बीहड़ तो भूलभुलैया है, वह लापतागंज है, जिसमें मनुष्य के लिए न वर्तमान का अर्थ है, न इतिहास की सुध है और न भविष्य का विचार! सब उबड़खाबड़ है। बदहाली है। भूगोल की बाड़ेबंदी है। राजनीति की लाठी है। खौफ की सिहरन है। और कुंद दिमाग की बेबसी है वही दिल दहशत का मारा। फिर बीहड़ यदि भीड़ की परंपराओं, कुप्रथाओं, खैरात, धर्मादाओं, खामोख्याली में जीने को शापित है तो नाम भारत हो, इंडिया, हिंद, हिंदुस्तान हो या जंबूद्वीप भला बीहड़वासी के लिए कुछ भी होने का क्या अर्थ है! सोचें, नाम भारत है, इंडिया है पर इस संज्ञा का सत्व क्या है?
मैंने गूगल में तलाशा तो उसके एआई से लेकर मेरियम-वेबस्टर डिक्शनरी आदि से ज्ञात हुआ ‘इंडिया’ अर्थात दक्षिण एशिया का एक देश, संचार में उपयुक्त होने वाला एक शब्द और यह संज्ञा मूलतः संस्कृत के ‘सिंध’ नदी का अपभ्रंश याकि यूनानियों द्वारा ‘इंडोई के लोगों’ से जनित है! ऐसे ही संज्ञा ‘भारत’ को खोजेंगे तो जवाब है ‘भारत’ शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं। ‘भा’ का मतलब है ‘ज्ञान’ रूपी प्रकाश और ‘रत’ का मतलब है लगा हुआ। सो, अर्थ हुआ वह भूमि, जिसके निवासी ‘ज्ञान की खोज में लगे हुए’ हैं! दूसरा अर्थ मनु के वंशज तथा ऋषभदेव के सबसे बड़े बेटे और प्राचीन सम्राट ‘भरत’ से है। तीसरा जवाब है कि भारत को कई नामों से जाना जाता है। जैसे इंडिया, भारतवर्ष, आर्यावर्त, हिंद, हिंदुस्तान, जंबूद्वीप आदि। ‘हिंदुस्तान’ का अर्थ हिंद की भूमि है और यह शब्द अरबों तथा ईरानियों से प्रचलित हुआ।
यदि गूगल से यह सवाल हो कि भारतीय संविधान में देश का क्या नाम है? तो जवाब है संविधान के अनुच्छेद एक के मुताबिक, देश का नाम “इंडिया यानी भारत” है! अंग्रेजी का अलग नाम, हिंदी का अलग नाम! क्यों? इसलिए क्योंकि संविधान सभा में नाम को लेकर सर्वानुमति नहीं थी। कई सदस्यों को परंपरागत ‘भारत’ नाम पसंद था वही कईयों को ‘इंडिया’।
ऐसा विभ्रम दुनिया की किसी भी प्राचीन सभ्यता के राष्ट्र में नहीं है! ग्रीस देश का अर्थ खोजें तो इसमें जवाब है, यूरोप का एक देश। भूमि ग्रीको (यूनानियो) की। एथेंस स्पार्टा के नगरों, राज्यों का देश। मिस्र याकि इजिप्ट देश का अर्थ है इजराइल के पश्चिम का वह प्राचीन साम्राज्य, जिसका केंद्रीय बिंदु नील नदी और फराओ द्वारा शासित क्षेत्र। ऐसे ही ‘इटली’ लातीनी भाषा से निकला शब्द है और इसके प्रतीक में बैल दक्षिणी इतावली कबीले व मुक्त इटली के रोमन भेड़िए के रूप में चित्रित। ‘चीन’ का गजब मामला है। यह शब्द, संज्ञा ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के महाभारत, मनुस्मृति आदि हिंदू धर्मंग्रंथों में संस्कृत शब्द ‘Cīna’ (चीन) के फारस पहुंचने और वहां से पश्चिम में प्रसार से प्रचलित हुआ तथा मूलतः किन राजवंश (221-206 ईसा पूर्व) के नाम से जनित है।
जाहिर है “इंडिया यानी भारत” ही प्राचीन सभ्यताओं में अकेला देश है, जो नाम के मामले में भी भूलभुलैया है! तभी 15 अगस्त 1947 से यह तलाश लगातार है कि हम हैं क्या? नाम किस ‘अस्तित्व’, ‘पहचान’, ‘व्यवहार’, ‘धर्म’, ‘जात’ और ‘वजूद’ का प्रतिनिधि है? ‘इंडिया’ पहले या ‘भारत’ पहले? मोटामोटी हमारी सभ्यता, संस्कृति का छुपा और ज्ञात इतिहास धुंधला है पर फिर भी पांच हजार साला है। उसमें 1947 से अब तक की अवधि समय के महासागर में एक बूंद है। इस बूंद की समयावधि में भी, पहले दिन, संविधान सभा में नाम को लेकर सर्वमान्यता नहीं थी, बल्कि समझौता था! तभी पहले दिन से यह भी अस्पष्ट है कि हम चाहते क्या हैं? हमारे उद्देश्य क्या हैं? हमारा धर्म क्या है? हमारा कर्म और पुरुषार्थ क्या है? हमारी स्वतंत्रता क्या है? पुण्य और मोक्ष क्या है?
कोई आश्चर्य नहीं जो हम याकि भारत (मनु वंशज भारतीय या इंडिया के लोग) के लोग लगातार तलाशते हुए हैं। हम धर्मनिरेपक्ष हैं या हिंदू? हम माई बाप सरकारों के गुलाम हैं या खुद्दार, काबिल और स्वतंत्रचेत्ता? इसे बीहड़ की नियति ही कहेंगे कि तब भी पंडित नेहरू लोगों को सरकारी समाजवाद से भिक्षा दिलवाते हुए, विकास के सपने दिखलाते होते थे वही अब हिंदू राजाधिराज नरेंद्र मोदी और उनके सभी सूबेदार अपने अपने सूबों में रेवड़ियों का धर्मादा लगाए हुए हैं। देश वह बीहड़ है, जिसमें पुजारी, मौलवी, नौजवान, बूढ़े, महिला और हर वर्ग तथा हर वर्ण को सतत रेवड़ी, कृपा, मुआवजा, वजीफा, नौकरी और दान, दक्षिणा चाहिए!
जाहिर है बीहड़ की वर्तमान जीवनधारा लंगरों, खानकाहों से दाना पानी पाते हुए है तो इसी के अनुपात में लंगरदारों, नंबरदारों, पीर बाबाओं, धर्मात्माओं और डाकुओं का विस्तार है, जिससे भीड़ का जीवन चलता-घसीटता हुआ है!
सिलसिला स्थायी है। इसकी न कोई टाइमलाइन है और न मंजिल! हां, मील के पत्थर जरूर समय की गति अनुसार नए नए लगते जाते हैं। मेरा मानना है विभ्रम का सिलसिला सन् 711 में मुहम्मद बिन कासिम के समय से चला आ रहा है! उसका एक समकालीन मोड़ 1947 से है।
कह सकते हैं मैं, 780 शब्दों में कहां से कहां पहुंच गया! लेकिन ईमानदारी से, दिल पर हाथ रख सोचें कि हम अपने सिलसिले में क्या जतलाते, क्या करते और बोलते व झेलते हुए हैं? वही धर्म का उन्माद है! वही दिमागी विवशता है, वही विभ्रम, वही उलझन और वही असहायता है जो सदियों से चली आ रही है! दिल्ली का सुल्तान अजमेरशरीफ पर चादर चढ़ा रहा है, जबकि उनके वजीर साहब से खबर मालूम हुई कि कश्मीर का नाम “कश्यप” रखा जा सकता है। (हालांकि बाद में मालूम हुआ कि उन्होंने कहा, ‘शायद हो सकता है कि कश्यप के नाम से कश्मीर का नाम पड़ा हो’)। इतिहासकारों को प्रमाणों के आधार पर सत्य लिखना चाहिए। वही देश के प्रमुख सूबेदार जनाब योगी आदित्यनाथ इन दिनों हिंदुओं सें आह्वान कर रहे हैं कुंभ आओ, अमृत स्नान करो, अमृत पाओ!
सोच सकते हैं हम मनुवंशज ‘भारत’ के लोग यदि ‘ज्ञान की खोज में लगे हुए’ हैं तो उसमें किस अमृत की चाहना है? जवाब ईश्वर की आकाशवाणी से ही संभव है!
बहरहाल बीहड़ में नियति भटकते रहने की है!
मेरे भटकने की फिलहाल वजह गृह मंत्री अमित शाह के कश्मीर पर कहे से है। जिस कश्मीर से उन्होंने अनुच्छेद 370 हटाने का गजब हिम्मती निर्णय लिया उसमें उन्हें कंफ्यूजन है कि कश्मीर का नाम ‘कश्यप’ रखा जा सकता है या उनके नाम से कश्मीर का नाम पड़ा हो! भला वे कैसे इस भ्रम में हैं कि ‘कश्मीर’, ‘काश्मीर’ नाम महर्षि कश्यप से जनित नहीं है? कश्मीर शब्द की व्युत्पत्ति सप्तर्षि महर्षि कश्यप से नहीं है?
लगता है उन्होंने उस इतिहास को पढ़ लिया है जो मुझे आज ‘काश्मीर’ पर गूगल खोज में मालूम हुआ कि, काश्मीर (कश्मीरी, नस्तालीक़), कशीर (देवनागरी) जम्मू कश्मीर का उत्तरी भौगोलिक क्षेत्र है। मैं जान के चौंका कि देवनागरी में ‘कशीर’ कब कैसे हुआ? अचानक मुझे काशी के विद्वान दिवंगत रघुनाथ सिंह की याद हो आई! रघुनाथ सिंह पंडित नेहरू के करीबी थे। 1952 से 1967 तक वे कांग्रेस के सांसद थे। उन्होंने वकालत, सांसदी करते हुए एक अद्भुत धुन बनाई। कल्हण की ‘राजतरंगिनी’ का संस्कृत से हिंदी में अनुवाद किया। पीएचडी की थीसिस लिखी। उन्होंने कल्हणकृत ‘राजतरंगिणी’ की भूमिका में लिखा है कि, ‘भारत विभाजन के बाद काश्मीर पर सभी ओर चर्चा होती है, प्रशन उठते हैं।
इसलिए ज़रूरी है काश्मीर का व्यापक अध्ययन हो। गलत बातें फैलाई जा रही हैं’। कांग्रेस संसदीय पार्टी ने एक कश्मीर स्टडी ग्रुप गठित किया था। वे उसके संयोजक थे। कई बार कश्मीर की यात्रा की। ‘राजतरंगिनी’ में वर्णित एक एक स्थान गए (पीओके को छोड़कर)। उन्होंने 1970 में लिखी भूमिका में कश्मीर के बीहड़ का ब्योरा देते हुए बताया कि पाकिस्तानी लेखकों ने यह प्रतिपादित करने के लिए पुस्तक लिखी है कि ‘काश्मीर’ का नाम ‘कशीर’ है न कि ‘काश्मीर’। मुस्लिम कादियान संप्रदाय ‘काश्मीर’ का संबंध हजरत मूसा, सुलेमान, ईसा आदि बाइबिल एवं कुरान वर्णित धार्मिक महात्माओं से जोड़कर ‘काश्मीर’ को भारतीय सभ्यता, संस्कृति, धर्म और इतिहास से अलग करने में प्रयासरत है। ‘काश्मीर’ को ‘वाग-ए-सुलेमान’ कहा जाता है। शंकराचार्य पर्वत का नाम तख्त-ए-सुलेमान तथा अनंतनाग का नाम ‘इस्लामाबाद’ करार है। इस सिलसिले में पुस्तकें और पैम्पलेट लिखे गए हैं। पुराने स्थानों के नाम बदलकर उनके स्थान पर जियारतशरीफ, मजारपीर आदि रख डाले हैं।
दरअसल सनातन सभ्यता, संस्कृति के पुराण, इतिहास को मुस्लिम मिथक के कन्वर्ट करने की यह पुरानी सूफी कोशिश थी। चौदहवीं सदी में सूफी हमदानी ने यह सिलसिला शुरू किया था। 1747 में सूफ़ी लेखक ख्वाजा मोहम्मद आज़म दीदामरी की फारसी में लिखी पुस्तक ‘वाक़यात ए कश्मीर’ इतिहास का एक तरह से धर्मांतरण था। इसमें सूफी लेखक ने ‘काश्मीर’ को सीधे आदम की कहानी में बदल डाला। मतलब राक्षश जलदेव ने पूरे इलाके को पानी में डूबो दिया था। कासिफ तपस्या करता है और इलाके को लोगों के लिए रहने लायक बनाता है! जाहिर है फारसी सूफी भी कश्यप ऋषि के वजूद में ‘क’ से काशिफ ही गढ़ पाया। यह झूठ भी बनाया कि कश्मीर में शुरू से ले कर ग्यारह सौ वर्ष तक मुस्लिम शासन था। कश्मीर के लोगों को हजरत मूसा ने खुद इबादत करना सिखाया। इस मुताबिक मूसा की मौत कश्मीर में हुई और उनका मकबरा भी वही है!
इस सारी गप्पबाजी के बीच पते का सत्य, तथ्य है कि ‘काश्मीर’ हिंदुस्तान का वह इलाका था, जो कश्यप ऋषि के समय से आज तक का जिंदा इतिहास लिए हुए है। पूरे दक्षिण एशिया का अकेला यह वह इलाका है, जो हिमालयी पहाड़ों की घेरेबंदी की दुर्गमता में चौदहवीं सदी तक बाहरी प्रभावों से दूर रहा। नतीजतन संस्कृत के इतिहासकारों (कल्हण और उनके उत्तराधिकारी लेखकों) की कलम से सनातन धर्म के समाज, व्यवस्था, राजनीति, आर्थिकी, संस्कृति, साहित्य सभी पहलुओं का लिखित रिकॉर्ड लिए हुए है। उस नाते शेष भारत की अलग अलग अवधियों का जो लुप्त, गुमनाम याकि अंधकार काल है, उसे भी ‘काश्मीर’ के परिप्रेक्ष्य से क्रम में लिखा जा सकता है।
लेकिन बीहड़ में इसकी भी कोशिश नहीं हुई है। उस विरासत की भी ऐसी अनदेखी व अज्ञानता है कि कई बार लगता है कि यदि अंग्रेज नहीं आए होते, अंग्रेजों का शासन नहीं हुआ होता तो भारत की बीहड़ता कितना अंधकार लिए होती। न संस्कृत पांडुलिपियों की खोज हो पाती। न उनका संस्कृत से अंग्रेजी में अनुवाद हो पाता और न कश्मीर व भारत का इतिहास (जैसा भी हो) लिखा होता। यह कटु सत्य है कि मोहनजोदड़ो, तक्षशिला, नालंदा आदि के उत्खननों से ले कर ‘राजतंरगिनी’ जैसे सभी मूल और आदिग्रंथों का सत्व-तत्व, स्मृतियां, इतिहास कुल मिलाकर तो अंग्रेजों के हाथों ही ज्ञात हुआ। और वे गए तो संस्कृति का संस्कृति काल लुप्त और उसकी जगह नेहरू द्वारा इतिहास लिखवाना और अब नरेंद्र मोदी, अमित शाह द्वारा लिखे जाने के आए दिन आह्वान। सो, पहले ‘वाकयात-ए-नेहरू इंडिया’ लिखा गया और अब ‘वाकया-ए-मोदी भारत’ लिखा जा रहा है!