार में ज्यादा टकराव होता है। इस बात को अमित शाह ने गहरा समझा हुआ है तभी वे बार-बार जाटों को बुला कर पानीपत की लड़ाई याद कराते हैं।
लब्बोलुआब, राहुल गांधी भटक गए हैं। और वे उत्तर भारत के मंडलवादी ओबीसी नेताओं के झांसे में हैं। नरेंद्र मोदी से लड़ाई के अपने अखाड़े से वे आउट होते हुए हैं। तभी अपने को खटका है कि उनकी वैसी ही सियासी दुर्दशा होगी जैसी वीपी सिंह की मंडल कार्ड खेलने के बाद हुई थी। हां, अभी जैसे नीतीश कुमार, प्रगतिशीलों, समाजवादियों ने राहुल गांधी व खड़गे को चने के झाड़ पर चढ़ा कर मंडल मसीहा बनने का ज्ञान दिया है वैसे एक वक्त वीपी सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद शरद यादव, रामविलास पासवान ने खुद और देवीलाल के जरिए उनमें फूंक भरी थी कि यदि वे मंडल आरक्षण कर देते हैं तो दशकों तक प्रधानमंत्री बने रहेंगे। ओबीसी के मैजोरिटी वोट मिलेंगे तो कभी हारेंगे ही नहीं। ऐसी क्रांति होगी कि गांधी से ज्यादा बड़े वीपी सिंह फकीर माने जाएंगे। लेकिन हुआ क्या? सरकार गंवाई, आजाद भारत के इतिहास के भ्रष्टाचार विरोधी अभूतपूर्व जनजागरण का उनके हाथों सत्यानाश हुआ। और वह मंदिर राजनीति शुरू हुई, जिसकी बदौलत नरेंद्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने की कगार पर हैं।
यह सत्य भी नोट रखें कि शरद यादव, मुलायम सिंह, लालू यादव, नीतीश कुमार याकि तमाम मंडलवादी नेता बाद में न ‘रजवा’ (वीपी सिंह) के अहसानमंद रहे और न उन्हें कंधा देने वाले। किसी मंडलवादी नेता ने वीपी सिंह की याद में लखनऊ या पटना में मूर्ति नहीं लगाई। मैंने पटना में नीतीश कुमार द्वारा अरूण जेटली की मूर्ति लगाने की खबर सुनी है लेकिन वीपी सिंह की मूर्ति नहीं लगवाई। ऐसा क्यों? कई कारण है। पैंतालिस वर्षों से पिछड़े नेताओं व खासकर समाजवादी नेताओं को जानते-बूझते मेरा निचोड़ है कि ये अपने अलावा किसी के सगे नहीं हैं। पहले ‘मैं’, फिर परिवार, फिर कुनबा, फिर खाप, फिर जात, फिर धर्म में हर ओबीसी नेता का शासन ढला रहा है। उनकी राजनीति रही है। ऐसा भाजपा के कल्याण सिंह, उमा भारती, नरेंद्र मोदी से लेकर लालू यादव, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह व शरद यादव सबके साथ रहा। मैंने व्यक्तिशः कई बार शरद यादव को पीड़ा के साथ यह कहते सुना है कि उन्होंने मुलायम सिंह, लालू यादव, नीतीश कुमार सबको बनाया लेकिन बदले में उन्होंने मेरे साथ क्या किया! यह बात नरेंद्र मोदी पर भी लागू है। लालकृष्ण आडवाणी ने नरेंद्र मोदी को बनाया, बचाया, उन्हें बार-बार मौका दिया पर बदले में मोदी ने आडवाणी के साथ क्या किया? यदि ईमानदारी से विचार हो तो नरेंद्र मोदी अपने पितृ संगठन भाजपा, संघ परिवार को भी धोखा देते हुए हैं। उन्होंने सभी को अपनी जेब का सिक्का बना रखा है। 23 का अभी जो चुनाव है उसमें संघ-भाजपा के किसी सीएम, भाई साहब, नेता, अध्यक्ष की नहीं चल रही है। नरेंद्र मोदी अकेले अपनी सर्वे टीमों से उम्मीदवार तय करते हुए हैं। न प्रदेश समितियों का अर्थ है और न भाजपा की केंद्रीय चुनाव समिति या संसदीय बोर्ड का अर्थ है। पूरी पार्टी खत्म और अपनी लोकप्रियता को निज स्वार्थ के लिए उसी तरह भुनाते और न्यायोचित बतलाते हुए हैं, जैसे लालू यादव ने लोकप्रियता के अपने पीक में जनता दल सहित सबको खत्म किया। जॉर्ज फर्नांडीज, नीतीश, शरद यादव आदि सभी तब जलील, बेमतलब और रोते-धोते थे।
बहुत विषयांतर हो गया है। मूल बात 23 का चुनाव हो या 24 का सबका ठीकरा राहुल गांधी पर फूटना है। मुझे हैरानी है कि मोदी-शाह तीनों प्रदेशों में सब कुछ उथलपुथल कर दे रहे हैं, सीधे खुद चुनाव लडते हुए हैं। जनता और कार्यकर्ताओं के अधिवेशन कर रहे हैं, जबकि राहुल गांधी, प्रियंका गांधी वाड्रा, खड़गे और कांग्रेस पार्टी एआईसीसी की उसी ब्यूरोक्रेसी, उस पुराने ढर्रे में चल रहे हैं, जैसे 2014 से चलते आ रहे हैं। हिसाब से मोदी-शाह-नड्डा के दौरों, सभाओं के सिलसिले को देखते हुए क्या राहुल व प्रियंका को मध्य प्रदेश व राजस्थान के जिले अब तक घूम नहीं लेने चाहिए थे? खड़गे पार्टी संभाल रहे हैं तो राहुल व प्रियंका क्यों नहीं पसीना बहा रहे हैं, जबकि मुकाबला सीधे मोदी बनाम राहुल के गांधी परिवार से है!