अमेरिका के प्रसिद्ध अख़बार ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ की पत्रकार सबरीना सिद्दीकी ने प्रधान मंत्री मोदी के अमेरिका दौरे के दौरान उनसे भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति को लेकर सवाल पूछा था। इस सवाल को लेकर मोदी समर्थकों ने उनका ऑनलाइन उत्पीड़न शुरू कर दिया है। इस मामले ने इतना तूल पकड़ा की व्हाइट हाउस को भी उस महिला पत्रकार के समर्थन में बयान जारी करना पड़ा।
एक स्वस्थ लोकतंत्र में मीडिया की अहम भूमिका होती है। समय-समय पर पत्रकार सत्तारूढ़ दल और सरकार से राष्ट्रहित के सवाल पूछते रहते हैं। वहीं सरकार भी समय-समय पर अपनी उपलब्धियों के विषय में प्रेस वार्ता करती रहती है। जब कभी ऐसी प्रेस वार्ता होती है तो सहज व असहज दोनों तरह के सवाल पूछे जाते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से, देश और विदेश में, सवाल पूछने वाले पत्रकारों के साथ जो कुछ भी हुआ है उससे तो यही प्रश्न उठता है कि क्या सरकार से सवाल पूछे जाएँ या न पूछे जाएँ? और पूछे जाएँ तो क्या पूछे जाएँ?
ताज़ा मामला प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी से अमरीका के एक पत्रकार द्वारा पूछा गए सवाल का है जिसके लिये वो मोदी समर्थकों की निंदा का पात्र बनी है। अमेरिका के प्रसिद्ध अख़बार ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ की पत्रकार सबरीना सिद्दीकी ने प्रधान मंत्री मोदी के अमेरिका दौरे के दौरान उनसे भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति को लेकर सवाल पूछा था। इस सवाल को लेकर मोदी समर्थकों ने उनका ऑनलाइन उत्पीड़न शुरू कर दिया है। इस मामले ने इतना तूल पकड़ा की व्हाइट हाउस को भी उस महिला पत्रकार के समर्थन में बयान जारी करना पड़ा और ट्रोल आर्मी की भर्त्सना करनी पड़ी।
यहाँ सवाल उठता है कि क्या किसी पत्रकार को किसी भी देश के प्रधान मंत्री या अन्य राजनेता से सवाल पूछने का हक़ है या नहीं? क्या किसी पत्रकार को अपना काम करने के लिए या प्रश्न पूछने के लिए सरकार से अनुमति लेनी होगी? क्या किसी पत्रकार को सवाल पूछे जाने के बाद नेता या दल के समर्थकों द्वारा ट्रोल होने के डर से, उस नेता से सवाल पूछने से पहले कई बार सोचना होगा?
सबरीना सिद्दीक़ी के अल्पसंख्यक वाले सवाल पर मोदी समर्थकों द्वारा उसके पाकिस्तानी माता-पिता को लेकर सोशल मीडिया में बवाल मचा हुआ है। जबकि यह अलग बात है कि सबरीना का जन्म 1986 में अमरीका में ही हुआ। वह 24 साल की उम्र से ही ब्लूमबर्ग न्यूज, गार्जियन, सीएनएन व अन्य कई जाने-माने मीडिया समूह के साथ काम कर चुकी हैं। व्हाइट हाउस के प्रवक्ता जॉन किर्बी ने सोशल मीडिया में सबरीना के उत्पीड़न को लेकर कहा कि, “हम (सबरीना सिद्दीकी) के उत्पीड़न की रिपोर्ट्स से अवगत हैं। ये स्वीकार्य नहीं है।” उन्होंने आगे कहा कि, “व्हाइट हाउस कहीं भी और किसी भी परिस्थिति में पत्रकारों के साथ होने वाले उत्पीड़न की निंदा करता है।पत्रकारों का उत्पीड़न करना लोकतंत्र के सिद्धांतों के खिलाफ है।”
जहां एक ओर अमेरिका की सरकार है जो पत्रकारों के समर्थन में उतरती है वहीं एक ओर सत्ता के नशे में चूर भारत के कुछ नेता हैं जो एक स्थानीय पत्रकार को सवाल पूछने पर नौकरी से निकलवा देते हैं। क्या यह स्वस्थ लोकतंत्र के लक्षण हैं? आपको याद होगा कि कुछ हफ़्तों पहले अपने संसदीय क्षेत्र के दौरे के समय केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी से जब एक स्थानीय पत्रकार ने एक साधारण सा सवाल किया तो मंत्री जी को इतना बुरा लगा कि उस पत्रकार को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। यहाँ पर सवाल उठता है कि यदि स्मृति ईरानी को पूछे जाने वाला सवाल असहज था तो वे उस सवाल को टाल सकती थीं। या फिर ‘सॉरी नो कमेंट्स’ कह सकती थीं। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया बल्कि खुलेआम उस पत्रकार को धमका दिया और उस मीडिया समूह के मलिक से बात करने तक की बात कह डाली। देश भर के मीडिया सर्किल में इसकी काफ़ी निंदा हुई है।
आज मीडिया हमारे दैनिक जीवन का एक मुख्य हिस्सा है। जहाँ एक ओर मीडिया के लिए लोकतंत्र एक प्राथमिक आवश्यकता है, वहीं यह भी सच है कि मीडिया के बिना लोकतंत्र ठीक उसी तरह है जैसे बिना पहिये की गाड़ी। इसलिए दोनों का एक दूसरे से अटूट संबंध है। परंतु पिछले कुछ सालों से भारतीय मीडिया की प्रताड़ना को लेकर दुनिया भर में सवाल उठने लगे हैं। लोकतंत्र में जनता में जागरूकता लाने की ज़िम्मेदारी मीडिया पर ही है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मज़बूती देने का काम भी मीडिया ही करती है। ऐसा करने से ही विकास की प्रक्रिया को रफ़्तार मिलती है। लोकतंत्र में मीडिया की तीन प्रमुख ज़िम्मेदारियों हैं। पहला, सत्ताधारी दलों पर लगाम रखना, जवाबदेही को बढ़ावा देना, शासन में पारदर्शिता की माँग करना और सार्वजनिक जाँच में सहयोग की अपेक्षा रखना। दूसरा, राजनैतिक बहस के लिए नागरिक मंच उपलब्ध कराना, सूचित चुनावी विकल्प और कार्यों को सुविधाजनक बनाना। तीसरा, नीति निर्माताओं के लिए विषय उपलब्ध कराने हेतु सामाजिक समस्याओं के लिए सरकार की जवाबदेही को बढ़ाना।
परंतु पिछले कुछ सालों से मीडिया को जिस तरह पंगु बनाने की कोशिश की जा रही है क्या वो सही है? क्या लोकतंत्र में मीडिया को अपना काम निडर होकर नहीं करना चाहिए? क्या सत्तारूढ़ दल या सरकार से सवाल करना गुनाह है? क्या अमरीकी पत्रकार सबरीना द्वारा प्रधान मंत्री से सवाल करना ग़लत था? या सवाल के बाद सबरीना का सोशल मीडिया पर उत्पीड़न सही था? जब प्रधान मंत्री दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र के राष्ट्रपति के सामने खड़े होकर गर्व से भारत के लोकतांत्रिक ढाँचे और प्रेस की आज़ादी का दावा करते हैं तो फिर ये सब विवाद क्यों उठते हैं?