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उम्मीद कभी मरती नहीं है!

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देश के निराशाजनक माहौल और दुनिया जिस दिशा में जा रही है, उसके बारे में सोचने से बेहतर हम या तो उसे नजरअंदाज करना सीख लें या कहीं से रोशनी की एक किरण ढूंढ निकालें।

जीवन उम्मीदों से भरा होता है। इसलिए 2025 भी आशा से भरा हुआ है। पर क्या वाकई कुछ होगा?

आज से दस साल पहले भारत के सीने में उम्मीदों का ज्वार था। वे उम्मीदें जो सच्ची और सहज जान पडती थीं। पिछले साल इन उम्मीदों का इम्तिहान था। नींद में गाफिल जनता जागी और सबने एक-दूसरे से पूछा, “क्या अब भी कोई उम्मीद बाकी है?” इस सवाल का मिलाजुला जवाब मिला। नतीजा यह कि उम्मीद कम जरूर हुई, मगर एक हद तक कायम रही। उम्मीद से कहा गया, बनी रहो पर तुम्हें अपने को पूरा करने के लिए मन लगाकर, मेहनत से काम करना होगा। वर्ना, समझ लेना। निराशा में डूबे लोगों की यह उम्मीद बरकरार रही कि वो सुबह कभी तो आएगी जब उनके अरमान पूरे होंगे।

इस इम्तेहान के छह महीने बाद, 2024 के समाप्त होते-होते तक, उम्मीद पाले बैठे लोगों – जो सभी तरह के थे, अलग-अलग वर्गों से थे – की सोच कुछ बदल सी गई। मौसम ने अंगड़ाई ली। उम्मीदों पर सवालिया निशान लगाने वाला माहौल जाता रहा। बादशाह का चेहरा ही बदलाव का वायदा बन गया। और एक बार फिर यह साफ हो गया कि उम्मीद क्या नहीं होती। वह यह विश्वास नहीं होती कि सब कुछ ठीक था, ठीक है या ठीक हो जाएगा।

उम्मीदें, अनिश्चितता की कोख से जन्म लेती हैं। एक दशक पहले, भारत अनजान और अनिश्चित हालातों के बीच झूल रहा था। तब उसके लिए उम्मीद का मतलब था अनजान और अज्ञात का आलिंगन। आज मेरे आसपास के लोगों में से शायद ही किसी को ऐसा लगता हो कि वे अनिश्चितता और अनजान हालातों के दौर से गुजर रहे हैं। कहने की ज़रुरत नहीं कि इस अर्थ में हम किस्मत वाले हैं कि हम जंग के मैदान के बीचों-बीच नहीं रह रहे हैं। हम ऐसी जगह नहीं रह रहे हैं जहाँ खाने के लिए दाना नहीं है और पीने के लिए पानी की एक बूँद नहीं है। हमें ऐसी जगहों के बारे में खबरें पढ़ने को मिलती हैं या टीवी स्क्रीनों पर मुसीबतजादा लोग दिखलाई देते  हैं।

हमारे अपने दिन और रातें अधिक स्याह और धुंध भरे होते जा रहे हैं। रोजमर्रा की जिंदगी में छोटी-मोटी दिक्कतों का सामना हमें करना पड़ता है। हर ट्वीट के साथ रिश्तों में दरारें पड़ रही हैं, तनाव बढ़ रहा है। हर लाइक हमें सोशल मीडिया के ब्रह्माण्ड के उस बुलबुले की ओर धकेल रही हैं जिसमें सिर्फ हम जैसे लोग होते हैं। वैश्विक स्तर पर हम युद्धों का अँधेरा देख रहे हैं,  नालायक लोगों की सत्ता में वापसी देख रहे हैं, मासूम लोगों पर गोलीबारी देख रहे हैं और शरणार्थियों की बढ़ती संख्या देख रहे हैं। हालांकि जहां देखो वहीं मायूसी है, लेकिन इसके बावजूद उम्मीदें कायम हैं।

मैंने सोचा था कि मैं नए साल के अपने पहले लेख में घटती और खत्म होती उम्मीदों के बारे में नहीं लिखूंगी। और इसलिए, हालांकि इस लेख की शुरूआत उदासी भरी है, लेकिन शेष लेख ऐसा नहीं है।

मैंने ठाना है कि मै निराशा से दूर रहने की कोशिश करूंगी। देश के निराशाजनक माहौल और दुनिया जिस दिशा में जा रही है, उसके बारे में सोचते रहना मुझे और आपको बर्बाद कर देगा। इससे बचने का एक ही तरीका है  – हम या तो उसे नजरअंदाज करना सीख लें या कहीं से रोशनी की एक किरण ढूंढ निकालें।

नए साल के इन थोड़े से दिनों में मैंने रोशनी की किरण ढूंढने की कोशिश की। धुंध और कोहरे भरी सुबहों में मैंने सूरज की रोशनी की तलाश की। मुझे ये पंक्तियां लिखते समय ठंडी हवा के झोकों से बज रही विंड चाइम की आवाज सुनाई दे रही है। मैं जानबूझकर अपनी बस्ती के बाहर की गडढ़ों भरी सड़क और हमारे नेताओं की नीरस, चुभती हुई और नफरत भरी बातों  की शिकायत करने से बच रही हूं। मैं सफेद संगमरमर से बनी हाथियों की उन मूर्तियों को नजरअंदाज कर रही हूं, जिनके बारे में कहा जाता है कि उनमें से हर एक पर 60,000 रूपये खर्च  हुए हैं, और जिन्हें एक नौकरशाह ने अपने घर के बाहर की सड़क पर इसलिए लगवाया है क्योंकि उसे यह समझ नहीं आ रहा था कि वह अपना काला धन कहां खर्च करे। मैं सरकार से उस पाखंड की भी अनदेखी कर रही हूं जो भद्दे ढांचे और सड़कें बनाती जा रही है। जबकि मुझे और आपको अपने घर में जरूरी मरम्मत करवाने के लिए मार्च का इंतजार करना पड़ रहा है। और मैं इटालो कैलवीनो की “इफ ऑन ए विंटर्स नाईट ए ट्रैवलर” पढ़ रही हूँ ताकि मैं उसके घुमावदार कथानक की परतों में इतनी खो जाऊं कि असली दुनिया धुंधला जाए।

इस दशक के इस हिस्से में मुझे यह समझ आ गया है कि उम्मीद वह नहीं है जो कुछ बेहतर नजर आने पर आपमें जागती है। बल्कि चूँकि आपने आशान्वित होने का फैसला कर लिया है, इसलिए आपको कुछ बेहतर नजर आने लगता है। और हालांकि यह मेरा काम है कि मैं हर कोण से उम्मीदों की जांच-पड़ताल करूं, उन पर सवाल उठाऊँ, उनकी आलोचना और चर्चा करूं, लेकिन इस साल उम्मीदों को देखने का मेरा अंदाज अलग होगा।

मैं आम और रोजमर्रा की बातों में उम्मीदें तलाशूंगी। और इससे आहे बढ़कर मैं सोते हुए हाथी यानि जनता से उम्मीद बांधूगीं – जो 2024 की गर्मियों में कुछ समय के लिए जागी थी। क्योंकि जब वह जागेगी, जब हम जागेंगे, तब हम केवल जनता नहीं होंगे, बल्कि हम नागरिक समाज होंगे, वह महाशक्ति, जिसके अहिंसक साधन कई चमकीले दौरों में हिंसा और लोकलुभावन सत्ताओं से अधिक ताकतवर हो जाते हैं।

मुझे उम्मीद है कि 2025 की आपकी शुरूआत अच्छी रही होगी और मुझे भरोसा है कि हम सब मिलकर अपने अंदर उम्मीद की तलाश करते हुए भी, कहीं और उम्मीद ढूंढ पाएंगें। क्योंकि मैंने कहीं पढा था कि “हालाँकि उम्मीद कभी मरती नहीं है मगर उसके फलने-फूलने के लिए यह ज़रूरी है कि उसे साझा किया जाए।”

(कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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