मोदी जैसे तो नीतीश, खड़गे, ममता, केजरीवाल या स्टालिन मजे से, ज्यादा अच्छा राज करेंगे!

मोदी जैसे तो नीतीश, खड़गे, ममता, केजरीवाल या स्टालिन मजे से, ज्यादा अच्छा राज करेंगे!

चंद्रयान-तीन, दिल्ली में जी-20 के शिखर सम्मेलन के शोरगुल ने भारत का भक्त व गंवार मानस में यह ख्याल पैदा किया हुआ है कि मोदी है तो यह सब मुमकिन है। इस अनुसार देश में मोदी जैसा दूसरा कोई है ही नहीं, खासकर विपक्षी एलायंस ‘इंडिया’ में तो कतई नहीं, जिसका नेता यदि प्रधानमंत्री बना तो भारत की गौरव गाथा ठहर जाएगी। निश्चित ही इस तरह से कोई दूसरी नस्ल नहीं सोचती है जैसे हम सोचते है। हमारी मनोदशा में सत्तावान, राजा या प्रधानमंत्री क्योंकि अवतार होता है तो उसकी कृपा से राशन है तो विकास है।उससे डर कर जीना है तो सुरक्षा औरनियति भी है। तभी नरेंद्र मोदी की वजह से हमारी चंद्रयान-तीन की सफलता है तो दिल्ली में जी-20 बैठक का अहोभाग्य बनॉ है!

दरअसल गुलाम-गंवार दिमाग को यह सत्य बोध नहीं होता कि भारत का अंतरिक्ष अभियान, परमाणु अभियान, वैश्विक कूटनीति, जनसंख्यागत आकार और भूगोलजन्य क्षेत्र का भारत महत्व सदा से चला आ रहा है। जब आकार-प्रकार-भूगोल से विशाल है तो लूटने के मकसद में भारत पहले भी सोने की चिड़िया था और आज भी है तथा भविष्य में भी रहेगा। फिर भले लूटें मुगल, अंग्रेज, अडानी-अंबानी या चाइनीज या अमेरिकी। इन सभी के लिए सदा-सनातनी भारत सोने की चिड़िया था, है और रहेगा। लगातार का यह अनुभव है। बावजूद इसके नस्ल को क्योंकि गुलाम-गंवार अवस्था से सत्य नहीं बूझता तो वह जैसे राजा कहेगा वैसा मानेगा। नेहरूजी के वक्त भी सोने की चीडिया होने के गीत गुनगुनाते थे तो मोदीजी के वक्त हम अमृतकाल के अमृत कुंड में मदमस्त है। और इसका फायदा रूस और चीन ने उठाया है तो ट्रंप और बाइडन भी उठाते हुए है। यह गारंटीशुदा है कि

भारत 150 करोड़ लोगों की भीड़ से दुनिया की नंबर एक आर्थिकी बने या नंबर दो या तीन वह अनिवार्यतः बहुराष्ट्रीय सोशल मीडिया कंपनियों, आईटी कंपनियों, व्यापारी कंपनियों, हथियार कंपनियों, शेयर बाजार के वैश्विक सटोरियों व देशी क्रोनी कंपनियों से सतत लूटा जाते रहना है। हथियार बेचने वाले फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रों, अमेरिकी बाइडेन, रूसी पुतिन, चीन के शी जिनफिंग सभी भारत के प्रधानमंत्री को गले लगाएं, भारत आएं, भारत का बखान करें तो ऐसा उनके अपने निज स्वार्थों से है। भारत को उल्लू बनाते हुए है। दुनिया को पता है कि भारत की दुकान सबसे सस्ती है। भारत के प्रधानमंत्री को, नरेंद्र मोदी को विश्व नेता, शांति मसीहा जैसे तमंगे दो, उन्हें राजभोग खिलाओ, उनकी दुकान चमकाओ और बदले में बेइंतहा कमाई का बाजार पाओ। ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी यह किया था तो चाइनीज कंपनियां भी यही करते हुए हैं।

सोचे ऐसा भारत नेतृत्व क्या विपक्ष दूसरे नेता नहीं कर सकते। मोदी के नेतृत्व में नौ वर्षों में ऐसा हुआ क्या जो नीतिश, खड़गे, केजरीवाल, ममता नहीं कर पाएं। मेंरे मौजूदा विश्लेषण में मोदी की कब्रिस्तान-श्मशान, पानीपत की तीसरी लडाई, जात-पांत की बाटों-राज करों की राजनीति का मुद्दा नहीं है बल्कि गर्वनेश व कूटनीति है। इसलिए इनके दायरे में सोचे तो विपक्ष का कोई भी एक्सवाईजेड नेता प्रधानमंत्री बने या खुद भाजपा से राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी या अर्जुन मेघवाल जैसा कोई भी प्रधानमंत्री बनें तो इनका क्या अपना कूटनैतिक शौशेबाजी से वैसा ही जलवा नहीं होगा जैसे मोदी का हम भारतीय मान रहे हैं। आखिर मोदी से पहले के पहले मनमोहन सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी या पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी की वैश्विक कूटनीति, उसके लटके-झटके, प्रोपेगेंडा-प्रचार का हम भारतीयों पर कोई कम जादू नहीं था।

सोचें, क्या पंडित नेहरू का वैश्विक कूटनीतिक जलवा कम था? पाकिस्तान के दो टुकड़े कर बांग्लादेश बनवाने वाली इंदिरा गांधी का वैश्विक रूतबा क्या कम था? क्या अटलबिहारी वाजपेयी ने उन्हे दुर्गा नहीं कहा था? यों नई पीढ़ी याकि 20 से 50 साल की उम्र के एकांगी पेशेवरों की रियलिटी निरपेक्ष गंवार अवस्था से हम लोगों के लिए सामूहिक तौर पर चालीस-पचास साल पुराने वक्त को याद करना संभव नहीं है। फिर नरेंद्र मोदी का पिछले नौ वर्षों में प्राथमिक काम यही रहा है जो लोगों की याद्दाश्त को भुलाया या भ्रष्ट बनाया जाए ताकि अपने कथित अमृतकाल में लोग बेसुध रहे और यह माने कि उनके मुंह में विश्व दर्शन है और इसरो-चंद्रयान- जी-20 सब की वजह मोदी है। उन्ही से भारत कूटनीति शुरू और हुई और खत्म होगी। उनसे भारत का अमृतकाल आया है और हजार साल के भव्य भारत की नींव रख दी गई। उनसे पहले के प्रधानमंत्री तो फावड़ा ले कर खेत खोद रहे थे।

जबकि जरा याद करें रियलिटी को। विश्व कूटनीति में नरेंद्र मोदी का कुल लबोलुआब यह है कि वे पहले बिना वीजा के थे और अब पुतिन-शी जिन पिंग, जेलेंस्की, बाइडन, मेक्रो जैसे अमीरों के जमावडे की बेगानी शादी में अब्दुल्ला दिवाना हैं। न इधर के और न उधर के। विश्व राजनीति में उनकी न नैतिक धमक है और न राजनीतिक व ताकत की धमक। ठीक विपरीत गांधी-नेहरू आज भी वैश्विक राजधानियों, कूटनीतिक-सियासी इतिहास के अविस्मरणीय चेहरे हैं। दुनिया के बहुसंख्यक देशों में निर्गुटता के आइडिया में नेहरू और इंदिरा गांधी ने जितने शिखर सम्मेलनों में भाग लिया या दिल्ली में उन्हें आयोजित किया, उसके आगे नई दिल्ली में जी-20 की बैठक का आयोजन बड़ी बात होते हुए भी अर्थहीन है। इसलिए क्योंकि नरेंद्र मोदी न तो सभी सदस्य देशों का सर्वसम्मत प्रस्ताव, घोषणापत्र बनवा सकते हैं न अपनी नैतिक धमक से यूक्रेन, वैश्विक खाद्यान संकट या जलवायु परिवर्तन पर पुतिन-शी जिनफिंग-बाइडेन को आमने-सामने बैठा कर वैश्विक पंचायत कर सकते हैं।

विषयांतर हो गया है। असल मुद्दे पर लौटें। सवाल है क्या नीतीश, खड़गे, केजरीवाल यदि प्रधानमंत्री बनें तो भारत क्या जी-20 या विश्व कूटनीति में अछूत होगा? कतई नहीं। भारत में तब भी शिखर सम्मेलन होंगे। कोई प्रधानमंत्री बने वह विश्व कूटनीति करता हुआ होगा। प्रधानमंत्री शिखर बैठकों में जाएंगे। अमेरिकी संसद में भाषण करेंगे। व्हाइट हाउस में राजभोज होगा। नीतीश कुमार का बाइडेन मन से स्वागत करेंगे क्योंकि उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी के आइडिया में नीतीश कुमार का सामाजिक न्याय फिट बैठता है। नीतिश की कूटनीति दुनिया में भी सोशल इंजीनियरिंग के फलसफे लिए हुए होगी। वही कल्पना करें यदि मल्लिकार्जुन खड़गे प्रधानमंत्री हुए तो उनके चेहरे, हावभाव में वे समानता-धर्मनिरेपक्षता-भाईचारे का वह ज्ञान बांटते मिलेंगे जैसे बराक ओबामा अपने राज में बांटते हुए थे। और कल्पना करें अरविंद केजरीवाल यदि प्रधानमंत्री बने तो उनका नौजवान नेतृत्व दुनिया में क्या वैसा ही कौतुक नहीं पैदा किए हुए होगा, जैसा कम उम्र के मैक्रों के राष्ट्रपति बनने या ऋषि सुनक के प्रधानमंत्री बनने पर वैश्विक कूटनीति में बना है? नोट रखें दिल्ली की छोटी सी सरकार की झांकी से केजरीवाल ने जब राष्ट्रव्यापी हल्ला बना डाला तो प्रधानमंत्री बन कर वे दुनिया में निश्चित ही वह वाहवाही बनवा डालेंगे कि दुनिया के नेता, सिविल सोसायटी उनके दिल्ली मॉडल (भारत मॉडल) को देखने भारत आने लगेगी। आखिर प्रचार और झूठ में केजरीवाल क्या कोई मोदी से कम हैं!

यह भी जान लें कि नीतिश, केजरीवाल, खड़गे या ममता के लिए विदेश मंत्रालय तथा कूटनीति सेवा के कर्मचारी वैसे ही ताबेदारी करते हुए होंगे जैसे अभी जयशंकर प्रधानमंत्री के लिए कर रहे हैं या नटवर सिंह, राजीव गांधी के लिए तो वाजपेयी के लिए बृजेश मिश्र करते हुए थे।

और हां, इसरो नीतीश, खड़गे, केजरीवाल के वक्त में तब भारतीय को बैठा कर चंद्रयान को चंद्रमा पर उतारते हुए  होगा तो आदित्य के अलावा इसरो मंगलयान, शुक्रयान या शनियान के मिशनों पर भी काम करता हुआ होगा।

क्या मैं गलत हूं? क्या नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री नहीं रहने के बाद इसरो खत्म हो जाएगा? जी-20, ब्रिक्स, सार्क या क्वाड, निर्गुट देशों का नई दिल्ली में आयोजन क्या खत्म हो जाएगा?

जरा नौ वर्षों के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कामों पर गौर करें। उनका क्या एक भी ऐसा काम है, जो खड़गे या केजरीवाल या नीतीश कुमार नहीं कर सकते?

सोचें, नरेंद्र मोदी के ऐसे कौन से मौलिक-मूल काम है जो निजी तौर पर उनकी मौलिक प्रतिभा को इंगित करता हो? एक ही अकेला काम है और वह नोटबंदी का है। उनके बाकी तमाम काम संघ परिवार व भाजपा के घोषणापत्र में दशकों से चली आ रही घोषणाओं (जिन्हें राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी या अमित शाह, अनुराग ठाकुर आदि एक्सवाईजेड प्रधानमंत्री बनने पर करते) से हैं। बावजूद इसके नरेंद्र मोदी को श्रेय दे सकते हैं कि उनके कारण अनुच्छेद-370 खत्म हुआ। नागरिकता विधेयक पास (जिस पर अमल के लिए नियम-कानून अभी तक नहीं बने) हुआ। राम मंदिर बन रहा है।

ये काम भाजपा, संघ परिवार के दशकों पुराने एजेंड़े है। ऐसे ही अपने घोषणापत्र अनुसार नीतीश कुमार या खड़गे या शरद पवार या केजरीवाल या स्टालिन बतौर प्रधानमंत्री काम करेंगे? घोषणापत्र अनुसार, वैचारिक एजेंडे में काम करना पंडित नेहरू से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह सबकी फितरत और बतौर प्रधानमंत्री जिम्मेवारी रही है तो नरेंद्र मोदी ने अपनी निज बुद्धि या अवतारी शक्ति में वह क्या किया जो जनता उन्हें भगवान मानें और यह सोचें कि मोदी है तो मुमकिन है और बाकी तमाम नेता नकारे हैं!

सो अकेले नरेंद्र मोदी काम के बाकी सब नकारे का भ्रमजाल दरअसल उस प्रोपेगेंडा का परिणाम है जिसे नौ वर्षों से140 करोड़ लोगों के घर-घर पहुंचाया गया है। कह सकते है ऐसा काम शायद विपक्ष के इंडिया व खुद भाजपा के किसी नेता के बस में नहीं होगा। हां, भाजपा नाम की जो पार्टी है और आरएसएस नाम का जो संगठन है या जो कथित संघ परिवार है उससे 38 प्रतिशत वोटों में भी यह बात घुट्टी की तरह पैठ गई है कि नेता तो अकेले नरेंद्र मोदी बाकी सब अनेता। ये मोदी के अलावा किसी भाजपाई का अर्थ नहीं मानते। इसलिए क्योंकि नौ साल से प्रोपेगेंडा- झूठ की भांग पी कर जी रहे है।

सच्चाई है कि विपक्ष में विकल्प याकि नेतृत्व का संकट उतना नहीं है जितना भाजपा और संघ परिवार के भीतर है। संघ परिवार में यह ज्यादा सोचा जाता है कि मोदीजी हैं तो चंद्रयान-तीन है, दिल्ली में जी-20 बैठक होगी। जाहिर है अमित शाह या राजनाथ सिंह या निर्मला सीतारमण आदि तो नकारे! नौ वर्षों में नरेंद्र मोदी और उनकी सोशल मीडिया, आईटी टीम, मीडिया प्रबंधन टीम ने विपक्ष से अधिक अमित शाह, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी आदि नेताओं को हाशिए का, बेमतलब, नालायक-निराकारनेता बनाया है। हर काम नरेंद्र मोदी के खाते का या  अजीत डोवाल और जयशंकर व संघ परिवार से बाहर के चेहरों को व पीएमओ का है। भाजपा का एक भी मुख्यमंत्री अखिल भारतीय स्तर पर बिना इमेज का है। वैश्विक मायनों में तो सौ टका निराकार। देश-विदेश की राजनीति होया कूटनीति का मसला, क्या मल्लिकार्जुन खड़गे, नीतिश कुमार, शरद पवार, ममता बनर्जी या अरविंद केजरीवाल या राहुल गांधी या प्रियंका गांधी के समतुल्य मोदी इतर एक भी भाजपा नेता मतलब का है?

हां, कहने को मोदी उत्तराधिकारी अमित शाह या योगी आदित्यनाथ को लेकर अटकलें होती रहती हैं। लेकिन जरा बाइडेन, शी जिनफिंग, पुतिन, मैक्रों के साथ खड़े अमित शाह या योगी आदित्यनाथ के चेहरों की कल्पना करें? अंध भक्तों की बात छोड़ें मगर भाजपा का सामान्य बुद्धि का कार्यकर्ता भी संयुक्त राष्ट्र में अमित शाह या योगी के भाषण की कल्पना में ही अचकचा जाएगा। शायद तभी नरेंद्र मोदी ने इन नेताओं को संयुक्त राष्ट्र में बोलने के लिए नहीं भेजा।

सोचें, इस सिनेरिया, रियलिटी में प्रधानमंत्री पद के विकल्पों में खड़गे, नीतीश, केजरीवाल, राहुल और प्रियंका के चेहरों पर!

Published by हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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