दुनिया ने खौफ और हैरानी से युवा प्रदर्शनकारियों को ढाका में शेख मुजीबुर रहमान की विशाल मूर्ति पर चढ़ते देखा। ये नौजवान उस पीढ़ी से थे, जिसे बांग्लादेश को आज़ाद कराने में शेख मुजीबुर रहमान की भूमिका का कुछ अता-पता नहीं था। वे तो केवल उनकी बेटी शेख हसीना की ज्यादतियों का बदला मुजीबुर रहमान के पुतले से लेना चाह रहे थे।
वे उत्तेजित थे, जोर-जोर से चिल्ला रहे थे और उल्लासित थे,। वे बंगबंधु की प्रतिमा को तोड़ने और आज़ादी के संग्राम पर केन्द्रित संग्रहालय को आग के हवाले करने की रील्स बना रहे थे। इसके कुछ ही घंटों पहले उन्होंने शेख हसीना के 15 साल के तानाशाहीपूर्ण शासन को बेरहमी से खत्म किया था। वे संतुष्ट थे, इस बात से प्रसन्न थे कि उन्होंने हसीना को हमेशा हमेशा के लिए देश छोड़कर भागने के लिए मजबूर कर दिया है।
पांच अगस्त की दोपहर को बांग्लादेश में इतिहास दुहराया गया।
बांग्लादेश ने अपना दूसरा मुक्ति दिवस मनाया। एक ऐसी मुक्ति, जो नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद युनुस के अनुसार, 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान से मिली पहली मुक्ति से बड़ी है और जिसे ज्यादा बड़े जश्न की दरकार है।
हालांकि इस देश की आजादी अपनी शुरूआत से ही रक्तरंजित, हिंसक, विभाजक और कलंकित थी क्योंकि इस आजादी से बांग्लादेश गुलामी की जंजीरों से मुक्त नहीं हुआ। बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान, जिन्हें ‘राष्ट्रपिता’ के नाम से जाना जाता है, ने आजादी के कुछ ही साल बाद देश को एकदलीय राष्ट्र बनाने का ताना बाना बनाया था। लेकिन इससे पहले कि वे अपने सपने को सच बना पाते, उनकी हत्या कर दी गई। उसके बाद अराजकता, उथलपुथल, सैन्य शासन और त्रासदियों का दौर रहा। अंततः उनकी पुत्री शेख हसीना देश में वापिस आईं। देश में नाराजगी और तनाव का माहौल था लेकिन तमाम राजनैतिक उथलपुथल के बावजूद बांग्लादेश में मीडिया, पुलिस और अदालतों के जरिए एक हद तक लोकतंत्र कायम रहा। जहां राजनीतिज्ञ एक-दूसरे का गला दबाने पर आमादा थे, वहीं जनता आजादी से सांस ले पा रही थी।
और 2009 में हालात बदलने लगे। शेख हसीना ने सत्ता हासिल की और देश को बदलना शुरू किया। लेकिन बिना अपने पिता के हश्र को याद रखे। वे भी सत्ता पर एकाधिकार के मिशन में जुटी। कह सकते है अपने पिता के देश को एकदलीय राष्ट्र बनाने के अधूरे सपने को वे पूरा करने में जुटी। जैसे-जैसे समय बीतता गया, बांग्लादेश में विपक्ष का उत्पीड़न बढ़ा। बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की नेता खालिदा जिया को घर में नजरबंद करने और फिर रिहा करने के कई दौर चले। उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया जाने लगा, मीडिया पर पाबंदियां लगाई जाने लगीं और पुलिस व अदालतें शेख हसीना की पार्टी की पिछलग्गू बन गईं। भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया और बांग्लादेश, अफगानिस्तान के बाद दक्षिण एशिया का सर्वाधिक भ्रष्ट राष्ट्र कहलाने लगा।
शेख हसीना का पूरे देश पर सख्त नियंत्रण था। मगर इस सारी सख्ती के बीच देश की आर्थिक स्थिति में जबरदस्त सुधार हुआ और इस सफलता के हवाले हसीना की मनमानी और बढ़ी। उन्होने विकास के नाम पर अपनी तानाशाही को जायज बताया। लोकतंत्र को दिखावे का बना दिया। चुनावों में धांधली होने लगी। वे इस तरह बात करती थीं जैसे उनका राज कभी खत्म ही नहीं होगा। आलोचना के प्रति उनका रवैया तिरस्कारपूर्ण रहता था और वे जमीनी सच्चाई से दूर, अपनी ही दुनिया में मगन रहने लगीं। उनकी आलोचना करने वाले हर व्यक्ति को देश का दुश्मन, गद्दार या हमारी भाषा में ‘देशद्रोही‘ घोषित कर दिया जाता था।
उन्होंने विपक्षी बीएनपी पर आरोप लगाया कि वह एक सैन्य शासक द्वारा गैरकानूनी तरीके से स्थापित दल है। उनका यह आरोप भी था कि देश की सबसे बड़ी इस्लामिक पार्टी, जो अतीत में पाकिस्तान समर्थक रही है, के लगभग सभी सदस्य ‘युद्ध अपराधी’ हैं। उन्होंने बांग्लादेश के अर्थशास्त्री, सामाजिक उद्यमी और ग्रामीण बैंक के संस्थापक मोहम्मद युनुस, जिन्हें छोटे कर्जों संबंधी उनके कार्यों के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया, को गरीबों का ‘खून चूसने वाला’ बताया, उन पर गबन का आरोप लगाया और कहा कि वे गद्दार हैं और बंगाल की खाड़ी पर कब्जा करने की अमरीकी साजिशों में उनकी भागीदारी है।
वे जनता को हांकने लगीं, उन्हें सरकार की हर आज्ञा मानने पर मजबूर करने लगीं। और अंत परिणाम था 5 अगस्त को भीड ने शेख हसीना को भगा दिया। जनता प्रधानमंत्री के घर तक पहुंच गई। इतिहास अपने आपको दुहरा रहा था। सेना की बजाए जनता उनके खून की प्यासी थी। इस बार फर्क सिर्फ इतना रहा कि हसीना अपने आपको उनके पिता जैसे अंत से बचाने में सफल रहीं। लेकिन क्या वे वाकई इसमें कामयाब हैं?
हसीना अब कभी बांग्लादेश वापिस नहीं लौट पाएंगीं। न ही उनके परिवारजन कभी उनके देश लौट पाएंगे। उनकी इस धारणा कि उनके साथ नाइंसाफी हुई है और अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण उन्हें राज करने का हक है. वह पूरी खारिज हुई है। वे बांग्लादेश का कंलक बनी है। इसके साथ वे अपने पिता और उनकी स्वयं की विरासत को मिटा चुकी है। उनसे बांग्लादेश का भविष्य खतरे में पड़ा है। देश में अराजकता बनी है।
बांग्लादेश में पुराने दौर अब समाप्त है। एक नए बांग्लादेश का उदय हो रहा है। एक ऐसा बांग्लादेश जो हसीना के खून का प्यासा है, जो इंसाफ चाहता है, एक नई शुरूआत चाहता है। लेकिन जब किसी राष्ट्र में बदलाव की ताकतें नेतृत्वहीन होती हैं तो प्रतिशोध की भावना बहुत जल्दी जोर पकड़ लेती है। 5 तारीख की शाम होते प्रदर्शनकारियों के समूह ने अवामी लीग के मंत्रियों और पार्टी पदाधिकारियों के घरों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। जेल से रिहा हो रहे विपक्षी नेताओं और इस्लामिक कट्टरपंथियों की आंखों में इंतकाम की आग साफ दिखलाई दे रही है।
इस सबसे भारत के लिए समस्याएं उत्पन्न होंगीं। सन् 1970 में भी अल्पसंख्यक समूह होने के कारण हिन्दुओं को हमलों और देश से भागने पर मजबूर किए जाने का सामना करना पड़ा था। तब भारत और इंदिरा गांधी उनकी मदद के लिए आगे आए थे। बांग्लादेश बना और इंदिरा गांधी घर-घर में लोकप्रिय हुई। लेकिन जल्दी ही, 1975 में, इंदिरा गांधी ने भी शेख मुजीबुर रहमान के रास्ते पर चलते हुए भारत में आपातकाल लागू किया। बांग्लादेश से एक बार फिर इतिहास, वर्तमान में घुसपैठ कर रहा है। हिंदू अल्पसंख्यकों के घरों और मंदिरों पर हमले तेज होने की खबरें हैं। और भारत और नरेंद्र मोदी सरकार इस नयी आज़ादी के निशाने पर हैं। बांग्लादेशियों का स्पष्ट मत है कि भारत ने शेख हसीना का पूरी तरह से समर्थन किया। और वे भारत और बांग्लादेश के हिंदू नागरिकों के बीच कोई अंतर नहीं कर रहे हैं। मोदी और उनके सहायक – डोवाल और जयशंकर – इन हालातों को और बिगड़ने से कैसे रोकते हैं और कैसे काबू में लाते हैं, जिनका बिगड़ना अवश्यंभावी है – यह देखा जाना बाकी है।
ऐसा महसूस हो रहा है कि सब कुछ दुबारा घटित हो रहा है। सन 1970 और उसके बाद के समय की यादें ताजा हो गई हैं। बांग्लादेश में इतिहास दुहराए जाने के लिए तैयार है। जैसा कि लियो टॉलस्टॉय ने कहा था, इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है – पहले एक त्रासदी के रूप में और दूसरी बार एक प्रहसन के रूप में। मगर यहाँ तो प्रहसन भी त्रासदी बनता जा रहा है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)