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जो बीता उसे अमेरिका व वियतनाम दोनों ने भुलाया!

जो बाइडन नए रिश्ते बनाने में लगे हुए हैं। इसलिए क्योंकि वे अपने कार्यकाल के उस दौर में हैं जिसमें वैश्विक मुद्दे ज्यादा महत्वपूर्ण बन गए हैं। हाल के महीनों में उन्होंने आस्ट्रेलिया, भारत और फिलिपींस के साथ सहयोग बढ़ाया है और वे कैम्प डेविड में जापान और दक्षिण कोरिया के नेताओं को एकसाथ बिठाकर त्रिपक्षीय-समझौता करवाने में सफल रहे है, जो वाशिंगटन अब तक नहीं कर पाया था।  इसी अभियान के तहत अमरीकी राष्ट्रपति जी-20 के सफल और कम चुनौतीपूर्ण सम्मेलन में भाग लेने के बाद वियतनाम के लिए उड़ गए। वे दिल्ली छोड़ने वाले पहले विश्व नेता थे।

बाइडन ऐसे पांचवे अमरीकी राष्ट्रपति हैं जो एक समय अमरीका के प्रबल शत्रु रहे वियतनाम गए। जो बीत गया उसे भुलाना अमेरिका के लिए जरूरी है ताकि आज की चिंता को दूर हो सके। और आज की चिंता क्या है? चीन की एसिया-प्रशांत क्षेत्र में बढ़ती महत्वाकांक्षाएं।

निःसंदेह अमेरिका की तुलना में वियतनाम की कही ज्यादा समानता, याराना रूस और चीन से है। वह चीन की छत्रछाया में समृद्ध हुआ है। युद्ध के बाद अलग-थलग पड़े वियतनाम के इंफ्रास्ट्रक्तर के पुनर्निर्माण, सड़कें और जलमार्ग तैयार करने और कृषि के क्षेत्र में विकास में चीन ने बहुत मदद की। यही कारण है कि कुछ साल पहले तक बहुत से वियतनामी चीन को अमेरिका की तुलना में अपने ज्यादा निकट पाते थे। लेकिन अब वियतनाम आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से काफी विकसित है। साथ ही वह रणनीतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण बन गया है। ऐसा माना जाता है कि ताईवान के बाद संभवतः वियतनाम ही वह देश है जिसे मार्क्सवाद से दूर हटते चीन से सबसे ज्यादा खतरा है। बीजिंग लगभग पूरे दक्षिण चीन सागर पर अपनी सार्वभौमिकता का दावा करता है, जिनमें वियतनाम के नियंत्रण वाले वे द्वीप भी शामिल हैं जिन्हें वियतनाम अपना मानता है। इसके साथ ही वियतनाम के लगभग पूरे एक्सक्लूसिव इकनोमिक जोन पर चीन की नज़र है। इससे वियतनाम के मछुआरों और ऑफशोर गैस व तेल उत्पादन क्षेत्रों के साथ-साथ ही उसकी आजादी और भूमि को भी खतरा है। यही कारण है कि वियतनाम को अमेरिका से रिश्ते बेहतर करने की जरूरत महसूस हो रही है।

लगभग एक दशक से दोनों देशों के संबंधों को ‘व्यापक साझेदारी’ कहकर परिभाषित किया जाता रहा है। लेकिन जो बाइडन तथा वियतनाम की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव गुयेन फुन ट्रिंग की मुलाकात के साथ दोनों देश द्विपक्षीय संबंधों को वियतनाम के सर्वोच्च कूटनीतिक पायदान पर पहुंचा बतला रहे है। यह दर्जा अभी तक केवल चीन, रूस, भारत व दक्षिण कोरिया के साथ था। अब अमेरिका को भी  वियतनाम ने अपना “व्यापक रणनीतिक साझेदार” घोषित किया है। जाहिर है यह दोनों देशों के लिए फायदे का सौदा है।

जो बाइडन हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के प्रभुत्व को चुनौती देने के प्रति दृढ़ संकल्पित हैं और वियतनाम को दक्षिण चीन सागर में चीन के विस्तारवाद के मुकाबले में सहयोग एवं संरक्षण की जरूरत है। हालांकि वियतनाम दक्षिण पूर्व एशिया के उन चन्द देशों में से एक है जिन्होंने चीन की दादागिरी का विरोध किया है। अब वह चीन से थोड़ी ज्यादा दूरी रखना चाहता है। वह अपने मन की करने की अधिक आज़ादी भी मांग रहा है। बाइडन प्रशासन के अधिकारियों की यह अपेक्षा नहीं है कि वियतनाम चीन से सहयोग पूरी तरह समाप्त कर दे किंतु वे अमेरिका के रूप में भविष्य में उसे एक विकल्प उपलब्ध करवाना चाहते हैं।

यह सब चीन को रास नहीं आ रहा है। बाइडन की यात्रा के कुछ दिन पहले चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग ने अमेरिका से कहा था कि वह एशियाई देशों के संबंध में “शीतयुद्ध के समय की और जीरो सम गेम (केवल एक पक्ष के लिए फायदेमंद सौदा) की मानसिकता त्यागे। उन्होंने जोर देकर कहा कि वाशिंगटन “अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के मूलभूत मानदंडों का पालन करे”। किंतु राष्ट्रपति बाइडन ने किसी भी प्रकार का शत्रुतापूर्ण रवैया न होने का दावा किया और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में नए शीत युद्ध की संभावनाओं को खारिज कर दिया। उन्होंने कहाँ, “मेरा चीन की राह में रोड़े डालने का कोई इरादा नहीं है। मैं केवल यह सुनिश्चित करना चाहता हूं कि चीन से हमारे संबंध ईमानदारी पर आधारित हों और सबको यह पता रहे कि क्या हो रहा है।”

बाइडन के साथ हुए नए समझौते के बावजूद चीन वियतनाम का सबसे बड़ा साझेदार देश बना रहेगा। चीन ने साफ संकेत दिए हैं कि उसका पीछे हटकर अमेरिका को अपनी स्थिति मजबूत करने का मौका देने का कोई इरादा नहीं है। इसी तरह बाइडन प्रशासन को यह डर भी है कि  वियतनाम रूस के निकट बना रहेगा, जो सोवियत संघ के काल से उसका ऐतिहासिक संरक्षक रहा है। वियतनाम की सेना के ज्यादातर हथियार और अन्य सामग्री रूसी है, और उसके पास हथियार, अन्य सामग्री और कलपुर्जे मास्को से खरीदने के अलावा ज्यादा विकल्प भी नहीं हैं। लेकिन वियतनाम धीरे-धीरे रूस पर निर्भरता कम करने की कोशिश में है। और बाइडन की यात्रा के बाद अमेरिका एफ-16 लड़ाकू विमान और सैन्य रडारें वियतनाम को बेचने का फैसला कर सकता है, हनोई जिन्हें पाने की आकांक्षा रखता है।

बावजूद इस सबके जो बाइडन की वियतनाम की ऐतिहासिक यात्रा से सभी लोग खुश नहीं हैं। अमेरिका में आलोचक उन पर ऐसी सरकार के साथ हाथ मिलाने का आरोप लगा रहे हैं जिसका रिकार्ड मानवाधिकारों के मामले में बहुत खराब है। वियतनाम दक्षिण पूर्व एशिया के सबसे तानाशाहीपूर्ण रवैये वाले देशों में से एक बना हुआ है। गुयेन फुन ट्रिंग की सरकार ने हाल के वर्षों में असहमति और विरोध को सख्ती से दबाने का अभियान छेड़ा है। लेकिन नैतिकता का राजनीति से कोई वास्ता नहीं होता और  अभी अमेरिका हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बोलबाले का मुकाबला करने के लिए दृढ़ संकल्पित है। वियतनाम दोनों महाशक्तियों के बीच चल रहे इस बड़े मुकाबले में एक प्यादा भर है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

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By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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