प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की संयुक्त राज्य अमरीका की यात्रा जानदार और शानदार रही। नगाड़े बजे, लाल कालीन बिछे, तालियों की गडगडाहट के बीच नारेबाज़ी हुई और पुरानी दोस्ती को मजबूत करने की नई शुरूआत के दावे किये गएतो इस सबके बीच में कामकाज भी हुआ। यह सब चार दिनों में हुआ। यात्रा के कई यादगार क्षण थे और कई अच्छी तस्वीरे इकठ्ठा हो गईं हैं जो आगे पीआर के काम आएगी। भारत के कथित ‘स्वतंत्र’ मीडिया ने यात्रा को जबरदस्त महत्व दिया। ऐसा लग रहा था मानों मीडिया स्वयं चौंधिया गया हो।मीडिया से हमें मालूम हुआ कि न्यूयार्क में होटलों के कमरों में बाईबल की प्रति रखी जाती है! प्रधानमंत्री के भोजन के मेन्यु तक के फोटो और वीडियो प्रकाशित-प्रसारित किए गए। कुल मिलाकर सब प्रसन्न और संतुष्ट थे। बस विलेन था तो केवल अंतर्राष्ट्रीय मीडिया, जिसने आईना दिखाने वाली खबरें देने और संपादकीय लिखने का एक भी मौका नहीं गंवाया। यहां यह याद रखा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा सचमुच महत्वपूर्ण थी क्योंकि यूक्रेन युद्ध पर भारत के रवैये और भारत में मानवाधिकारों के उल्लंघन संबंधी चिंताओं के चलते दोनों देशों के संबंधों में कुछ तनाव, कुछ खटास थी। इसके अलावा अमेरिका और दुनिया सभी के लिए चीन का खतरा भी सबके दिमाग में था।
इसलिए आज का मेरा खुलासाहम-आपके नजरिए से नहीं है बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने मोदी की यात्रा को किस रूप में देखा, किस तरह लिया, इस बारे में है।
‘द गार्डियन’ में हन्ना एलिस पीटरसन ने लिखा, ‘‘भारत अब अहम: अमेरिका नरेन्द्र मोदी की यात्रा का इस्तेमाल चीन का मुकाबला करने के लिए करना चाहता है” (जून 21)।वे लिखती हैं, “जहाँ बाईडन प्रशासन भारत-अमेरिका के रिश्ते मजबूत करना चाहेगा वहीं भारतीय नेता (अर्थात प्रधानमंत्री मोदी) अगले वर्ष के चुनाव में अपने वोट बढ़ाना चाहते हैं।” उन्होने अपने लेख में विशेषज्ञो और बुद्धिजीवियों के विचारों को स्थान देकर उसे और दिलचस्प बनाया। लंदन विश्वविद्यालय के अविनाश पालीवाल कहते हैं, “भारत स्वयं को एक बड़ी शक्ति मानता है और उसकी अपनी भौगोलिक बाध्यताएं हैं, वह अपने बल पर और अपनी तरह की ताकत बनना चाहता है और वैश्विक और क्षेत्रीय स्तर पर उसकी अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। आज भले ही अमेरिका और भारत के नजरिए तथा हित एक हैं किंतु सदैव ऐसा नहीं रहेगा”।
‘फारेन अफेयर्स’ पत्रिका में ऐशले जे. टेलिस ने मई 2023 में लिखा था, “भारत पर अमेरिका पर दांव उल्टा पड़ा: नयी दिल्ली, बीजिंग के विरूद्ध वाशिंगटन के साथ खड़ी नहीं होगी”।उन्होंने चेतावनी दी कि बाईडन प्रशासन भारत में बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है परन्तु उसे यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि बीजिंग द्वारा कोई संकट उत्पन्न करने की स्थिति में भारत उसका साथ देगा। ताईवान पर चीन का हमला होने पर भारत, अमरीका के साथ खड़ा नहीं होगा।”
‘द अटलांटिक’ ने भी खुलकर अपने विचार व्यक्त किए। डेनियल ब्लाक ने लिखा, “अमरीका द्वारा मोदी की तारीफ़ भारत के असंतुष्टों के लिए यह ठीक नहीं है। भारत में प्रजातंत्र संकट में है और प्रजातंत्र के रक्षकों का साथ देने के लिए अमेरिका को सच बोलना चाहिए।”
‘द इकानामिस्ट’, जिसने यात्रा के हफ्ता पहले विदेश मंत्री एस जयशंकर का इंटरव्यू लिया था, ने ‘‘जो बाईडन और नरेन्द्र मोदी दोनों देशों को नजदीक ला रहे हैं” शीर्षक लेख में लिखा, ‘‘भारत और अमेरिका के रिश्ते इस बात का टेस्ट हैं कि बहुध्रुवीय दुनिया में लोकतांत्रिक देशों के गठबन्धनों का क्या भविष्य है? क्या दोनों पक्ष आपसी सहयोग से व्यापार एवं सुरक्षा के क्षेत्रों में लाभ हासिल कर सकते हैं, भले ही सैद्धांतिक मुद्दों पर वे उतने एकमत न हों जितना वे बताते हैं।” लेख में बताया गया कि भारत का पश्चिम की ओर झुकना, दरअसल, व्यावहारिकता का तकाज़ा है और नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में भारत एक ‘असहिष्णु लोकतंत्र’ बनता जा रहा है। लेख में लिंचिंग की घटनाओं और अल्पसंख्यकों की वंचनातथा भारत के भयभीत मीडिया और नतमस्तक न्यापालिका की चर्चा की गई है।‘‘भारत के 140 करोड़ रहवासियों में से केवल 6 करोड़ के पास औपचारिक रोजगार है। एक ऐसे देश में, जहाँ लोगों को भड़काना अपेक्षाकृत आसान है, मे यह एक विस्फोटक स्थिति है।”
लास एजिंल्स टाईम्स ने लिखा, ‘‘भारत के मोदी को बाईडन के दौर में राजकीय यात्रा का अवसर मिला किन्तु मानवाधिकार संबंधी चिंताओं के चलते इसकी चमक कम हो गई”।सदानंद धूमे ने ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ में भारत की राजनीतिक स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए लिखा, “बाईडन नजदीकी संबंध बनाने का प्रयास करके सही दिशा में कार्य कर रहे हैं किंतु भारत की धीमी आर्थिक वृद्धि दर और वहां व्याप्त सामाजिक उथलपुथल लंबी अवधि में खतरनाक साबित हो सकते हैं।” इस लेख का शीर्षक था: ‘क्या अमरीका मोदी के भारत पर भरोसा कर सकता है?”
यात्रा के दौरान एनवायटी (न्यूयार्क टाइम्स) मिनट-दर-मिनट खबरें दे रहा था, जिनमें राजकीय भोज में आमंत्रितों के नाम और कौन से व्यंजन परोसे गए, शामिल है। परन्तु इसके साथ ही उसने एक आँखें खोलने वाला विश्लेषण दिया जिसका शीर्षक था: “यूक्रेन युद्ध में तटस्थ रहकर भारत कैसे फायदे में है”।लेख में बताया गया है कि रूस पर आर्थिक प्रतिबंधो के चलते भारत को कैसे लाभ हो रहा है। इस सिलसिले में अख़बार ने रिलाइंस इंडस्ट्रीज के स्वामित्व वाली जामनगर रिफायनरी और नायरा एनर्जी के स्वामित्व वाले (गुजरात के) वडिनार काम्प्लेक्स का जिक्र किया है। नायरा का 50 प्रतिशत स्वामित्व रूसी सरकारी तेल कंपनी रोजनेफ्ट का है और बाकी 50 प्रतिशत एक रूसी निवेशक समूह का। इस तरह भारत और रूस दोनों इस स्थिति का फायदा उठा रहे हैं।
लेकिन सबसे बेहतरीन लेख ‘गार्डियन’ में था जिसमें अनीषा दत्ता ने बताया कि बतौर लोकतांत्रिक देश अपनी रेटिंग में गिरावट मेंमोदी सरकार अपनी साख-प्रतिष्ठा बचाने के लिए किस तरह गोपनीय रूप से कोशिश कर रही है। इसमें भारत सरकार के कुछ गोपनीय दस्तावेजों का हवाला है (इस बारे में गपशप स्तंभ में ज्यादा जानकारी उपलब्ध है)।
कुल मिलाकर, अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने यात्रा की खबरें वैसी ही दीं जैसी वह थी। उन्होंने न तो प्रधानमंत्री मोदी को मिले सम्मान का जिक्र करने में कोई कसर छोड़ी और ना ही सड़कों पर और सीनेट में हुई तीखी प्रतिक्रियाओं की खबरों की उपेक्षा की। उनके संपादकीय सार्थक और अर्थपूर्ण थे और उनमें आलोचना करने और आशंकाएं व्यक्त करने से कोई परहेज नहीं किया गया। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने राष्ट्रों के तौर पर भारत और अमेरिका तथा भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति में अंतर किया। उनके लिए न भारत मोदी है, और न मोदी भारत है। ठीक वैसे ही जैसे न अमेरिका बाईडन है और न बाईडन अमेरिका है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)