अच्छा जुमला है। सोचें, नरेंद्र मोदी का अमेरिका में डंका बज रहा होगा तब नीतीश कुमार पटना में विपक्षी नेताओं को जात की राजनीति के कैसे मंत्र दे रहे होंगे? तेजस्वी, अखिलेश, ममता बनर्जी, हेमंत सोरेन क्या यह हिसाब लगाते हुए नहीं होंगे कि मैं तो अपने इलाके में मजे से जीतूंगा। तो अरविंद केजरीवाल एक राजा की कहानी सुनाते हुए होंगे। किसी को भी ख्याल नहीं होगा कि भाजपा उधर मशीनी दिमाग से सबकी कैसी-कैसी कहानियों की स्क्रिप्ट बना रही होगी। कैसे-कैसे आइडिया पर काम हो रहे होंगे?
इसलिए संयोग संभव है कि एक तरफ अमेरिका में विश्व विजेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की डुगडुगी शुरू हो तो भारत में ममता बनर्जी, अभिषेक बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, स्टालिन, नीतीश कुमार, भूपेश बघेल, अशोक गहलोत, वैभव गहलोत, भूपिंदर सिंह हुड्डा, केसीआर परिवार आदि के यहा एजेंसियों की छापेमारी शुरू हो जाए। मोटा मोटी अमेरिका यात्रा से ले कर राम मंदिर कार्यक्रम तक का प्रधानमंत्री मोदी का कैलेंडर इस तरह भरा हुआ है, जिससे उनका नगाड़ा बजता हुआ और विपक्ष छापों से अधमरा होता हुआ।
ऐसा विजुअलाइजेशन नीतीश कुमार की बैठक में नहीं होना है। विपक्षी बैठकों में यह रणनीति नहीं बननी है कि छापेमारी-गिरफ्तारी केजरीवाल की हो या अभिषेक बनर्जी की विपक्ष का जवाबी हमला साझा होना चाहिए। और इसके लिए हमारा हल्ला बोल हमारे अपने मंचों से हो। सब मान बैठे हैं कि यू ट्यूब में मोदी विरोधी लाखों दर्शकों के जो वीडियो हैं वे ही बहुत। देखो विरोध की आवाज को लाखों-करोड़ लोग सुन रहे हैं। इन्हें अंदाज ही नहीं है कि गूगल अपने एलगोरिदम में भारत के नागरिकों का डाटा लिए हुए है, जिसके जो सुनने का दिमाग है उसके आगे वही कंटेंट, वही पोस्ट वही वीडियो आ रहा है, जो ऑनलाइन आचरण से झलकता है। हैरानी होती है यह देख कर कि आम आदमी पार्टी की पंजाब सरकार हो या केसीआर की तेलंगाना सरकार या नीतीश और ममता बनर्जी की सरकारें या कांग्रेस की प्रदेश सरकारें उन्हीं वेबसाइटों, चैनलों और अखबारों को विज्ञापन देते हैं, जो सौ टका मोदी भक्ति में समर्पित हैं।
मैं अभी जनता के मूड, ग्राउंड रियलिटी, मुद्दों की बात नही कर रहा हूं। फिलहाल मुद्दा नई चुनावी तकनीक, सोशल मीडिया, पैसे तथा एआई तकनीक का है। भाजपा उसे लपक रही है। वह मशीनी दिमाग के उपयोग से प्रोपेगेंडा, नैरेटिव से विपक्ष को अपंग बनाने की तैयारी में है। एक जानकार का ठीक कहना था कि विपक्ष अधिक से अधिक पैसे की कमी या ईवीएम और लोगों की तकलीफों से बनी मनोदशा को भुनाने तथा एलायंस के पाषाणकालीन तरीकों में दिमाग खपाता रहेगा, जबकि अगला चुनाव माहौल पकाने के नए-अलग लेवल की तकनीक का है। विपक्ष इसके पैमाने सोच ही नहीं सकता।
तभी पाषाणकालीन तरीकों से विपक्ष की चुनावी तैयारी का जुमला सटीक है। सोचें, राहुल गांधी भले अमेरिका-ब्रिटेन में जा कर अपने को सुनने वालों को मंत्रमुग्ध भले करें लेकिन नरेंद्र मोदी का यदि वहां का जादू (भले वह प्रायोजित हो) सीधे भारत में आम लोगों के बीच जैसे पहुंचेगा, क्या उसके तौर-तरीकों का कांग्रेस को भान होगा? और यदि है जवाबी तरीकों के उसके औजार क्या पाषाण युग के नहीं हैं?