जो जीव जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल पाता है। जब दुष्ट कर्म करने वाले जीव ईश्वर की न्यायरूपी व्यवस्था से दुःखरूप फल पाते, तब रोते हैं और इसी प्रकार ईश्वर उनको रुलाता है, इसलिए परमेश्वर का नाम रुद्र है। सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में स्वामी दयानन्द सरस्वती रूद्र शब्द का अर्थ करते हुए कहते हैं- रुदिर् अश्रुविमोचने- इस धातु से णिच् प्रत्यय होने से रुद्र शब्द सिद्ध होता है। यो रोदयत्यन्यायकारिणो जनान् स रुद्रः अर्थात- जो दुष्ट कर्म करनेहारों को रुलाता है, इससे परमेश्वर का नाम रुद्र है।
शतपथ ब्राह्मण के वचनानुसार जीव जिसका मन से ध्यान करता है, उसको वाणी से बोलता है। जिसको वाणी से बोलता उसको कर्म से करता है। और जिसको कर्म से करता उसी को प्राप्त होता है। इस ब्राह्मण वचन से सिद्ध है कि जो जीव जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल पाता है। जब दुष्ट कर्म करने वाले जीव ईश्वर की न्यायरूपी व्यवस्था से दुःखरूप फल पाते, तब रोते हैं और इसी प्रकार ईश्वर उनको रुलाता है, इसलिए परमेश्वर का नाम रुद्र है। सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में स्वामी दयानन्द सरस्वती रूद्र शब्द का अर्थ करते हुए कहते हैं- रुदिर् अश्रुविमोचने- इस धातु से णिच् प्रत्यय होने से रुद्र शब्द सिद्ध होता है। यो रोदयत्यन्यायकारिणो जनान् स रुद्रः अर्थात- जो दुष्ट कर्म करनेहारों को रुलाता है, इससे परमेश्वर का नाम रुद्र है।
स्वामी दयानन्द सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश के सप्तम समुल्लास में रूद्र देवता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि देवता दिव्य गुणों से युक्त होने के कारण कहाते हैं। जैसे- पृथ्वी, जल, अग्नि आदि। परन्तु इनको कहीं ईश्वर अथवा उपासनीय नहीं माना गया है। जिसमें सब देवता स्थित हैं, वह जानने और उपासना करने योग्य ईश्वर है। परन्तु वैदिक ज्ञान से दूर होने के कारण वर्तमान में लोग देवता शब्द से ईश्वर का ग्रहण करते हैं।
परमेश्वर देवों का देव होने से महादेव इसीलिए कहाता है कि वही सब जगत की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयकर्त्ता, न्यायाधीश, अधिष्ठाता है। वेदों में उल्लिखित त्रयसिंत्रशतिंत्रशता.. की व्याख्या शतपथ ब्राह्मण में करते हुए कहा गया है कि तैंतीस देव अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्र सब सृष्टि के निवास स्थान होने से आठ वसु। प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय और जीवात्मा ये ग्यारह रुद्र इसलिए कहाते हैं कि जब शरीर को छोड़ते हैं, तब रोदन कराने वाले होते हैं। संवत्सर के बारह महीने बारह आदित्य इसलिए हैं कि ये सब की आयु को लेते जाते हैं।
बिजली का नाम इन्द्र इस हेतु से है कि परम ऐश्वर्य का हेतु है। यज्ञ को प्रजापति कहने का कारण यह है कि जिस से वायु, वृष्टि, जल, औषधि की शुद्धि, विद्वानों का सत्कार और नाना प्रकार की शिल्पविद्या से प्रजा का पालन होता है। ये तैंतीस पूर्वोक्त गुणों के योग से देव कहाते हैं। इन का स्वामी और सबसे बड़ा होने से परमात्मा चौंतीसवां उपास्यदेव शतपथ के चौदहवें काण्ड में स्पष्ट लिखा है। पौराणिक मान्यताओं में रूद्र शिव का एक रूप है। मान्यता है कि रूद्र रूप में ही इन्होंने कामदेव को भस्म किया था, उमा और गंगा आदि के साथ विवाह किया था। वर्तमान में इसी रूप में शिव महाशिवरात्रि, शिवमास श्रावण में विशेष कर श्रावण सोमवारों और शिव से सम्बन्धित अन्य पर्वों पर मुख्य रूप से पूजित, आराधित व नमित हैं। पौराणिक ग्रन्थों में विश्वकर्मा के एक पुत्र का नाम भी रूद्र है। प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा का नाम भी रूद्र है। विशेषण रूप में रुद्र भयंकर, डरावना, भयावना, भयानक अर्थ वाला है। क्रंदन करनेवाला है।
वैदिक साहित्य में अग्नि को ही रुद्र कहा गया है। अग्नि को रुद्र के अतिरिक्त असुर मरूतों का गण तथा पुष्टिकारक कहा गया है, जो क्रमशः रूद्र के ईशान मरूत्पिता आदि विशेषणों तथा जल एवं औषधियों से उनके संबंध का परिचायक है। सायन के अनुसार रूद् (दुख) को दूर करने(द्रावण) के कारण ही अग्नि को रूद्र कहते है। इससे स्पष्ट है कि रुद्र के स्वरूप के साथ अग्नि का माध्यमिक अथवा अंतरिक्ष स्थानीय रूप (विद्युत) ही विशेष रूप से सम्बन्ध था। यज्ञ का अनुष्ठान करने के लिए रुद्र ही यज्ञ में प्रवेश करते हैं। वेदों में रुद्र को अग्निरुपी, वृष्टि करनेवाला, गरजनेवाला देवता कहा गया है। रूद्र की इन संज्ञाओं से वज्र का अभिप्राय भी निकलता है। कहीं -कहीं रुद्र शब्द से इंद्र, मित्र, वरुण, पूषण और सोम आदि अनेक देवताओं का भी बोध होता है। रुद्र को मरुदगण का पिता और अंबिका का भ्राता भी कहा गया है।
इनके तीन नेत्र बतलाए गए हैं, और ये सव लोकों का नियंत्रण करने वाले तथा सर्पों का ध्वंस करने वाले कहे गए हैं। ऋग्वेद में रुद्र के शारीरिक हिरण्य के आभूषणों का उल्लेख किया गया है। विद्वानों के अनुसार यह सारे आभूषण स्वर्णकांची विद्युत की परिचायक हैं। रुद्र को दिवो वाराह अर्थात आकाश का शूकर उपाधि दी गई है, जो श्वेत विद्युल्लेखा युक्त काले मेघ का प्रतीकात्मक अभिधान है। विद्युत वराह के दांतो की और कृष्णमेघ उसके शरीर के प्रतीक हैं। अथर्ववेद 1/11/2/18 में रूद्र के भयानक काले रथ को लाल अश्वों द्वारा खींचा जाता हुआ बताया गया है। रूद्र की जटाएँ उनका विष पान एंव नीलकंठत्व का यह रूपक भी बिलकुल इसी प्राकृतिक दृश्य को सूचित करता है। ऋग्वेद में रुद्र के लिए दो स्थानों 1/114/1 तथा 10/102/8 पर प्रयुक्त कपर्दी अर्थात जटाधारी विशेषण अग्नि के धूम से आवृत रुप को सूचित करता है। पूर्णतः प्रज्वलित होने से पूर्व अग्नि की ज्वालाओं के ऊपर आवृत धूम का आवरण एक गौर वर्ण व्यक्ति के सिर की जटाओं के समान ही दृष्टिगोचर होता है।
पौराणिक ग्रन्थों में कपर्दी के अर्थ में रुद्र के लिए धुर्जटि विशेषण भी प्रयुक्त हुआ है। महाभारत अनुशासन पर्व 160/50 में रूद्र को शिव बताया गया है, और अग्नि का साम्य दिखाते हुए धूम्रयुक्त होने के कारण ही शिवरूपी अग्नि को धूर्जटी कहा गया है। वैदिक रूद्र ब्राह्मण ग्रन्थों में रूद्र ही है, जो शिव नहीं है। वैदिक रूद्र को पुराणों और महाकाव्य में ही शिव की उपाधि दी गई है। लेकिन यही वह बीज है, जिस पर पौराणिक ग्रन्थों में शिव के विषपान और तदनन्तर नीलकंठ हो जाने की कथा आधारित है। शुक्ल यजुर्वेद में रुद्र की यही उपाधि वाजसनेयी संहिता 23/13 में असितग्रीव तथा कृष्ण यजुर्वेद तैतिरीय संहिता 16/1/66/8 में नीलग्रीव के रूप में प्राप्त होती है।
श्रीखंड की नीलिमा से अब ग्रीवा की नीलिमा पर आ गया है विशेषण में मूल भाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, क्योंकि वाजसनेयी संहिता 23/13 के प्रस्तुत शब्द की व्यवस्था में शतपथ ब्राह्मण कहता है- अग्निर्वा असितग्रीवः। यह मन्त्र शुक्ल यजुर्वेद संहिता 13/2/7/2 में अंकित है। सायण ने इसे स्पष्ट किया है – अग्निर्वै कृष्णग्रीव धूममश्रित्वात्। उल्लेखनीय है कि पार्श्विक एवं आकाशीय अग्नि (सूर्य) अपेक्षाकृत कम हानिप्रद सिद्ध हो सकते हैं, लेकिन अंतरिक्ष से गिरने वाली तड़ित प्राय में पशुओं और मनुष्य के जीवन के लिए घातक होती है। इससे स्पष्ट है कि रुद्र का विशेष संबंध उसी से था। तड़ित से ही संबंधित होने पर उसे अनिवार्यतया संबंधित तीक्ष्ण हिममय झंझावत वृष्टि तथा मरूतगण से रुद्र का संबंध होना आवश्यक ही था। यही कारण है कि ऋग्वेद 7/46/3 में रुद्र से अपनी विद्युत रूपी हेति या वज्र को अन्यत्र गिराने की प्रार्थना की गई है। रुद्र का अग्नि तथा विद्युत से संबंध महाभारत एवं पुराणों में भी अंकित है।
महाभारत 60/38/46 के अनुसार वैदिक रुद्र देवता के दो घोर तथा शांत मूर्तियां बताई गई है। इनमें से घोर मूर्ति अग्नि विद्युत तथा सूर्य के प्रचंड रूप को सूचित करती है तथा शांत मूर्ति अग्नि सोमात्मक है और इसी कारण पुराणों वह महाकाव्य में इन्हें सदाशिव के नाम से पुकारा गया है।
पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार रुद्र एक प्रकार के गणदेवता हैं। रूद्र की उत्पत्ति सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा की भौहों से हुई थी। ये क्रोध रुप माने जाते हैं। और भूत, प्रेत, पिशाच आदि इन्हीं के उत्पन्न कहे जाते हैं। पुराणों में भी कुल मिलाकर ग्यारह रूद्र हैं, जिनके नाम हैं-अज, एकपाद, अहिव्रघ्न, पिनाकी, अपराजित, त्र्यंबक, महेश्वर, वृषाकपि, शंभु, हरण और ईश्वर। गरुड़ पुराण में इनके नाम इस प्रकार हैं- अजैक पाद अहिव्रध्न, त्वष्टा, विश्वरुपहर, बहुरुप, त्र्यंबक, उपराजित, वृषाकपि, शंभु, कपर्दी और रैवत। कतिपय स्थानों पर इन ग्यारह रुद्रों के नाम इस रूप में अंकित हैं- कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, अहिर्बुध्न्य, शंभु, चंड और भव। ये एकादश रुद्र सुरभी के पुत्र कहलाते हैं। कूर्म पुराण के अनुसार सृष्टि के आरंभ में कठोर तपस्या करने के बाद भी ब्रह्मा जब सृष्टि उत्पन्न करने में समर्थ न हो सके, तो उन्हें बहुत क्रोध हुआ, और उनकी आँखों से आँसू निकलने लगे। ब्रह्मा के उन्हीं आंसुओं से भूत- प्रेतों आदि की सृष्टि हुई।
तत्पश्चात उनके मुख से ग्यारह रुद्र उत्पन्न हुए। ये उत्पन्न होते ही जोर जोर से रोने लगे थे, इसलिए इनका नाम रुद्र पड़ा था। वायु पुराण 21/75 तथा 31/23 में अग्नि को काल रुद्र कहा गया है। अग्नि का ही स्वरूप होने के कारण सूर्य भी काल रुद्र है, क्योंकि वह दिन -रात आदि का नियमन करके प्राणियों की आयु क्षीण करता है। विष्णु पुराण 6/3/24 ६/३/२४ में प्रलय काल में शेषनाग की फुफकारों से उत्पन्न प्राणियों को भस्म कर देने वाली कालाअग्नि के लिए रुद्र की संज्ञा प्रयुक्त की गई है। कुछ भी हो, दुष्टों को दण्ड देके रूलाने वाले रूद्र वर्तमान में सबका कल्याण करने वाले कैलाशाधिपति भोलेनाथ शिव बन सभी देवताओं में सर्वाधिक पूजित व नमित हैं। तो बोलो भोलेनाथ शिव भण्डारी की जय।
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