हां, सबक इस नाते कि बांग्लादेश में उलटफेर न केवल भू राजनीति में भारत को भारी झटका है वही भारत के अंदरूनी हालातों में सोचने का एक पहलू भी है। बांग्लादेश की सड़कों पर सोमवार को हर तरफ लड़के-लडकियों का सैलाब उमड़ा हुआ था। इससे दक्षिण एसिया की नौजवान आबादी के सवाल उठते है। खास कर इस तथ्य के मद्देनजर भी भारत में यूथ कोई 65 प्रतिशत याकि90 करोड़ नौजवान है। सवाल है हम अपने नौजवानों को कैसे हेंडल करते हुए है? श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश सभी तरफ को अनुभव जब खदखदाते नौजवानों का है तब भारत के नौजवानों को ले कर हम क्या सोचे? बांग्लादेश में साबित हुआ है कि विकास आंकड़ों,जुमलेबाजी, विरोध-असंतोष को सख्ती सेप्रेसर कुकर मेंबंद रखने के बावजूद ढक्कन जब फटता है तो देश के लिए फिर यही रोना है कि लम्हों ने खता की और सदियों ने सज़ा पाई।
हसीना वाजेद की शुरूआत अच्छी थी। 1996 में पहली बार और 2008 में दूसरी बार प्रधानमंत्री बन उन्होने लंबा राज किया। उनकी शुरूआत अच्छे दिन और लोकतंत्र के वादे की थी। लोकतांत्रिक राजनीति के व्यवहार की थी। निर्विवाद है किउनकी कमान में बांग्लादेश ने कपड़ा उद्योग में कमाल किया। दुनिया में बांग्लादेश का नाम हुआ। उसने भारत को प्रतिव्यक्ति आय में पछाड़ा।
लेकिन फिर हसीना वाजेद में अंहकार जागा। सत्ता की भूख बनी। और विपक्ष को खत्म करना शुरू किया। अघोषित इमरजेंसी, तानाशाही और जोर-जबरदस्ती का वह सिलसिला शुरू हुआकि लोगों की राजनीति और चुनाव प्रक्रिया में विश्वास ही खत्म हुआ। चुनाव आयोग और चुनाव की प्रक्रिया पर सवाल उठे। लोगों का भरोसा टूटा और विपक्ष के चुनावी बहिष्कार का सिलसिला शुरू हुआ। हालिया जनवरी 2024 केआम चुनाव में भी विपक्ष ने चुनाव का बहिष्कार किया था। पूरी दुनिया मेंआंतक और खौफ के माहौल में हुए एकतरफा चुनावों की निंदा हुई। तब हसीना वाजेद के साथ यदि कोई खड़ा था तो वह अकेले भारत था। जाहिर है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, सामरिक सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल, विदेश मंत्री जयशंकर आदि ने हसीना वाजेद को समझाने, सुधरने और लोकतंत्र तथा चुनाव को साफ-सुथरा बनाने जैसी कोई सलाह नहीं दी। तभी बांग्लादेश में धारणा बनी कि भारत की मोदी सरकार तानाशाह प्रधानमंत्री हसीना वाजेद की सरंक्षक है। भारत ने अपनी प्रतिष्ठा हसीना वाजेद के लिए दांव पर लगाई।
शायद इसलिए क्योंकि दक्षिण एसिया में बांग्लादेश के अलावा भारत की सभी पड़ौसियों से खटपट है। सभी देश चीन के अनुगामी है। इसलिए शेख हसीना वाजेद का रूतबा बनाने के लिए मोदी सरकार ने कई तरह के कई काम किए।
बांग्लादेश में हसीना वाजेद का विकास क्रोनी पूंजीवाद के उसी मॉडल पर है जैसा भारत में हैं। तभी आर्थिक असमानताओं में बांग्लादेश में भी रिकार्ड तोड़ गरीब बनाम अमीर का अंतर है। भारत की और सेबांग्लादेश में मोदी सरकार की ताकत के बूते अदानी समूह ने भी हसीना सरकार के बड़े कारोबारी सौदे पटाए हुए है। इसलिए ये खबरे समझ में आती है कि आंदोलनकारियों ने उत्पात, हिंसा में भारत के झंडे, दोनों देशों की मैत्री के हार्डिंगों पर अपना गुस्सा निकाला।
लाख टके का सवाल है कि बांग्लादेश में जो हुआ उसकी भनक क्या भारत को थी? भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल सेयह सवाल बनता है कि क्या उनको और उनकी एजेंसियों को अनुमान था कि हसीना वाजेद की सरकार अचानक ढह भी सकती है। बांग्लादेश में लोगों का गुस्सा और खदबदाहट का भारत सरकार का कोई आंकलन था या नहीं? या यही सोचा जाता रहा है कि सख्त शासन और विकास के झांसों से नौजवानों का विरोध या रजाकर के जुमले के खिलाफ गुस्सा चंद दिनों में ठंडा पड़ जाएगा।
मैं भारत की तुलना इसलिए कर रहा हूं क्योंकि दक्षिण एसिया और भारत सभी तरफ नौजवान आबादी का सैलाब है। भारत में नौजवानों की बेचैनी छुपी हुई नहीं है। यदि अग्निवीर योजना, नीट परीक्षा और छोटी व मामूली संख्या की नौकरियों के लिए लाखों नौजवानों की भीड़ बन रही है तोगंभीरता से सोचना होगा कि भारत कैसे नौजवान आबादी का ध्यान रखे हुए है। कह सकते है भारत दक्षिण एसिया का बिरला देश है। बांग्लादेश, पाकिस्तान जैसी परंपरा नहीं है। भारत में लोकतंत्र पुख्ता है। पक्ष-विपक्ष की वह राजनीति नहीं है जो दक्षिण एसिया के दूसरे देशों में है। सवाल है उस राजनीति में क्या गिरावट नहीं है? मोदी सरकार के शासन में भारत भी तो लोकतंत्र की कसौटी में वैसी ही वैश्विक बदनामी लिए हुए है जैसे हसीना सरकार की थी।
मान कर चले हसीना वाजेद सरकार के पतन से अमेरिका सहित वेसभी सभ्य लोकतांत्रिक देश खुश होंगे जिन्होने हसीना वाजेद सरकार को चेताया था। उस पर दबाव बनाया बावजूद इसके वे नहीं समझी। मेरा मानना है कूटनीति की भागदौड में पश्चिमी देशों ने मोदी सरकार को भी समझाया होगा कि हसीना सरकार को लोकतंत्र के रास्ते पर लौटाए। लेकिन लगता है मोदी, डोवाल, जयशंकर ने अपने आत्मविश्वास, अपने तौर-तरीकों में न तो दीर्घकालीन सिनेरियों सोचा और न बांग्लादेश की जमीनी हकीकत पर नजर रखी। यह तो कल्पना ही नहीं रही होगी किराजधानी ढाका आंदोलनकारियों से पटेगा और हसीना वाजेद भगौड़ी प्रधानमंत्री का कलंक बना कर दिल्ली आएगी।
इसलिए नरेंद्र मोदी सरकार की विदेश और सामरिक नीति की अब नंबर एक असफलता है बांग्लादेश में हसीना वाजेद सरकार का पतन। यह संभव नहीं है कि शेख हसीना को योरोप का कोई सभ्य देश शरण दें। भारत को ही उन्हे शरण दिए रहना होगा। और इसका असर बांग्लादेश के लोगों पर होगा। बांग्लादेश में हिंदू आबादी के लिए जीना और दूभर होगा। सवाल है क्या बांग्लादेश के सेना प्रमुख और सेनाधिकारी शेख हसीना के प्रति वफादारी और भारत के प्रभाव में बीच का कोई रास्ता निकाल सकते है? मुश्किल है। बांग्लादेश में शेख हसीना और उनके समर्थकों के खिलाफ अब ऐसी नफरत है कि बांग्लादेश का रास्ता अब अलग ही होना है।
आखिर इतना घना जन उन्माद क्यों बना? इसलिए क्योंकि देश कोई हो लोग जीवन की वास्तविकताओं में तब तिल-तिल कर हर पल भुनभुनाते है जब उनके दिल-दिमाग में खलनायक चिंहित होता है। फिर नौजवान खून यों भी भभकता ज्यादा है। यह बात दक्षिण एसिया के हर देश पर लागू है।
हसीना वाजेद ने विरोधी नेताओं को जेल में डाला। राजनैतिक पार्टियों को काम नहीं करने दिया। चुनाव धांधली से जीते और कट्टरपंथी मुसलमान संगठनों से ले कर एनजीओ सभी को औकात बताए रखी तो इस सच्चाई की गंभीरता पर गौर करें कि आरक्षण के खिलाफ और विरोधियों के लिए रजाकर जुमले से भड़क कर लोगों का कैसा जनसमूह सडकों पर उतर आया। जाहिर है वे विलेन के नाते यूथ के दिमाग चिंहित थी। इस सत्य पर भी गौर करेंकि इतने दिनों के आंदोलन में हसीना वाजेद के लिए एक भी बार राजधानी ढ़ाका में उनके हिमायती व सत्तारूढ पार्टी के कार्यकर्ता अपने नेता के बचाव के लिए सड़क पर नहीं आए। ऐसे में पुलिस और सेना क्या कर सकती है।
बांग्लादेश के लोगों का आज व्यवस्था, संसदीय व्यवस्था, चुनाव प्रक्रिया, मीडिया और अदालत याकि राष्ट्र-राज्य के किसी भी उस बंदोबस्त पर विश्वास नहीं हैं जिससे राजनीति सामान्य हो सकें या देश को आजादी दिलाने वाली और बांग्लादेश की आर्थिकी का नाम ऊंचा करने वाली अवामी लीग पार्टी यह माफी भी मांग पाएं कि हमसे गलती हुई है।कम से कम राष्ट्रपिता मुजीबुर्रहमान की प्रतिमा का तो सम्मान करें।
सोचे, बांग्लादेश को आजाद करवाने वाले मुजीबुर्रहमान और सर्वाधिक शासन करने वाली शेख हसीना वाजेद की 5 अगस्त 2024 की दुर्दशा और हश्र पर!
जिम्मवार शेख हसीना स्वंय है। उन्होने अपने हाथों, अपनी और अपने पिता की विरासत पर कालिख पोती। उन्होने अपने हाथों बांग्लादेश के लोकतांत्रिक आईडिया में देश में सच्चा लोकतंत्र बनाया,लेकिन फिर सत्ता के अंहकार, उसके मोह और लालच में वह सब किया जिससे लोकतंत्र को ही झूठा बना डाला। अब उन नौजवान बांग्लादेशियों ने उन्हे देश से भगाया है जिनको ले कर उन्होने कहा था कि ये कट्टरपंथी इस्लाम से गुमराह है या आंतकी और देशद्रोही है। जाहिर है मामला जमीनी हकीकत का है। लोकतंत्र के चैक-बैलेंस का है। शेख हसीना ने एक बार भीनहीं सोचा कि विपक्ष को खत्म करने से अराजकता के अवसर बनते है।
भारत का सौभाग्य है जो विपक्ष 1975-77 में जिंदा था तो 2014 से विपक्ष को खत्म करने की मोदी सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद वह अपनी निज जिजिविषा से जिंदा है। मोदी और अमित शाह ने देश को पानीपत की लड़ाई के मैदान में कनवर्ट करने की हर संभव कोशिश की। लेकिन विपक्ष क्योंकि जिंदा था तो लोगों में उम्मीद रही। विपक्ष से नौजवानों को, अग्निवीरों को, किसानों और सभी समुदायों और वर्गों को आवाज मिली रही। आंशकाओं, चिंताओं और अनुभवों के बावजूद लोकतंत्र और चुनाव में लोगों की आस्था है। तभी यह बात गांठ बांध ले कि लोकतंत्र और उसकी प्रक्रिया गृहयुद्ध, अराजकता को रोके रखने का एक ठोस शेफ्टी वाल्व है।इस बात को जहां नरेंद्र मोदी और अमित शाह को अंदरूनी राजनीति में समझना चाहिए वही सामरिक और भू ऱाजनीति के पहलू में अजित डोवाल, जयशंकर को जान लेना चाहिए कि लोकतांत्रिक मिजाज के देशों के साथ रिश्ते टिकाऊ होते है। दक्षिण एसिया की कूटनीति में पडौसियों में लोकतंत्र के पोषण की नीति होनी चाहिए न कि चुनावी धांधलियों और अंहकारी शासकों को सरंक्षण और प्रोत्साहन देने की।
एक बात और। बांग्लादेश की घटनाओं से प्रमाणित है कि दक्षिण एसिया के लोग एक सी तासीर लिए हुए है। गौर करें, सार्क के सभी देशों पर। सभी देश इस समय नौजवान आबादी से लबालब भरे है। सभी देशों में बेरोजगारी और आर्थिक परेशानियों ने नौजवानों का जीना हराम किया हुआ है। हर देश आर्थिक कुप्रबंधों, आर्थिक असमानता और अपने-अपने अदानी-अंबानी लिए हुए है। सभी देशों में क्रोनी पूंजीवाद और भ्रष्टाचार है। सभी देश जलवायु परिवर्तन और आपदाओं-विपदाओं के मारे है।
बांग्लादेश से पहले श्रीलंका में राजनैतिक अराजकता बनी। वहा के राष्ट्रपति ने भी भाग कर दूसरे देश में शरण ली। उस आंदोलन के अगुआ भी नौजवान थे। ऐसे ही पाकिस्तान में इमरान खान ने अपने अंहकार में अपनी राजनीति चमकाई तो संकट हुआ। आर-पार का चुनावी घमासान हुआ। तब इमरान खान के लिए नौजवानसड़कों पर उमड़े थे। हालांकि चुनाव में धांधली और सेना की मदद से बागडोर अभी शरीफ के पास है लेकिन पाकिस्तान जस का तस अधर में है। उसकी आर्थिकी टूटी हुई है। ऐसे ही नेपाल यदि अस्थिरता के भंवर में है तो इसका जमीनी कारण नौजवानों की बेगार भीड से नेताओं की बैचेनी है। लोगों की उम्मीदे सुरसा की तरह है और नेपाली नेता सरकारे बना या बिगाड़ कर लोगों के भरमाते हुए है।
इसलिए भारत की 140 करोड़ लोगों की आबादी में उन 90 करोड़ नौजवानों को ले कर सोचना जरूरी है जिनमें नौकरियों के लिए फडफडाहट है। आरक्षण की भूख है और बेगारी करते-करते यह सोचना है कि ऐसे कब तक जिंदगी चलेगी?