फिलिस्तीन कई दशकों से चर्चा, तर्क-वितर्क-कुतर्क और बहस-मुबाहिसे में रहे हैं।पर फिलिस्तीनियों के संघर्ष की चर्चाओं में उनकी तकलीफों और अवहेलना को आम तौर पर नजरअंदाज किया जाता रहा हैं।हाल के सालों में इजराइल की विस्तारवादी उपनिवेशवादी नीतियों में फिलिस्तीनियों के हितों की बहुत अनदेखी हुई है। इस साल की शुरूआत से ही इजराइल ने फिलिस्तीन इलाके वेस्ट बैंक को व्यावहारिक दृष्टि से अपना हिस्सा बनाने की प्रक्रिया तेज कर दी थी। इजराइली, फिलिस्तीन की भूमि पर बसाए गए हैं। उनके द्वारा फिलिस्तीनी नागरिकों के खिलाफ हिंसा बढ़ी है। इजरायली अधिकारियों का रूख क़डा होता गया हैं। लेकिन दुनिया में इस सबको इसलिए नजरअंदाज किया गया क्योंकि इजराइल, अंतर्राष्ट्रीय नैरेटिव को नियंत्रित करने में हमेशा से प्रभावी रहा है।
दूसरा इलाका गाजा एक छोटा-सा क्षेत्र है जिसमें22 लाख फिलिस्तीनी रहते हैं। सन् 2007 में हमास द्वारा गाज़ा पर नियंत्रण स्थापित करने के बाद हुए पांच सैन्य टकरावों में से हर एक के बाद वहां के लोगों का जीवनस्तर बेहतर बनाने की बातें तो हुईं किंतु अंततः इस बारे में कुछ भी नहीं किया गया। और हाल में इजराइल द्वारा येरुशलम के अल-अक्सा मस्जिद के परिसर में यथास्थिति को बदलने के जो प्रयास किए गए, उनसे फिलिस्तीनियों के मन में यह डर बैठ गया कि इस परिसर को विभाजित या पूर्णतः नष्ट किया जा सकता है। इस मुद्दे पर मात्र फिलिस्तीनियों में ही नहीं बल्कि अरब प्रायद्वीप और पूरी दुनिया के मुसलमानों की संवेदनशीलता है। तभी हमास ने 7 अक्टूबर की कार्यवाही को ‘अल-अक्सा हरीकेन’ का नाम दिया।
सवाल है ज़मीन और पहचान से जुड़ी खून-खराबे भरी लड़ाई शुरू कैसे हुई? यह सब शुरू हुआ होलोकास्ट के बाद।ध्यान रहे उसके बाद ब्रिटेन की इजाजत से फिलिस्तीन में यहूदी आप्रवासियों के आने का सिलसिला तेज हुआ था। इसके पीछे वजह थी यूरोप में तेजी पकड़ता यहूदी-विरोधी माहौल और बढ़ता यहूदी राष्ट्रीय आंदोलन, जिसे यहूदीवाद का नाम दिया गया। सन् 1947 में फिलिस्तीनियों और यहूदीवादी सशस्त्र बलों के बीच तनाव चरम पर पहुँच गया, जिसके चलते (तब) नवगठित संयुक्त राष्ट्रसंघ ने फिलिस्तीन का विभाजन कर अलग-अलग यहूदी और अरब राष्ट्र के निर्माण का प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव के अंतर्गत येरुशलम, जिस पर दोनों पक्ष दावा कर रहे थे, अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण में रहना था। यहूदियों को यह प्रस्ताव मंज़ूर था किंतु अरब राष्ट्रों ने इसे नामंजूर कर दिया। दोनों पक्षों के बीच हिंसक टकराव बढ़ते गए और संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा सुझाया गया हल कभी लागू न हो सका। सन् 1947-48 के युद्ध में, जिसके नतीजे में इजराइल अस्तित्व में आया, फिलिस्तीनियों को बड़ी संख्या में पलायन के लिए मजबूर किया गया या वे स्वयं ही चले गए। सैकड़ों गांव नष्ट कर दिए गए। और तब से लेकर आज तक टकराव जारी है। इजराइलियों की हर पीढ़ी, मध्यपूर्व में अपनी सर्वोच्चता कायम करने और सबसे शक्तिशाली बने रहने के लिए कमर कसकर सैनिक बनती रही है।
इजराइल की दादागिरी के नतीजे में पहला फिलिस्तीनी इन्तेफादा (अरबी शब्द, जिसका अर्थ होता है विद्रोह) सन् 1987 में हुआ। यह इजराइल के लिए एक झटका था और इसकी पृष्ठभूमि में सन् 1994 के ओस्लो शांति समझौते हुए। दोनों ओर के अतिवादियों ने समझौते को नाकाम करने की पूरी कोशिश की। हमास और एक अन्य अतिवादी संगठन इस्लामिक जिहाद ने आत्मघाती बम विस्फोटों का एक सिलसिला शुरू किया, जिसके जवाब में इजराइल ने और कठोर सुरक्षा उपाय किए, जिनमें गाजा पट्टी पर और ज्यादा पाबंदियां लादना शामिल था।
दूसरा इन्तेफादा सन् 2000 में कैम्प डेविड में हुई शांति वार्ता के असफल होने का नतीजा था, जिसमें बंदूकों और बमों का जम कर इस्तेमाल हुआ। इजराइल द्वारा सन् 2000 में लेबनान से और सन् 2005 में गाजा से (यासेर अराफात की मृत्यु के बाद) एकतरफा कार्यवाही करते हुए पीछे हट जाने के बाद भी शांति स्थापित नहीं हुई। इजराइल ने हमास और हिजबुल्लाह के खिलाफ अनेक लड़ाईयां कीं और इन दोनों ने इजराइल पर बड़ी संख्या में राकेटों से हमले किये।
क्षेत्र में शांति कायम न हो सकी और जबरदस्त तबाही हुई, विशेषकर फिलिस्तीनीयों की। ओस्लो समझौते की असफलता का नतीजा और बदतर कब्जे के रूप में सामने आया। इसमें शामिल था खून खराबा, आंतरिक विभाजन, बसने वालों को उनकी भूमि से बेदखल किया जाना और ज़मीन का छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट जाना। फिलिस्तीनी अरब देशों में शरणार्थियों के रूप में, हमास के नियंत्रण वाली गाजा पट्टी की खुली जेल में, और वेस्ट बैंक में राष्ट्रवादी फतह गुट द्वारा संचालित अलग-सलग स्वायत्त इलाकों में, येरुशलम में इजराइल के उपेक्षित ‘निवासियों के रूप में और इजराइल की 1967 के पहले की सीमाओं पर समानता के संघर्षरत दोयम दर्जे के नागरिकों के तौर पर रहने को बाध्य हुए। सभी युद्धों और टकरावों ने फिलिस्तीन के लोगों की अपनी ज़मीन को वापस पाने की छटपटाहट और इजरायली कट्टरता को बढ़ाया और धर्म और राष्ट्रवाद का विस्फोटक मिश्रण तैयार कर दिया। इजराइल ने नाकाबंदी कर फिलिस्तीनी समुदाय को विखंडित कर दिया है। इजरायली और धनी, और ताकतवर होते चले गए, और फिलिस्तीनी कष्ट और अशांति भुगतते रहे।
आंकड़ों के अनुसार, दूसरे इन्तेफादा, जो सितंबर 2000 में प्रारंभ हुआ और दूसरे गाजा युद्ध की समाप्ति, जो अगस्त 2014 में हुई, के बीच के 15 सालों में औसतन हर साल 800 फिलिस्तीनी लोगों ने जानें गंवाई। उसके बाद से प्रतिवर्ष 175 लोग मारे गए। इसी अवधि में मरने वाले इज़राइली नागरिकों की संख्या प्रतिवर्ष 85 से घटकर 14 रह गई। सन् 2008 से सितंबर 2023 तक के आंकड़ों के अनुसार 6,407 फिलिस्तीनी मारे गए हैं, जिनमें से आधे से अधिक की मौत मिसाइल हमलों की वजह से हुई। इसी अवधि में संयुक्त राष्ट्रसंघ के अनुसार टकरावों में 308 इजराइलियों की मौत हुई। कुल मिलाकर युद्धों में मरने वालों में से 83 प्रतिशत फिलिस्तीनी हैं।
अब एक नया युद्ध चल रहा है, जिसे शुरू हुए सात दिन गुज़र चुके हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ के अनुसार, इजराइल की अनवरत बम वर्षा के चलते गाज़ा पट्टी में 3।38 लाख लोग अपने घर-बार छोड़ कर भाग चुके हैं। वहां न तो बिजली है, न खाना और ना ही पीने का पानी। फिलिस्तीनियों को डर है कि इससे भी बुरे दिन आने वाले हैं क्योंकि इजराइल को अपने पश्चिमी दोस्तों से भरपूर मदद मिल रही है। इजराइल के मददगारों को इस बात की फिक्र नहीं है कि इससे मूलभूत मानवीय मूल्यों और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का कितना गंभीर उल्लंघन होगा। इजराइल ने अपने नागरिकों पर हमले के बाद जो जवाबी सैन्य कार्यवाही की है, वह अनुचित नहीं है। परन्तु उचित कारण होना एक बात है और युद्ध के स्थापित नियमों का उल्लंघन करना दूसरी बात। इस बीच, पेलिसटीनियन अथॉरिटी के एक पूर्व प्रधाममंत्री सलाम फय्याद की ‘द इकोनॉमिस्ट’ अख़बार में प्रकाशित यह टिप्पणी मौजूं है कि गुटबाजी के चलते, फिलिस्तानियों के हक की लड़ाई का सत्यानाश हो गया है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)