राज्य-शहर ई पेपर व्यूज़- विचार

ऑशविट्ज: प्रतीक, मनुष्यों की पशुता का!

Image Source: ANI

यों कई फिल्में बन चुकी हैं, अनेकानेक पुस्तकें और लेख लिखे जा चुके हैं। और हमेशा उस काल की बातें देख-सुनकर दुनिया गहरे दुःख और वितृष्णा का अनुभव करती हैं, उबकाई भी आने लगती है लेकिन होलोकास्ट आधुनिक इतिहास का एक वह अध्याय है जो इतना दर्दनाक, इतना भयावह है कि उसे भुलाना संभव ही नहीं है। उसे याद रखना जरूरी है। होलोकास्ट के दौरान जिन 60 लाख यहूदियों की हत्या की गई थी, उनमें से करीब 10 लाख की जान जर्मनी के कब्जे वाले पौलेंड के एक शिविर में की गई थी। यहां पोलैंडवासियों, रोमा और सिंटी लोगों को भी मौत के घाट उतारा गया था। सोवियत संघ के युद्धबंदियों, समलैंगिक पुरूषों, राजनैतिक बंदियों और अन्यों का भी कत्ल किया गया था। ऑशविट्ज इस बात का प्रतीक है कि मनुष्य पशुओं से भी गिरा-गुज़रा हो सकता है।

27 जनवरी को ऑशविट्ज की मुक्ति की 80वीं वर्षगांठ है। इस बार इसका स्मृति दिवस मनाना और मुश्किल है क्योंकि हम एक नए दौर से गुजर रहे हैं। इसलिए ऑशविट्ज संग्रहालय ने नेताओं के भाषणों पर पाबंदी लगा दी है। विश्व जिस तरह के विवादों और फैसलों से जूझ रहा है, उसके मद्देनजर यह एक सही फैसला है। दुनिया में एक बार फिर यहूदी-विरोधी विचारधारा जोर पकड़ रही है। युद्ध अपराध और मानवता के प्रति अपराध का आरोप लगाते हुए इजरायली प्रधानमंत्री के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया है। इसी के चलते बेंजामिन नेतन्याहू पोलैंड जाने वाले इजरायली प्रतिधिमंडल में शामिल नहीं थे।

इस साल के समारोह से एक और बात का एहसास हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध और होलोकास्ट की यादें धुंधली पड़ती जा रही है। नाजी मृत्यु शिविरों की मुक्ति की स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में वहां जीवित बच पाए लोगों में से केवल 50 शामिल हुए। होलोकास्ट में जीवित बचे लोगों की औसत अनुमानित आयु 86 वर्ष है। हालांकि इनकी संख्या तेजी से कम हो रही है, लेकिन उनकी आपबीती और अनुभव उतने ही महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हैं जितने अतीत में थे। संग्रहालय का यह फैसला इसलिए स्वागतयोग्य था क्योंकि इससे वहां जीवित बचे लोगों की बातों, वे जिन लोगों को अभी भी नहीं भुला सकें हैं, उन पर ध्यान केन्द्रित हुआ – उनके माता-पिता और संतानों पर, उनके मित्रों और प्रेमियों पर जिनका नामोनिशान मिट गया। ‘दुबारा कभी नहीं’ का नारा सबसे पहले 1945 में बुचेनवाल्ड शिविर में जीवित बचे लोगों द्वारा बुलंद किया गया था। गत वर्ष इस नरसंहार में जीवित बची 102 वर्षीय मार्गोट फ्रीडलैंडर की तस्वीर वोग पत्रिका के जर्मन भाषा के संस्करण के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित की गई।

जब हिटलर सत्ता पर काबिज हुआ,तब फ्रीडलैंडर 12 साल की थीं, और जब गेस्टापो 1943 में उनके परिवार को गिरफ्तार करने आई तब वे लगभग 20 साल की थीं। उनकी मां को नाजियों के सबसे बदनाम शिविरों में से एक – ऑशविट्ज में ले जाया गया। जब उनकी तस्वीर पत्रिका के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुई उस समय इजराइल-हमास युद्ध सबसे भयावह दौर में था। फ्रीडलैंडर ने वोग जर्मनी को बताया कि इजराइल-हमास युद्ध के प्रारंभ होने के बाद से उनसे कई युवा यह प्रश्न पूछ चुके हैं कि वे इजराइल का समर्थन करती हैं या फिलिस्तीन का। उनका जवाब होता था कि मैं किसी भी एक पक्ष के साथ नहीं हूं। ‘‘ऐसी बातों पर ध्यान न दें जो लोगों को बांटती हैं,” वे उनसे कहती थीं ‘‘ऐसी बातों पर ध्यान दें जो आपको जोड़ती हैं, आपको साथ लाती हैं”।

लेकिन क्या प्रोपेगेंडा के मौजूदा दौर में एकजुटता संभव है?

ऑशविट्ज संग्रहालय को उम्मीद है कि इस साल के आयोजन से हमें बहुत गहनता से इस बात का एहसास होगा कि मानव नस्ल कितने भयावह कार्य कर सकती है। लेकिन 7 अक्टूबर को हुए हमास के हमले और गाजा में हुए युद्ध से दुनिया भर में यहूदी-विरोधी विचारधारा बहुत प्रबल हुई है और अतिवादी तत्व इसका फायदा उठाकर इस्लामोफोबिया भड़काने का प्रयास कर रहे हैं।

इस मृत्यु शिविर में जीवित बचे प्राइमो लेवी ने लिखा था, “पदों पर काबिज लोगों की संख्या ज्यादा होती है और इसलिए वे दानवों से भी अधिक खतरनाक होते हैं”। अति दक्षिणपंथ सारी दुनिया में तेजी से बढ़ रहा है, उत्कर्ष पर पहुंच रहा है। पिछले हफ्ते दुनिया के सबसे अमीर आदमी एलन मस्क ने अमेरिका में नए राष्ट्रपति के शपथ लेने का जश्न मनाते समय दो ऐसी मुद्राएं बनाईं, जिन्हें व्यापक तौर पर नाजी सलामी की मुद्रा माना जा रहा है। लोकलुभावनवादी नेता फ़ासिस्ट लहजा अपना रहे हैं और जनता उन्हें सुनकर खुश हो रही है। बुद्विजीवियों और पारंपरिक सोच वाले राजनीतिज्ञों के हर समझदारी भरे मगर मुश्किल से अमल में ला जा सकने वाले प्रस्तावों को जनता खारिज कर रही है और बेवकूफी भरी लोकलुभावन बातों को हाथों-हाथ ले रही है। यहूदी-विरोधी विचारधारा कभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई थी। कट्टरता कभी गायब नहीं हुई थी। वो सिर्फ सो गई थी। आज ये दोनों फल-फूल रही हैं।

और इस समय जब इन मृत्यु शिविरों में जीवित बचे लोग आव्हान कर रहे हैं ‘फिर कभी नहीं’ तब हम केवल यह उम्मीद कर सकते हैं कि जो अध्याय अस्सी साल पहले खत्म हो गया था वह कभी दुहराया नहीं जाएगा। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *