भारतीय मानस की तासीर दग़ाबाज़ों से घृणा करने की है। इसलिए भाजपा के लारे-लप्पों में आ कर या अपने-अपने ग़िरेबाओं के घनघोर मैलेपन से डर कर जो पवार के कटप्पा बने हैं, उन की सियासी उम्र लोग लंबी नहीं रहने देंगे। आप सोचिए कि अगर किसी दिन अमित भाई शाह अपने निर्माता नरेंद्र भाई मोदी को छोड़ कर चले जाएं तो भारतीय जनमानस में उस की कैसी प्रतिक्रिया होगी? प्रफुल्ल पटेल के पलटूपन ने उसी तरह की वितृष्णा का भाव लोगों के मन में पैदा किया है।
अगर भारतीय जनता पार्टी को लग रहा है कि शरद पवार को इस हाल में ले आने से उसे राजनीतिक फ़ायदा होगा तो वह मुगालते में है। उसे कुल मिला कर बड़ा नुकसान होगा। ख़ुद एकनाथ शिंदे भीतर से सहम गए होंगे कि उन के बहुत-से हमजोली उद्धव ठाकरे की तरफ़ देखने लगेंगे। अजित पवार दलबदल क़ानून से बचने लायक़ विधायक इकट्ठे नहीं कर पाए हैं, इसलिए उन के साथ गए विधायकों में से भी ज़्यादातर अभी से पसोपेश में पड़ने लगे हैं। यूं भी जैसे शिंदे के जाने के बाद भी शिवसेना का मूल-संगठन उद्धव के ही साथ रहा, उसी तरह अजित के जाने के बाद राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का बुनियादी ढांचा पवार के ही साथ है।
विधानसभाई-अंकगणित में पवार अभी कमज़ोर ज़रूर पड़े हैं, मगर सियासी बीजगणित में वे अजित से कई गुना मज़बूत हो कर उभरे हैं। अजित और उनके साथ गए लोग भले ही 45 बरस पहले पवार के किए-धरे की कितनी ही याद दिलाएं, महाराष्ट्र तो महाराष्ट्र, बाकी देश में भी पवार को अपनो से ही मिले धोखे को किसी ने पसंद नहीं किया है। भारतीय मानस की तासीर दग़ाबाज़ों से घृणा करने की है। इसलिए भाजपा के लारे-लप्पों में आ कर या अपने-अपने ग़िरेबाओं के घनघोर मैलेपन से डर कर जो पवार के कटप्पा बने हैं, उन की सियासी उम्र लोग लंबी नहीं रहने देंगे।
आप सोचिए कि अगर किसी दिन अमित भाई शाह अपने निर्माता नरेंद्र भाई मोदी को छोड़ कर चले जाएं तो भारतीय जनमानस में उस की कैसी प्रतिक्रिया होगी? प्रफुल्ल पटेल के पलटूपन ने उसी तरह की वितृष्णा का भाव लोगों के मन में पैदा किया है। अजित की नीयत तो पहले भी कई बार सामने आ चुकी थी, सो, उन के जाने से लोगों को उतनी हैरत नहीं हुई, लेकिन प्रफुल्ल के ब्रूटसपन ने सभी को धक्क कर दिया है। इसलिए लिख कर रख लीजिए कि प्रफुल्ल केंद्र में कितने ही बड़े मंत्री बन जाएं, अब वे लोकसभा का चुनाव कभी नहीं जीत पाएंगे।
अजित के साथ गए विधायक भी लोगों के मन से इस क़दर उतर गए हैं कि वे जिस दिन चुनाव-मैदान में उतरेंगे, लस्तमपस्त पड़े मिलेंगे। यही हाल शिंदे के साथ गए शिवसेना के विधायकों का होगा। अगले साल की विजयादशमी के आसपास जब महाराष्ट्र की विधानसभा के चुनाव होंगे, आप सियासी हताहतों की संख्या देख कर अपनी उंगलियां दांतों तले दबा रहे होंगे। आज अपनी तिकड़मों की सफलता पर इतरा रहे देवेंद्र फडनवीस के घर की मुंडेरों पर अगली दीवाली के कितने दीए सजते हैं – देखते रहिए।
यही हाल इस बरस की दीवाली के आसपास होने वाले मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया और उन के साथ कांग्रेस छोड़ कर गए विधायकों का होना है। अभी उन में से कई भले मंत्री बन कर फूले-फूले घूम रहे हैं, मगर आने वाले चुनाव में उन में से ज़्यादातर को तो भाजपा ख़ुद ही उम्मीदवार नहीं बनाएगी और जिन्हें बनाएगी भी, उन्हें मतदाता ठेंगा दिखा देंगे। सिंधिया के इलाक़े ग्वालियर-चंबल में होने वाली अपनी बेहद बुरी गत को देख कर भाजपा स्वयं मूर्छित हो जाएगी। अभी उसे यह अंदाज़ ही नहीं हो पा रहा है कि साम-दाम-दंड-भेद के ज़रिए सरकार-हरण की उस की करतूतों ने आमजन को उस के ख़िलाफ़ कितने गुस्से से भर दिया है।
पक्का मान कर चलिए कि आने वाले दिनों में भाजपा पवार और उद्धव जैसा ही हाल नीतीश कुमार और अरविंद केजरीवाल का करने की कोशिश भी करेगी। नीतीश के 45 में से 36 विधायकों को तोड़ने की बिसात बिछाना अमित भाई ने पहले दिन से ही शुरू कर दी थी। यह अलग बात है कि फ़िलवक़्त अपनी इस जाज़म की सिलवटें वे ठीक से मिटा नहीं पा रहे हैं। लेकिन उन के बहेलिया जाल के फंदे लगातार कसते जा रहे हैं। 2025 की सर्दिया अभी थोड़ी दूर हैं और अगर 2024 के आम चुनाव के समय भाजपा नीतीश के 16 लोकसभा और 5 राज्यसभा सदस्यों की सेंधमारी में थोड़ी भी क़ामयाब हो गई तो उस के फ़ौरन बाद वह बिहार की सरकार को गिराने के लिए दिन-रात एक कर देगी।
केजरीवाल का पवारकरण करने से भी भाजपा भला क्यों बाज़ आएगी? मुझे इस बात की पूरी संभावना लग रही है कि दिल्ली में विधानसभा का अगला चुनाव आने से पहले राष्ट्रीय राजधानी का विधायिका-चरित्र ही पूरी तरह बदल जाएगा। न रहेगी विधानसभा और न रहेगी केजरीवाल की सूरमाई। ज़ाहिर है कि आज आप को यह असंभव लगेगा, लेकिन मेरे इस इल्हाम को याद रखिएगा कि एक दिन पंजाब में भगवंत मान भी 69 विधायकों को ले कर ख़ुदमुख़्तारी का ऐलान कर सकते हैं। सरकार में बने रहने के लिए तो उन्हें 59 विधायक ही चाहिए होंगे, लेकिन 69 का साथ पा लेने पर केजरीवाल उन के ख़िलाफ़ दलबदल क़ानून का सहारा भी नहीं ले पाएंगे। अगर आप इसे चंडूखाने की तरंग समझ रहे हैं तो यह समझ लीजिए कि दशाननी तैयारियों का यह तहखाना तेज़ी से सज रहा है।
2024 की दहलीज़ पर पहुंचने के पहले विपक्षी एकता को तार-तार कर देने के लिए नरेंद्र भाई और अमित भाई कुछ भी कर गुज़रने को कमर कसे बैठे हैं। नवीन पटनायक, जगन रेड्डी और चिराग पासवान को तो भूल ही जाइए, के. चंद्रशेखर राव, अखिलेश यादव और सुखबीर बादल तक पर वे अपना जालबट्टा फेंक चुके हैं। ‘मोशा‘ मंडली जानती है कि लालूप्रसाद यादव, ममता बनर्जी, शरद पवार और नीतीश कुमार उन के झुकाए नहीं झुकेंगे, सो, उन्हें तोड़फोड़ देने की कार्रवाइयां शुरू हो गईं। बीच की मुंडेर पर बैठी मायावती के बारे में भाजपा को लग रहा है कि वे कांग्रेस से तालमेल कर लेंगी। इसलिए आने वाले दिनों में उन की पार्टी को भी तितर-बितर करने की बघनखी कोशिशें शुरू हो गई हैं।
नरेंद्र भाई के लोकतंत्र में लोक का अब कोई महत्व नहीं है। जो है, तंत्र है। दक्षिणमुखी व्यवस्था का वाम तंत्र। इस के फट् फट् स्वाहा मंत्रोच्चार में जनतंत्र के सारे मूल्य स्वाहा होते जा रहे हैं। लोकतंत्र के सारे सिद्धांत मौजूदा सियासत की बैताली साधना के दलदली तालाब में तिरोहित होते जा रहे हैं। नौ साल में जम्हूरियत की धमनियों से तक़रीबन सारा रक्त चूसा जा चुका है। जनतंत्र की काया कंकाल में तब्दील होती जा रही है। अपनी रिक्त शिराओं के सहारे वह कितनी दूरी तय कर पाएगी, कौन जाने!
मगर बावजूद इस के ‘मोशा’ बंधु भीतर से भयभीत हैं। आने वाले समय का घर्घर नाद उन्हें सुनाई देने लगा है। इसीलिए जहां एक तरफ़ वे अपने बल्लम-भाले ले कर विपक्ष को छिन्नभिन्न करने के लिए टूट पड़े हैं, वहीं पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों के साथ ही लोकसभा का चुनाव कराने की तैयारियां भी कर रहे हैं। निर्वाचन आयोग को आम चुनाव की तैयारी रखने के गुपचुप संकेत दे दिए गए हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय समेत सभी मंत्रालयों को लंबित काम तेज़ी से निपटाने का इशारा कर दिया गया है। सो, मत-कुरुक्षेत्र के ऊंट की करवट पर निग़ाह रखिए।
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