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कितना महंगा होना चाहिए सिनेमा का टिकट?

कितना महंगा होना चाहिए सिनेमा का टिकट?

लुटिया डूबती देख ‘आदिपुरुष’ के निर्माताओं ने, देश में जहां कहीं भी यह फ़िल्म दिखाई जा रही थी उन थिएटरों में, कम से कम तीन बार टिकटों की दरें घटाने का दांव चला। ‘पठान’ जब कमाई के रिकॉर्ड तोड़ने में लगी थी तब यशराज फ़िल्म्स ने भी कई बार टिकटों के दाम घटाए ताकि बॉक्स ऑफ़िस का कलेक्शन कम न हो। संयोग से यशराज का यह प्रयास कारगर रहा जबकि टी सीरीज़ को नाकामी मिली। लेकिन दोनों को पता था कि टिकटों के रेट कम हों तो ज़्यादा दर्शक आएंगे। इसका मतलब हुआ कि हमारा फिल्म उद्योग अपने लाभ के लिए आपको कम पैसे में फिल्म देखने का लालच देता है, लेकिन वह स्थायी रूप से टिकट दरें घटाने को तैयार नहीं है। न तो फिल्म प्रदर्शक यानी थिएटर वाले ऐसा करना चाहते हैं और न निर्माताओं का ऐसा कोई आग्रह है। उलटे बड़े प्रोडक्शन हाउस तो कई बार अपनी फिल्म के टिकट के दाम बढ़ा देते हैं। सामान्य से ज़्यादा। वे इन्हें बढ़ाते भी लाभ के लिए हैं और घटाते हैं तो भी लाभ के लिए।

तमिलनाडु में फिल्म एग्जिबिटर्स की एक एसोसिएशन ने एमके स्टालिन सरकार से सिनेमा टिकटों की दरें बढ़ाने की अपील की है। तमिलनाडु उन राज्यों में है जहां राज्य सरकार ये दरें तय करती है। संबंधित एसोसिएशन ने टिकट दरें आईमैक्स में 450 रुपए तक, मल्टीप्लेक्स में 250 रुपए और जहां एसी नहीं है उन थिएटरों में 150 रुपए तक रखने की मांग की है। पिछली बार वहां 2017 में टिकटों के रेट बढ़ाए गए थे। दिलचस्प बात यह है कि टिकट दरें बढ़ाने की इस मांग का जो लोग विरोध कर रहे हैं उनमें कुछ मल्टीप्लेक्स मालिक भी हैं। उनका कहना है कि शिएटरों को ओटीटी से ज़बरदस्त टक्कर मिल रही है और दर्शकों की आवक पहले ही कम है। अगर टिकट और महंगी की गई तो दर्शक और कम हो जाएंगे। वे पूछते हैं कि उस हालत में छोटी फिल्मों का क्या होगा? नए कलाकारों वाली फिल्मों को कौन देखने आएगा? तमिल फिल्मों के कई निर्माताओं ने भी कहा कि जब दर्शक चुनिंदा फिल्में देखने ही थिएटर पर आ रहे हैं, तो फिर टिकट दर बढ़ाना तो अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा।

वैसे जिन दरों की तमिलनाडु की इस एग्जिबिटर्स एसोसिएशन ने मांग की है उतनी या उनसे भी ज्यादा दरें देश में कई जगह लागू हैं। 100 रुपए से कम टिकट पर 12 प्रतिशत और उससे ज्यादा की टिकट पर 18 प्रतिशत जीएसटी तो पूरे देश में समान है। लेकिन सब राज्यों में टिकट दरें एक सी नहीं हैं। सवाल है कि सिनेमा की टिकटें सरकारों के लिए कोई मुद्दा हैं भी या नहीं? लगभग पूरे देश में सन 1960 तक सिनेमा टिकटों की दरें एक रुपये, 1970 तक दो रुपए, 1980 तक छह रुपए और 1990 तक करीब दस रुपए तक रहीं। उसके बाद यानी उदारीकरण के साथ इनका तेजी से बढ़ना शुरू हुआ। मल्टीप्लेक्ट आए तो इस बढ़ोत्तरी की रफ़्तार और तेज हो गई जो आज तक कायम है। जैसे-जैसे ये दरें बढ़ीं, वैसे-वैसे उन लोगों की गिनती भी बढ़ी, जिनकी हैसियत सिनेमा देखने की नहीं रही। यानी हमने टिकटों के रेट बढ़ा कर बहुत बड़ी संख्या में लोगों से सिनेमाघर में फिल्म देख पाने की खुशी छीन ली। कोई कह सकता है कि जब आटा, दाल और दूध जैसी बेसिक चीजों की कीमतें नहीं रोकी जा सकीं तो सिनेमा तो मनोरंजन का मामला है, उसके लिए तो आपको ज़्यादा कीमत देनी ही होगी।

समस्या यह है कि सिनेमा की टिकटें न केवल महंगी हो गईं बल्कि विभिन्न राज्यों, शहरों और अलग-अलग थिएटरों में उनकी दरें भी समान नहीं हैं। इसी साल जनवरी में यह मामला सुप्रीम कोर्ट में आया था और चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ व जस्टिस पीएस नरसिम्हा की खंडपीठ ने सिनेमा टिकटों की दरें समान रखने की मांग अस्वीकार कर दी थी। इस पीठ ने कहा था कि किसी थिएटर की लोकेशन क्या है और उसमें क्या सुविधाएं दी जा रही हैं, इसका तो ख्याल रखना ही पड़ेगा। इसे अनदेखा कर हर जगह समान टिकट दर लागू करना सही नहीं होगा। हुआ यह था कि जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने हर थिएटर में समान दरें रखने का आदेश दे दिया था। उसने यह भी कहा था कि थिएटरों में दर्शकों को खाने-पीने की अपनी चीजें ले जाने की इजाज़त होनी चाहिए। मगर सुप्रीम कोर्ट ने इस फ़ैसले को उलट दिया।

दिक्कत यह भी है कि अपने देश में सिनेमाघरों की संख्या कम है। फिलहाल अपने यहां प्रति दस लाख लोगों पर केवल सात स्क्रीनें हैं, जबकि अमेरिका में इतनी ही आबादी पर 125, ब्रिटेन में 68 और चीन में 30 स्क्रीनों का औसत है। पिछले साल तक अपने यहां कुल 9382 स्क्रीनें थीं। सुना है कि अब एनएफ़डीसी यानी राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम को सरकार ने सिनेमाघरों की संख्या बढ़ाने के लिए योजना बनाने को कहा है। पता नहीं, एनएफ़डीसी इस काम में कितना समय लेगा और कितना सफल होगा। लेकिन यह भी सिनेमाघरों की संख्या बढ़ाने की कोशिश है। टिकटों की दरें घटाने की नहीं।

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Published by सुशील कुमार सिंह

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता, हिंदी इंडिया टूडे आदि के लंबे पत्रकारिता अनुभव के बाद फिलहाल एक साप्ताहित पत्रिका का संपादन और लेखन।

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