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‘रील’ में लिपटे, फंसे नौजवान!

Image Source: ANI

content creator Reels: कल शाम मैं दिल्ली के वसंत विहार में थी। यह इलाका राजधानी का फैशनेबुल हिस्सा है।

हालांकि कुछ साल पहले इसकी रौनक में तब बहुत कमी आई जब प्रिया सिनेमाघर को ढहा दिया और यह जगह आवारा कुत्तों और ड्रग्स के प्रेमियों का अड्डा बनी।

लेकिन वापिस रौनक लौट आई है। सिनेमाघर दुबारा बन गया और पुराना, सुनहरा, शानदार दौर लौट आया है।

वसंत विहार में सभी तरह के रेस्टोरेंट और कॉकटेल बार हैं, जहां नए जमाने के वीगन्स से लेकर सबकी पसंद की चीजें मिलती हैं।

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साल का कोई भी समय हो, उत्सवी माहौल रहता है। मेरे लिए, जो 1990 के दशक में स्कूल में थी, इस जगह का महत्व इसलिए है

क्योंकि इससे मेरी यादें और जिंदगी के अहम लम्हे जुड़े हुए हैं लेकिन में वसंत विहार से जुड़ी यादों पर नहीं बल्कि जगह के बदलते चरित्र के बारे में है।

मैं कल शाम जब अपनी पसंदीदा रेस्टोरेंट में पहुंची तो मैंने वहां युवा लड़कों और लड़कियों को देखा जिनके साथ  कैमरामेन और लाईट मेन की भूमिका निभाने वाला एक-एक व्यक्ति था।

और वे विभिन्न भावभंगिमा में विवाह का प्रस्ताव रखते, नाचते-गाते, प्रहसन करते हुए वीडियो बना रहे थे।

मुझे वहां हर कोने पर लोग मौज-मस्ती में मगन नजर आए। बीच-बीच में मुझे कई बार रूकना पड़ा ताकि मैं कैमरों और कलाकारों के बीच न आ जाऊं!

संत विहार तो रील विहार

यह पूरा दृश्य देखकर आशीष की टिप्पणी थी कि वसंत विहार तो ‘रील विहार’ बन गया है। वहां रेस्टोरेंट चलाने वाली मेरी एक मित्र इस नामकरण से सहमत दिखीं।

उन्हें अपना ज्यादा समय रेस्टोरेंट के बाहर उसके प्रवेश द्वार की निगरानी करते हुए इन लोगों से दूर चले जाने की गुजारिश करते हुए गुजारना पड़ता है ताकि उनकी वजह से उनके ग्राहकों को परेशानी न हो।

उन्होंने शिकायती लहजे में कहा, “वे रेस्टोरेंट की खिड़की के एकदम नजदीक लगी बड़ी-बड़ी सफेद लाईटों का इस्तेमाल करते हैं।

या फिर वे बाहर लगी बेंच पर बैठकर अपने नए प्रहसन की योजना बनाते हैं या उसका वीडियो बनाते हैं। यह सब हर दिन, पूरे दिन जारी रहता है। इसमें कोई ब्रेक नहीं होता।”

मैंने बाजार में घूमते समय देखा कि छोटे बच्चे रूककर रील बनाने की प्रक्रिया को ध्यान से देख रहे थे।

विस्मित, मंत्रमुग्ध और उत्साह(content creator Reels)

वे विस्मित, मंत्रमुग्ध और उत्साह से लबरेज थे, भले ही उनके अभिभावको खीझ रहे हों।

कई बुजुर्ग छोटे कपड़े पहने लड़कियां और खुलेआम हरकतें कर रहे लड़कों को देखकर चिढ़ रहे थे। वहीं कुछ लोगों के चेहरे पर हैरानी साफ नजर आ रही थी।

दो साल पहले गोवा के निवासी भी इन कंटेट क्रियेटर्स और उनके कामों से खफा थे।

साओ टोमे और फोटाइन्हेज, जो गोवा की राजधानी के सबसे पुराने हिस्से हैं, के निवासियों ने अपनी निजता में खलल पड़ने की शिकायत की थी और इसलिए उन्होंने अपने घरों और प्रतिष्ठानों के सामने “नो फोटोग्राफी, नो वीडियोग्राफी” के बोर्ड लगा दिए थे।

लेकिन जिस बात से वे सबसे ज्यादा नाराज थे वह थी इन लोगों की उदासीनता। “उनकी इस इलाके के बारे में जानने में कोई दिलचस्पी नहीं है। उ इस जगह के इतिहास और वास्तुकला में कोई दिलचस्पी नहीं है,” यह थी उनकी शिकायत।

दरअसल कंटेट क्रियेक्टर और इन्फ्युलेंजर होना एक बड़ा व्यवसाय बन गया है।(content creator Reels)

फोटोग्राफी व वीडियोग्राफी न करने की हिदायतों के बावजूद गोवा में इन स्थानों पर इन लोगों का जमघट लगा रहता है और इस इलाके से हर कुछ मिनटों में रीलें अपलोड होती रहती हैं।

अमरीकी भी इन्फ्यूलेंसर

मुझे सोशल मीडिया पर हर जगह, अपने को बेहतर बनाने की सलाहों और उसमें मददगार उत्पादों का विवरण नजर आता है – आपकी स्किन को बेहतर बनाने वाले उत्पाद, आपके स्वास्थ्य को बेहतर बनाने वाले उत्पाद, कपड़े और बैग, छुट्टियां मनाने के स्थानों की जानकारी और लगभग असंभव दावे।

आप अपने नयन-नक्श कैसे और तीखे बना सकते हैं, आप अपने में जोश कैसे भर सकते हैं, आप घड़ी को उल्टा घुमा कर कैसे और जवान दिख सकते हैं आदि, आदि।

यदि आप एक किसी युवा से पूछें कि वे जिंदगी में क्या करना चाहता है  तो तपाक से जवाब आता है – कंटेन्ट क्रियेटर बनना जिससे दौलत और ऑनलाइन शौहरत दोनों हासिल हो सकती हैं।

हाल में न्यूयार्क टाईम्स में प्रकाशित एक लेख में दावा किया गया है कि अब अमरीकी भी इन्फ्यूलेंसर बनने का सपना देखते हैं।

“जबरदस्त आर्थिक असमानता के इस दौर ने एक नए सपने को जन्म दिया है (शायद यही वजह है कि करीब एक-तिहाई बच्चे जो किशोरावस्था की कगार पर हैं, कहते हैं कि इन्फ्यूलेंसर के रूप में कैरियर बनाना उनका लक्ष्य है)।”

लेखक कहते हैं कि कंपनियों ने भी अपने मार्केटिंग बजट में इन्फयूलेंसर्स का हिस्सा बढ़ा दिया है। उन्हें इस बात का एहसास हो गया है कि इन्फ्यूलेंसर्स ग्राहकों के चीजों खरीदने के फैसलों पर काफी प्रभाव डालते हैं।

लोगों का लक्ष्य कंटेट क्रियेटर(content creator Reels)

भारत में भी शहरों और कस्बों में रहने वाले लोगों का लक्ष्य कंटेट क्रियेटर बनना हो गया है।

भारत में 80 करोड़ से अधिक लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं और इंस्टाग्राम और यूटयूब में भारतीयों की भागीदारी दुनिया में सबसे ज्यादा है।

इसलिए शीर्षस्थ इंन्फ्यूलेंसर्स को पटाने में कंपनियों से लेकर सेलिब्रिटीज तक सब जुटे हुए हैं। वे पत्रकारों और मार्केटिंग एजेंसीज को नहीं वरन सोशल मीडिया इन्फ्यूलेंसर्स को ज्यादा तव्वजो देते हैं ।

जैसे पिछले चुनावों के दौरान नेताओं ने पत्रकारों को कम और सोशल मीडिया इन्फ्यूलेंसर्स को ज्यादा इंटरव्यू दिए।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की भाजपा ने सैकड़ों ऐसे सोशल मीडिया इन्फ्यूलेंसर्स को अपने साथ जोड़ा, जिनका इंस्टाग्राम या यूटयूब पर बड़ा दर्शक वर्ग था।(content creator Reels)

यहां तक कि सरकार ने सोशल मीडिया इन्फ्यूलेंसर्स की प्रतिभा को सम्मानित करने के लिए ‘नेशनल क्रियेटर एवार्ड’ की स्थापना की पहल की। वहीं उत्तर प्रदेश सरकार ने इन्फ्यूलेंसर्स को 8 लाख रूपये प्रतिमाह देना प्रस्तावित किया है।

कंटेट क्रियेटर होना काफी फायदेमंद

आज के दौर में कंटेट क्रियेटर होना काफी फायदेमंद है। पर यह उतना ही चुनौतीपूर्ण भी है। एक समाचार माध्यम के रूप में हमारा सीधा मुकाबला दूसरे समाचार माध्यमों से नहीं बल्कि कंटेट क्रियेटर्स से है।

एक आर्कषक यूटयूब वीडियो या इंस्टाग्राम रील तैयार करना और उसके ज़रिये खबर पेश करना कठिन काम है। आपको हमेशा सृजनात्मक बने रहना होता है।

आज दबाव एक खबर देने की नहीं बल्कि एक चटपटी और उत्तेजक (विचारोत्तेजक नहीं) खबर देने का है।

इसलिए वसंत विहार के बाजार में अपना पूरा दिन बिताने वाले सभी युवा लड़कों और लड़कियों के बारे में मेरा विचार यह है कि उन्हें कठिन और गलाकाटू प्रतिस्पर्धा का सामना करना होगा।

उनमें से बहुत से सफल नहीं हो सकेंगे, या कम से कम उतने सफल नहीं जितनी उम्मीद वे कर रहे हैं। लेकिन उनमें रील्स बनाने के अलावा कुछ और करने की क्षमता नहीं है।

शायद उन्हें रील बनाना, पढ़ने-लिखने और परीक्षा की तैयारी करने से ज्यादा आसान लगता है।

उन्हें लगता है कि जब सरकार उन्हें 8 लाख रूपये देने की पेशकश कर रही है तो उन्हें किताबों को रटने और ताज़ी हवा से महरूम कमरों में खटने की क्या ज़रुरत है।

इन्फयूलेंसर्स ने सामाजिक संस्कृति बदल दी

लेकिन यदि हम लंबी अवधि की बात करें तो पेशे के रूप में सोशल मीडिया पर अतिनिर्भरता सामाजिक संस्कृति के लिए हानिकारक होगी।

इसके दुष्प्रभाव अभी से नजर आने लगे हैं। इन्फयूलेंसर्स ने सामाजिक संस्कृति बदल दी है। वे समाज के पारंपरिक सत्ताधारियों को चुनौती दे रहे हैं।

लेकिन इन्फ्यूलेंसर्स कब तक इस मुकाबले में सबसे आगे रह सकेंगे यह कहना मुश्किल है। भीड़ बहुत ज्यादा है, और सफलता की सम्भावना बहुत कम है।

विशेषज्ञों का अनुमान है कि 2026 तक एआई की मदद से तैयार होने वाली आनलाइन सामग्री का अनुपात कुल उपलब्ध सामग्री का 90 प्रतिशत तक हो सकती है।

कोई भी इन्फ्यूलेंसर, भले ही उसमें इंटरनेट के जरिए यश और धन हासिल करने की कितनी ही काबिलियत क्यों न हो, इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हो सकता वह तकनीकी बदलाव के अगले दौर में भी अपनी स्थिति कायम रख सकेगा।

तब तक आप कंटेन्ट क्रियेटर्स पर झल्ला सकते हैं या दूर से इसका आनंद ले सकते हैं।

लेकिन सड़क पार करने के पहले दाएं और बाएं देखना कभी न भूलें क्योंकि यदि आप यह नहीं करेंगे तो हो सकता है कि आप भी किसी रील का हिस्सा बन जाएँ! (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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