बड़े-बड़े देश, छोटे-छोटे देशों के हालात, उनकी मुसीबतों पर बात करने जा रहे हैं। बाईस जून से फ्रांस के राष्ट्रपति की मेजबानी और अध्यक्षता में नई ग्लोबल फाइनेंसिंग संधि पर शिखर बैठक शुरू हो रही है। इस आयोजन के बारे में बड़ी-बड़ी बातें कही जा रही हैं। एक नमूना यह रहा- इस सम्मलेन का लक्ष्य है वैश्विक वित्तपोषण व्यवस्था अर्थात विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष को एक ऐसा नया स्वरुप देना, जिससे वह आने वाले नए दौर के लिए तैयार हो जाए– वह दौर, जिसमें जलवायु परिवर्तन होगा और ऋण के बोझ तले दबे देशों पर एक के बाद एक संकट आएंगे। शब्द तो भारी-भरकम हैं, और उम्मीदों और वायदों से लबरेज भी हैं।
नई वैश्विक फाइनेंसिंग संधि तैयार करने के लिए हो रहे इस सम्मेलन में चीन के प्रधानमंत्री ली कियांग, अमेरिका की वित्त मंत्री जैनेट येलेन और कम से 16 अफ्रीकी देशों के राष्ट्रपति भाग लेंगे। खूब बातें होंगीं, बड़ी-बड़ी बातें होंगीं।
सम्मलेन के पहले इमैनुएल मैक्रों, जो बाइडेन, ऋषि सुनक, फुमिओ किशिदा और कई अन्य वैश्विक नेताओं ने एक खुले पत्र में दुनिया की विकास संबंधी आवश्यकताओं पर चर्चा की। यह दस्तावेज विकास और समानता लाने और भूख, गरीबी और असमानता को भगाने के साथ-साथ लचीली नीतियों और ‘ग्रीन‘ भविष्य में निवेश की चर्चा भी करता है। इन सभी ने संकल्प व्यक्त किया है कि वे एकजुट होकर, मिल-जुलकर विकासशील देशों के सामने जो चुनौतियां हैं उनसे निपटने और अपने वैश्विक एजेंडे को पूरा करने के लिए काम करेंगे। इसके अलावा और भी कई बातें कही गई हैं।
यह सब बहुत ओजस्वी और आशाजनक लगता है। लेकिन क्या सभी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन ऐसे ही नहीं होते? पश्चिमी देश बार-बार और लगतार आशा जगाते हैं, लेकिन जहां तक अमल का सवाल है, उनका रिकॉर्ड निराशाजनक रहा है।
हाल के समय में बड़े-बड़े वायदे बार-बार तोड़े गए हैं। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए धनराशि देने के वायदे किए गए परंतु नहीं दी गई। वैक्सीनों की जमाखोरी की गई और अनुदान के बजट में कटौती हुई। अफ्रीकी देश इस सबसे तंग आ चुके हैं। वे चाहते हैं कि सभी संस्थाओं में उन्हें प्रमुख स्थान दिया जाए, उनके कल्याण से संबंधित मामलों में उनके नजरिए को महत्व मिले और उनकी आवाज सुनी जाए।
अंगोला की वित्त मंत्री वेरा डेव्स ने इस बारे में बिना लाग-लपेट के अपनी बात रखी और उनकी बात बिल्कुल सटीक है। उन्होंने कहा- जब फैसले लेने वालों को संबंधित देश की जमीनी हकीकत की जानकारी नहीं होती तो वे समस्याओं और परिस्थितियों की ठीक से नहीं समझ पाते। इसलिए यह जरूरी है कि संस्थाओं में हमारी (अफ्रीकियों की) मौजूदगी बढ़े। साफ है कि एक पूरे महाद्वीप को न्यायोचित स्थान नहीं मिल रहा है। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में उनकी आवाज नहीं सुनी जाती और यूक्रेन युद्ध के चलते उनकी और अधिक उपेक्षा का अंदेशा है। यह माना जा रहा है कि प्रस्तावित सुधारों के बाद भी अफ्रीका उपेक्षित ही रहेगा।
वक्त जरा भी दया नहीं करता। वह क्रूर होता है। पश्चिम भी इस कठिन दौर में समस्याओं से जूझ रहा है। बढ़ती मुद्रास्फीति, चढ़ती ब्याज दरें, मुद्रा के प्रवाह को ठीक करने की जरुरत, कीमतों में इज़ाफा, युद्ध, पुतिन और किम जोंग उन- पश्चिम कई चुनौतियों का सामना कर रहा है। उसकी प्लेट समस्याओं से भरी हुई है। दूसरी ओर, कई अफ्रीकी और मध्य-पूर्वी देशों में प्लेटों में न तो खाना है और ना पानी। संयुक्त राष्ट्र संघ का 2030 तक घोर गरीबी के उन्मूलन का अभियान अपने लक्ष्य से बहुत दूर रहेगा। चरम मौसमी घटनाओं की संख्या बढ़ती जा रही है और साथ ही कर्ज में डूब चुके या डूब रहे देशों की भी। वैश्विक वित्तीय प्रणाली के कमजोर होने से हालात और बिगड़ रहे हैं। अमेरिका में बढ़ती ब्याज दरों के चलते उन गरीब देशों की मुसीबत और बढ़ गई है, जिन्होंने अमेरिकी डॉलर में कर्ज लिया था। यह उम्मीद थी कि अफ्रीका में क्लीन एनर्जी के लिए विश्व बैंक द्वारा धन उपलब्ध करवाने से निजी क्षेत्र वहां निवेश करने के लिए टूट पड़ेगा। परंतु ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। कर्ज से तेजी से राहत दिलाने के लिए बनाई गई एक नई प्रणाली अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उपयुक्त नहीं पाई गई। उन देशों पर कठिन शर्तें थोपी जा रही हैं, जिन्हें कर्ज की आवश्यकता है। इसके नतीजे में उनमें से कई चीन की ओर देख रहे हैं।
मैक्रों द्वारा आयोजित इस वित्तीय शिखर सम्मलेन से बहुत उम्मीदें हैं और उस पर नजर रखी जा रही है। लेकिन समस्या यह है कि मैक्रों और जर्मनी के चांसलर ओलाफ शोल्ज के अलावा जी-7 देशों की कोई बड़ी हस्ती इस सम्मेलन में भाग नहीं ले रही है। इसी से जाहिर है कि वे इसे कितनी गंभीरता से ले रहे हैं। उन सबने भले ही मिलकर एक खुला पत्र लिखा हो लेकिन उनके स्वंय न आने और सम्मेलन मे अपने प्रतिनिधियों को भेजने से उसका महत्व कम हो गया है। क्या केवल फ्रांसीसी राष्ट्रपति और जर्मन चांसलर ही सही रास्ते पर चलने में दिलचस्पी रखते हैं?
इसलिए संभावना यही है कि यह एक और ‘रोचक सम्मेलन’ साबित होगा, जिसमें बड़ी-बड़ी बातें होंगी और बड़ी-बड़ी आशाएं जगाई जाएंगी। लंबे-चौड़े वादे किए जाएंगे- सहायता के, धन के, समर्थन और सहयोग के। परंतु संभावना यही है कि अफ्रीकी देशों और कर्ज के बोझ तले कराह रहे दूसरे देशों के नेताओं के लिए यह सम्मलेन केवल खोखली आशाएं जगाएगा। इन देशों की आवाज दुनिया के उन बड़े नेताओं तक नहीं पहुंचेगी, जिन्होंने इस सम्मलेन में न आकर यह बता दिया है कि वे उसे कितनी गंभीरता से लेते हैं।