यह 2024 का सत्य है तो सन् 2025 के वर्ष का भी होगा। मीडिया भले नरेंद्र मोदी, डोनाल्ड ट्रंप, पुतिन की सुर्खियों की खबरें देता हुआ हो मगर पृथ्वी नाम के ग्रह के लोग, अलास्का से लेकर न्यूजीलैंड तक, हर मनुष्य अब समय के मौसम की चिंता में हैं। कोई न समझे, न माने लेकिन भारत के लोग भारत छोड़ कर भाग रहे हैं तो ऐसे ही दुनिया के कई इलाकों से लोग अपने जन्म स्थान से दूसरे स्थानों में माग्रेशन से, चोरी-छुपे घुसते हुए हैं। climate change
वजह मौसम, सूखे, बाढ़, आबोहवा और परिवेश की अराजकता है। कमाई अर्थात जिंदगी जीने के संसाधनों, हरे-भरे चरागाहों, अनुकूल मौसम और स्थितियों की तलाश में मनुष्य वैसे ही उधेड़बुन में भागता हुआ है जैसे 60 हजार या 90 हजार साल पहले अफ्रीका में इथोपिया की गुफाओं से बाहर निकल होमो सेपियन ने अनुकूल मौसम और स्थितियों की तलाश में पृथ्वी को छान मारा था।
इतिहासकारों-मानवशास्त्रियों ने उस समय को पाषाण युग का नाम दिया है। तब भी इंसान कमाई, अच्छे मौसम और परिवेश के लिए पूरी पृथ्वी पर नए ठिकाने बनाता हुआ था। जन्म इथियोपिया की गुफाओं में हुआ और वहां से वह बाहर निकल मेसोपोटामिया, सिंधु नदी घाटी से चीन आदि, एक के बाद एक मानव सभ्यता के अवसरों को खोजते हुए था।
मानवता की यात्रा: फिर भी वही पुरानी वृत्तियाँ
तब और अब का फर्क क्या है? कहने को बहुत है मगर कुछ भी नहीं है! साधन बदले हैं, भूख का आकार बढ़ा है पहले इंसान पैदल था, पृथ्वी सर्व भूमि गोपाल की थी, पेट और शरीर की न्यूनतम आवश्यकताएं थीं। हर व्यक्ति अकेला था। अब वह रिश्ते, समाज, धर्म, संस्कृति, देश की सीमाओं से चिन्हित या बंधा हुआ है। बावजूद इसके दिमाग की चेतना, विवेक और वृत्तियों का सॉफ्टवेयर पाषाण युग का ही है। अर्थात भूख, भय और हिंसा, प्रतिहिंसा।
इन तीन मूल वृत्तियों से ही होमो सेपियन पूरी पृथ्वी पर छितरे। रिश्ते, समाज, धर्म, देश की रचना ही। पृथ्वी को अलग अलग टुकड़ों की सीमाओं में बांट डाला। उसे नोच कर इतना खा डाला कि पृथ्वी का climate change दिया। उस पारिस्थितिकी को बिगाड़ डाला, जिससे जैविक रचना अंकुरित हुई थी। मनुष्य का जन्म हुआ और पृथ्वी को ब्रह्मांड के एक आबाद ग्रह होने का गौरव प्राप्त हुआ!
सोचें, इस छोटी सी कहानी में हम मौजूदा समय में याकि मानव सभ्यता के पिछले सिर्फ दस हजार सालों की कितनी हार्ड कहानियों (खबरों, राष्ट्रों, राजों, रानियों के इतिहास आदि) का बोझ दिमाग पर लादे हुए हैं? जबकि इस बोझ याकि हार्डवेयरों का निचोड़ क्या है? जवाब में दिल्ली के ही उदाहरण से बूझें कि दिल्ली की जमीं में पिछले दस हजार वर्षों के मनुष्यों, उनके राजाओं, बादशाहों, सुल्तानों, प्रधानमंत्री, वजीरों के अस्थि कंकालों का कितना चूरा और राख, खाक हुआ पड़ा होगा। दिल्ली अवसरों का हमेशा पड़ाव हुई तो यहां से भागने का काम, माइग्रेशन भी कम नहीं हुआ।
आने वाला संकट: अवसरों का अंत और प्रवासियों का भविष्य
कथा अनंत है। निचोड़ सिर्फ इतना है की मनुष्य 60 हजार या 90 हजार साल पहले के पाषाण काल के जीविकोपार्जन अर्थात हरे भरे चरागाहों, संसाधनों तथा जिंदगी जीने लायक अनुकूल मौसम और स्थितियों को तलाशते रहने की नियति लिए हुए है! इस नियति में बार-बार मौसम याकि जिंदगी लायक स्थितियों का कारण निर्णायक होता है।
आगे और दुर्गति है। न केवल मौसम बेकाबू होता हुआ है, बल्कि आने वाला समय लोगों के अवसर मिटा देने वाला है। मशीन और नकली दिमाग (रोबोट व एआई यानी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस) सभी अवसरों को खाते हुए होंगे। चंद महा बुद्धिमान, बुद्धि के ब्राह्मण नई व्यवस्था के नियंता होंगे। ऐसे में भारत से या अपने जन्मस्थान से भागने वाले लोग नई जगह पहुंच भी गए तो वहां काम कहां होगा? अवसर होगा ही नहीं। भारत, पाकिस्तान या अफ्रीका, सीरिया, दक्षिण अमेरिका आदि जगहों से अमेरिका, यूरोप की ओर माग्रेशन से तब कमाई नहीं होनी है। कनाडा, ग्रीस, अमेरिका से लेकर पूरी दुनिया में एआई और रोबोट ही सब कुछ (पशुपालन से लेकर खेती, उद्द्योग, सेवाप्रदाता) करेंगे। अगले दस-बीस वर्षों में सभी तरह के शारीरिक, मानसिक कामों की नौकरियां खत्म हो जानी हैं तो प्रवासियों के लिए बचना क्या है?
खौफनाक तस्वीर है। मौसम और प्रतिकूल परिस्थितियों की मार है।
जो है वह दिलचस्प और गंभीर है। और आज के इस विषय की वजह एक अमेरिकी पत्रकार पॉल सालोपेक (दो पुलित्जर पुरस्कार प्राप्त) की पदयात्रा है। वह सन् 2013 से पृथ्वी की पदयात्रा पर हैं। यह 62 वर्षीय पत्रकार 60 हजार साल पुराने मनुष्यों (होमो सेपियन) के अपनाए रास्ते से पृथ्वी घूम रहा है। अर्थात अफ्रीका के इथियोपिया से रवाना हो कर मध्य पूर्व एशिया, अफगानिस्तान-पाकिस्तान-हिंदुस्तान से पूरे एशिया, फिर नाव से अलास्का तथा अंत में वह अमेरिका के दक्षिणी सिरे के उस टिएरा डेल फुएगो के मानव मार्ग की यात्रा करेगा, जिसके अंतिम मुकाम पर ईसा पूर्व सन् 8000 में होमो सेपियन पहुंच पाए थे। पॉल सालोपेक ने सन् 2013 में पैदल यात्रा शुरू की। तब सोचा था सात साल में यात्रा पूरी हो जाएगी।
लेकिन 11 साल हो गए हैं और वह अभी जापान में है। इस सप्ताह लंदन की ‘द इकोनोमिस्ट’ ने अपने रिपोर्टर की पॉल सालोपेक के साथ यात्रा का ब्योरा दिया है। उससे मालूम हुआ कि पॉल सालोपेक ने अफ्रीका से चल दक्षिण एशिया में प्रवेश होमो सेपियन के उस मार्ग से ही किया, जिसका वैज्ञानिक या ऐतिहासिक (जैसे सिकंदर महान का सफर) ब्योरा है! अफगानिस्तान, पाकिस्तान से भारत और भारत से फिर पूर्वोत्तर एशिया की हजारों किलोमीटर लंबी पैदल यात्रा कर चुका है।
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पैदल यात्रा में ‘नेशनल ज्योग्राफिक’ मददगार है। वह सुबह सात बजे यात्रा शुरू करता है। कंधे पर एक छोटे से पैक में नोटबुक, एक रेन जैकेट, कपड़े बदलने की दो जोड़ी, छोटी-मोटी जरूरी चीजें होती हैं। लैपटॉप, मेकअप या अतिरिक्त जूते नहीं। कुल कोई पांच या छह किलोग्राम वजन। जैसे कोई फक्कड़ साधु। मगर रास्ते में लोगों से मिलना, उनकी बात सुनना, ऑब्जर्व करना और नोट व रिपोर्ट लिखना तयशुदा दैनिक रूटिन है। ‘द इकोनोमिस्ट’ के रिपोर्टर ने सितंबर में जापान के दक्षिणी भाग के एक शहर फुकुओका में पॉल सालोपेक के साथ पैदल यात्रा की। रिपोर्ट अनुसार वे एक दिन में 35 डिग्री की गर्मी में औसतन 12 से 25 किलोमीटर चले। climate change
धीमी पत्रकारिता और वैश्विक प्रवृत्तियाँ
पॉल सालोपेक का लिखना नियमित है। उसके अनुसार यह स्लो याकि ‘धीमी पत्रकारिता’ है। इसके लिए वे लिखने और खबर बूझने, तलाशने के लिए अक्सर रुकते हैं। मतलब पैदल यात्रा का अभियान नहीं है, बल्कि कहानियों को इकट्ठा करने का एक धीमा और सहज सफर। स्वाभाविक है जो पुरातात्विक खुदाई और लुप्त सभ्यताओं तथा उद्यम, कला, कौशल, मौसम, प्रदूषण व संरक्षण जैसे विषयों पर लिखना ज्यादा होगा।
सालोपेक के अनुसार आज, सात व्यक्तियों में एक व्यक्ति का रहना व काम करना जन्मस्थान से दूर, अलग स्थान पर है। यह माग्रेशन पुश-पुल कारक (मजबूरी या पॉजिटिव वजह से) से है। अन्य शब्दों में लोग को मजबूरी में दूसरा स्थान तलाशने या बेहतर जीवन के आकर्षण में नए स्थान की और जाने का वह सिलसिला है जो पाषाण युग जैसा है। तब भी दुर्लभ संसाधनों, बदलते मौसम के पैटर्न, हरे-भरे चरागाहों की खोज में मनुष्य भटकता, चलता जाता था।
पॉल सालोपेक के अनुसार सभी तरफ लोग जैसी जो चिंताएं बताते हैं उससे जाहिर होता है कि सभी मनुष्य एक सी आनुवंशिकी और चिंताए याकि वृत्तियां व स्वभाव लिए हुए हैं। सभी तरफ महिलाओं के खिलाफ पूर्वाग्रह है। यह एक वैश्विक वस्तुस्थिति है और पूरी मानवता इससे ग्रस्त है। महिलाएं काम करने के लिए जल्दी उठती हैं, और देर से बिस्तर पर जाती हैं। पुरुष की सार्वजनिक अहमियत अधिक है और अधिकांशतः वे ही संपत्ति के मालिक हैं। पैदल चलती महिलाएं कम दिखती हैं। दक्षिण कोरिया में अभूतपूर्व संख्या में महिलाएं शादी और बच्चों से तौबा करते हुए हैं। climate change
जलवायु परिवर्तन: वैश्विक संकट और भविष्य की अनिश्चितता
मगर सबसे बड़ी खबर, सभी तरफ हर कोई जलवायु परिवर्तन को फील करते हुए है। सालोपेक के अनुसार, “मैं जलवायु परिवर्तन से गुजरा हूं,”… “इथियोपिया में, जहां यात्रा शुरू की, वहां अफ़ार और इस्सा आदिवासियों के बीच घटते चरागाह का संघर्ष देखा। कजाकिस्तान में असामान्य रूप से भारी बारिश के बाद बकौल बुजर्गों के स्टेपी के सूखे पहाड़ खिलते हुए। जॉर्जिया में त्बिलिसी के एक पूरे पड़ोस को नदी में फिसलते देखा। अफगानिस्तान में देहात के लोग खुबानी की बंपर फसल से हैरान और खुश थे। वह इसलिए थी क्योंकि गर्मियां असामान्य तौर पर अधिक गर्म थीं। पिघलते ग्लेशियरों की हवा का पैदावार पर असर था। वे लोगों को यह नहीं समझा पाए कि कुछ वर्षों में ग्लेशियर चले जाएंगे और उनकी भूमि रेगिस्तान बन जाएगी”। climate change
सालोपेक के अनुसार हर जगह किसान चिंतित हैं; मौसम अजीब होता जा रहा है। जापान में 81 वर्षीय ताकामी त्सुनेहिरोने, (जो 50 से अधिक वर्षों से अपनी पत्नी के साथ एक ही भूमि पर खेती करते आ रहे हैं) जमीन से शकरकंद निकालते-निकालते रूकते हुए कहा, “चार मौसम हुआ करते थे, अब सिर्फ गर्मी और सर्दी है। या तो बहुत अधिक धूप है या बहुत अधिक बारिश है”। “दक्षिण कोरिया में गर्मी के चलते हुए, सड़कों पर कोई नहीं था। एक भूतिया परिदृश्य।… सोचा था कि जापान में सितंबर ठंडा होगा लेकिन ऐसा नहीं है”। climate change
सो, मौसम अब वह मसला है जो साल-दर-साल, धीरे-धीरे ही सही पृथ्वी के सभी लोगों के जीवन के पूरे समय की न केवल रियल खबर है, बल्कि मनुष्यों का पाषाण काल में लौटा देने वाली है! इसका अगली पीढ़ियां कैसे सामना करेंगी? अनुमान लगा सकते है!