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आप तो नौ साल से सत्ता में हैं… पसमांदा की याद अब क्यों आई…?

भोपाल। हमारे प्रजातंत्री भारत में देश के कर्णधारों की चुनावों के समय स्मरणशक्ती काफी तीव्र हो जाती है, चुनाव के समय उन्हें वे सब हथकंडे याद आ जाते हैं, जिन से सीधा संबंध वोट से होता है, इसका सबसे ताजा उदाहरण हाल ही में प्रधानमंत्री जी द्वारा पसमांदा मुसलमानों की दुर्दशा के प्रति चिंता व्यक्त करना है, किंतु चिंता व्यक्त करते समय वे यह भूल गए कि पिछले 9 साल से वह स्वयं प्रधानमंत्री है और इस अवधि में यदि वे चाहते तो मुसलमानों के इस वर्ग की सभी तरह की मुश्किलें व दुर्दशा को ठीक कर सकते थे, लेकिन आज की सबसे बड़ी त्रासदी तो यह है कि हमारे राजनेता देश की आजादी के 75 सालों के बाद आज भी देश के नागरिकों (मतदाताओं) को उतना ही अनपढ़, अज्ञानी और भोले मान रहे हैं, जितना उन्हें देश की आजादी के समय माना जाता था।

अब इसे हमारे प्रजातंत्र का दोष कहे या हमारा दुर्भाग्य की इतनी लंबी अवधि के बाद भी दुनिया के प्रजातंत्र देशों के सिरमोर भारत के राजनेता अभी तक यहां के वोटरों के चातुर्य और उनकी सूझबूझ को समझ नहीं पाए, किंतु यह सही है कि यहां के नेता चाहे अपने वोटरों को ठीक से समझ नहीं पाए हो… किंतु यहां की जनता या आम वोटर अपने राजनेताओं को अच्छी तरह समझ चुका है और इसी मशक्कत के चलते हमारे देश के मतदाताओं की स्मरण शक्ति भी काफी तीक्ष्ण हो चुकी है, जो चुनाव के बाद के 4 सालों की पीड़ा और नेताओं द्वारा की जा रही उपेक्षा को भुला नहीं पाती है। इसे ही हमारे मतदाताओं की ‘जागरूकता’ कहा गया है, अब नेताओं को भी पहले की अपेक्षा ज्यादा अपने स्वयं के भविष्य की चिंता सताने लगी है।

आज के प्रजातंत्र का सबसे अहम सवाल यही रह गया है कि किसी भी तरह सत्ता को ‘दीर्घजीवी’ बनाना, फिर उसके लिए राजनेताओं को कुछ भी क्यों ना करना पड़े? और देश की जनता अब अपने अधिकारों व कर्तव्यों के प्रति इतनी अधिक जागरूक हो गई है कि वह अपने नेताओं के हर हथकंडे को ठीक से पहचानने लगी है और नेताओं को इसका अहसास भी करवाने लगी है।

आज मुझे यह सब लिखना क्यों पड़ रहा है? इसका जवाब मैंने इस लेख के प्रारंभ में ही दे दिया, अरे… जब मोदी जी आप स्वयं पिछले 9 सालों से देश के सर्वे सर्वा प्रधानमंत्री हैं, तो फिर अब आपको चुनाव के पूर्व मुसलमानों के इस वर्ग की दुर्दशा याद क्यों आई? इनकी दुर्दशा के लिए क्या पिछले 9 सालों की सत्ता जिम्मेदार नहीं है? ….पर क्या कहां जाए? …पर क्या करूं… एक पुराने फिल्मी गाने की तर्ज पर जवाब दूं- “कहा भी ना जाए… चुप रहा भी ना जाए”, क्या करूं, अपने आप को प्रजातंत्र का एक प्रहरी जो मानता हूं?

अब यदि पसमांदा मुसलमानों की दुर्दशा पर यदि मौजूदा सामाजिक जिम्मेदारी के बारे में यह कहा जाए कि जातीय भेदभाव को लेकर हिंदू समाज पर हमलावर रहने वाली तथाकथित “सेकुलर जमात” मुस्लिम संप्रदाय में होने वाले जातीय भेदभाव एवं शोषण पर न केवल चुप्पी साध लेती है, अपितु पर्दा डालने का काम भी करती है। तो क्या गलत है? और जब कोई भी सामाजिक मुद्दा राजनेता हथिया लेते हैं, तब फिर उस मुद्दे का भविष्य तो अंधकार में हो ही जाता है, साथ ही उस मुद्दे का राजनीतिक लाभ वह लोग उठा लेते हैं, जिनको मुद्दे या उसके हल में कोई दिलचस्पी नहीं होती, वे सिर्फ राजनीतिक लाभ ही चाहते हैं।

…लेकिन यह पुराने अनुभव के आधार पर तय है कि देश की जनता लंबे समय तक आकर्षक भुलावे की चकाचौंध में नहीं रहती, वह शीघ्र ही होश में आ जाती है और फिर पुराने खातों की बही को खोल कर चुनावों के समय तय कर लेती है कि उसे अब क्या करना है? इसलिए अब देश के किसी भी नेता को देश के वोटरों के बारे में किसी भी गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि “यह देश की जनता है, जो सब जानती है”।

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