आपके पास दो विकल्प हैं – या तो आप स्वयं एक लकीर खींच लीजिये और यह तय कर लीजिये की आप उसे पार नहीं करेंगे और या फिर अपनी बर्बादी का मंजर देखने के लिए तैयार रहिये। राष्ट्रवाद, आज़ादी की सीमा तय कर रहा है। राष्ट्रवाद, प्रजातंत्र और बोलने की आज़ादी का गला घोंट रहा है। आज़ादी के 78वें साल में आप बोल तो सकते हैं, मगर डरते-डरते। आप आसमान में उड़ तो सकते हैं, मगर शाम ढले पिंजरे में लौटने के लिए।… आज जिस आकाश में तिरंगा लहराएगा वह धूसर होगा और उसमें एक सफ़ेद कबूतरी उड़ रही होगी – पिंजरे में वापस जाने के लिए शापित।
मैं हर सुबह, उसे ऊंची उड़ान भरते देखती हूं। वह काले कबूतरों में मन छूती सफेदी थी। और आकाश जब साफ़ व नीला होता था, तो वह चमचमाती थी, जगमगाती थी। उसके पंख उसे ऊपर, और ऊपर ले जाते थे। लेकिन तभी वह एकाएक, गुलाटियां खाते हुए मेरे पड़ोसी की विशाल छत पर फैले दाने चुगने के लिए झपट्टा मारती थी! ओह! धूसर आकाश से उतरती वह सफ़ेद कबूतरी। केवल अल सुबह वह दिखती थी। जल्दी ही मुझे समझ आया कि अरे, यह तो पिंजरे का पंछी है। उसे केवल सुबह-सुबह आज़ादी मिलती है और फिर पूरे दिन के लिए वापिस पिंजरे में! मगर हां, वह जब भी आजाद हो ऊंची उड़ती हुई आकाश में गोते लगाती है, नाचती है तो उसे देखना आंखों को ख़ुशी से सराबोर कर देता है। मगर फिर अचानक…उसके बाद क्या?
आज़ादी! इस शब्द को हम बहुत हल्के में लेते हैं। हम इसकी अहमियत तब तक नहीं समझ पाते जब तक वह हमसे छीन नहीं ली जाती। हमें-आपको, पक्षियों को भी आज़ादी का अहसास केवल खुले आसमान में होता है, पिंजरे में या जंजीरों में बंध कर नहीं। स्वतंत्रता हमें अपना सिर ऊपर उठा कर जीने देती है, वह हमें अपने लिए सोचने देती है। तभी आज़ादी हर एक के लिए अमृत है, संजीवनी है।
हम भारतीय जानते हैं कि गुलामी में जीना क्या होता है? हम जानते हैं कि पिंजरा कैसा होता है, कैद कैसी होती है। हम जानते हैं कि खुले आकाश में उड़ना कैसा होता है। हम जानते हैं कि आधी रात को हमें जो आज़ादी हासिल हुई उसके पीछे न जाने कितने सालों, कितने दशकों का संघर्ष था, लड़ाई थी और कुर्बानियां थीं।
सन 1947 के 15 अगस्त की सुबह हमने आज़ादी का स्वाद चखा, आसमान में उड़ने के आल्हाद का अनुभव किया। हम झूमे, हम नाचे। तब अरमान हमारे पंख बन गए। और आज हम अपनी उस आज़ादी की 78वीं वर्षगांठ मना रहे हैं।
यह जश्न मनाने का समय तो है ही, पर साथ ही सोचने-विचारने का समय भी है। क्या हम वाकई आजाद हैं? या फिर हम धूसर आकाश में केवल अलसुबह उड़ने वाली कबूतरी हैं? क्या भारत को वह आज़ादी हासिल है जिसकी कल्पना हमनें 15 अगस्त 1947 को की थी? क्या हमारा प्रजातंत्र हमें सचमुच की स्वतंत्रता देते हुए हैं? आज़ादी के 78वें साल में भारत के नागरिक आखिर कितने आजाद है?
आज़ादी के बाद से कभी भी भारत के लोगों ने भरपूर आजादी कभी अनुभव नहीं की। बीच-बीच में कई तूफ़ान आये, कई चुनौतियाँ आईं। मगर आज़ादी उतनी अधूरी, उतनी लंगड़ी कभी नहीं थी जितनी वह पिछले दस सालों से है। और यह सच्चाई है भले कितनी ही कड़वी लगे।
अगर हम वैश्विक मानदंडों की बात करें तो आज के भारत को केवल आंशिक रूप से आजाद कहा जा सकता है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि हमारे प्रजातान्त्रिक अधिकारों पर कई तरह की रोकें हैं। ‘अच्छे दिनों’ की लालसा में, ‘नए भारत’ के सपने देखने में हम इतने मशगूल हो गए थे कि जो हो रहा था, हमने उसे होने दिया। पिछले कम से कम पांच सालों के बारे में तो यह कहा ही जा सकता है कि हम वैसे सहिष्णु और धर्मनिरपेक्ष समाज नहीं बचे हैं जिसका सपना आजाद भारत की नींव रखने वालों ने देखा था। हमसे कहा गया कि हम इंडिया और भारत में से एक को चुनें। हमने वह किया। हम अपने में गुम हो गए – इस हद तक कि हम अपनों को ही निशाना बनाने लगे। प्रजातन्त्र के चारों स्तंभों की चूलें हिल गई है और हिली हुई हैं। आप कुछ भी लिखने के लिए केवल तब तक स्वतंत्र हैं जब तक कि आपके दरवाज़े पर कोई खटखटाता नहीं है। और एक खटखटाहट ही आपकी आज़ादी का अंत हो सकती है। आप अपना व्यापार-व्यवसाय करने के लिए केवल तब तक स्वतंत्र हैं जब तक किसी एजेंसी का कोई नोटिस आपकी उस आज़ादी को छीन नहीं लेता। आप विरोध करने के लिए केवल तब तक स्वतंत्र हैं जब तक आप उस बैरिकेड को नहीं लांघते जो आपके लिए लगाया गया है। आपके पास दो विकल्प हैं – या तो आप स्वयं एक लकीर खींच लीजिये और यह तय कर लीजिये की आप उसे पार नहीं करेंगे और या फिर अपनी बर्बादी का मंजर देखने के लिए तैयार रहिये। राष्ट्रवाद, आज़ादी की सीमा तय कर रहा है। राष्ट्रवाद, प्रजातंत्र और बोलने की आज़ादी का गला घोंट रहा है।
आज़ादी के 78वें साल में आप बोल तो सकते हैं, मगर डरते-डरते। आप आसमान में उड़ तो सकते हैं, मगर शाम ढले पिंजरे में लौटने के लिए। उल्लास गुमशुदा हो गया है। आज जिस आकाश में तिरंगा लहराएगा वह धूसर होगा और उसमें एक सफ़ेद कबूतरी उड़ रही होगी – पिंजरे में वापस जाने के लिए शापित। देश में विवाद हैं, गिरोहबंदी है, बंटवारा है। हम शायद रास्ता भूल गए हैं। हम शायद नहीं जानते कि हम किस तरह का भारत चाहते हैं। क्या हम अनंत आकाश में अनंत काल तक उड़ना चाहते हैं या पिंजरा ही हमारी नियति है? (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)