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मतदान का माहौल ईद जैसा!

मतदान का माहौल ईद जैसा!

Image Source: nayaindia

Jammu Kashmir 1st Phase Election Voting: एक लम्बे अरसे से वोट देना कश्मीर घाटी के लोगों के लिए न तो फ़ख़्र का सबब रहा है और ना ही एक ऐसा हक़, जिसका वे बिना किसी खतरे के इस्तेमाल कर सकते हों। मगर 18 सितम्बर की सुबह, दक्षिण कश्मीर के रहवासियों के लिए एक नयी आशा, एक नया दौर, एक नया सन्देश लेकर आई। वे अपने अधिकार का उत्साह के साथ इस्तेमाल कर रहे थे। जाहिर है कि सभी रोमांचित थे।

श्रीनगर से श्रुति व्यास

तिरासी साल के अब्दुल रहमान के लिए यह मौका 40 साल बाद आया था और 23 साल के मोहज़म के लिए उसकी ज़िन्दगी में पहली बार। अधिकांश लोगों को 1987 के बाद पहली बार बिना दहशत के अपने मताधिकार का प्रयोग करने का मौका मिला।

मैंने पुलवामा से शोपियां और कुलगाम से अनंतनाग तक की यात्रा की। हवा में ताजगी और ठंडक थी। जहाँ तक नज़र जाती थी, सेब के मनभावन बागान थे। पतली टूटी-फूटी सड़कों से लेकर तंग गलियों तक लोग बिना किसी डर के मतदान के दिन का पूरा मज़ा ले रहे थे। सडकें हमेशा की तरह वीरान नहीं थीं। शोर था, हलचल थी और लोगों की आवाजाही थी। हवा में दहशत नहीं थी, लोग चुपचाप नहीं थे और मानों उन्हें हासिल हुई इस आज़ादी का इस्तकबाल करने के लिए उन्होंने अपने घरों के दरवाजे और खिड़कियाँ खोल रखी थीं। सुबह के नौ बजते न बजते, मैं कई दुकानदारों, किसानों, युवा लड़के-लड़कियों और गृहणियों से मिल चुकी थी जो अपनी ऊंगलियों पर लगी स्याही को निसंकोच और शान से दिखा रहे थे।

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आज का माहौल, ईद जैसा माहौल

शाहीन, कुलगाम के बुगाम में चुनाव ड्यूटी पर थीं। मगर उन्होंने अपना काम शुरू करने से पहले अपना वोट डाला। “मैंने तो 7.15 पर ही वोट डाल दिया था,” उन्होंने मुझे बताया। उनकी आवाज़ में ख़ुशी और रोमांच था। और आँखों में चमक। (Jammu Kashmir 1st Phase Election Voting)

और यह चमक मैंने उन सभी मतदाताओं की आँखों में देखी जो मतदान केन्द्रों के बाहर कतार में अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे। रोमांच और उम्मीद से लबरेज, वे एक-एक कर बिना किसी डर या चिंता के अन्दर जा रहे थे और अपनी उँगलियों पर स्याही लगवाकर ख़ुशी और गर्व से बाहर निकल रहे थे। वे खुल कर बात कर रहे थे। वे बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी राय व्यक्त कर रहे थे। वे गर्वित थे कि उन्होंने अपना कर्त्तव्य पूरा किया है।

बुजुर्ग हों या जवान, उम्मीदवार हों या सुरक्षा कर्मी, पत्रकार हों या अफसर। मैंने सबके मुंह से एक ही बात सुनी: “आज का माहौल, ईद जैसा माहौल है।”

मेरे साथ एक स्थानीय पत्रकार थे, जो मेरी ही उम्र के आसपास के थे। उन्होंने मुझसे कहा, “मैंने ऐसा माहौल इसके पहले कभी नहीं देखा।” उन्होंने चुनाव का उत्सव – जो हम और आप के लिए आम है – कभी देखा ही नहीं था। उन्हें और उनके हमउम्रों को पता ही नहीं था कि चुनाव कैसा और क्या होता है।

वे कभी अपने माता-पिता के साथ पोलिंग बूथ पर गए ही नहीं था। उन्होंने अपनी ऊँगली पर अमिट स्याही लगवाने के रोमांच का अनुभव कभी किया ही नहीं था। मतदान के दिन, उनके घर पिंजरे बन जाते थे, जिनसे बाहर निकलना खतरे को आमंत्रित करना था।

चुनाव उनके लिए दहशत का पर्यायवाची

चुनाव उनके लिए दहशत का पर्यायवाची था। यह डर 2014 में भी था और 2019 में भी। मतदान के दिन सूरज मानों ऊगता ही नहीं था। चारों ओर डर और आशंका का माहौल रहता था। चुनावों का बहिष्कार करने की अपीलें, हड़ताल और जनता कर्फ्यू के बीच वे अपने घरों में कैद रहना ही बेहतर समझते थे। सडकें और मतदान केन्द्र उदास और वीरान रहते थे।

मगर इस साल सब कुछ बदल गया है। शिया हों या सुन्नी या गुज्जर बकरवाल, बूढ़े हों या जवान, महिलाएं हों या पुरुष, सभी प्रजातंत्र के सबसे बड़े उत्सव में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने को आतुर थे। युवा अपनी ख़ामोशी तोड़ने को बेकरार थे और बुजुर्ग, बदलाव की बयार की उम्मीद में थे।

महिलाओं के लिए बदलाव का अर्थ था विकास। युवाओं को लग रहा था कि उनके प्रतिनिधि उनकी तरह युवा होने चाहिए। कुलगाम के 35 साल के मुख़्तार के लिए जमात के सैयद रेशी, परिवर्तन के वाहक थे तो 23 साल के पुलवामा के मोहज़म के लिए पीडीपी के वहीद पारा आशा की किरण थे।

अनंतनाग के बीजबहरा में मुकाबला कांटे का

बदलाव की इच्छा इतनी मज़बूत है कि घाटी में दशकों बाद, मतदाताओं की बजाय प्रत्याशी डरे हुए हैं। मुफ़्ती खानदान के गढ़, अनंतनाग के बीजबहरा में मुकाबला कांटे का है। यहाँ लोगों को पीडीपी की 36 वर्षीया इल्तिजा मुफ़्ती और नेशनल कांफ्रेंस के डॉ बशीर अहमद वीरी में से एक को चुनना है। और दोनों के लिए भाजपा का उम्मीदवार गले की फाँस बना हुआ है।

यही हाल कुलगाम विधानसभा क्षेत्र का भी है, जो दक्षिण कश्मीर की एक महत्वपूर्ण सीट है। यह मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के मोहम्मद यूसुफ़ तरीगामी का अभेद्य दुर्ग रहा है। वे करीब तीस सालों से यहाँ से जीतते रहे हैं। मगर इस बार जमात-ए-इस्लामी-समर्थित सय्यार अहमद रेशी के मैदान में उतरने की वजह से वे खतरे में हैं। दिन के 11 बजे तक इस क्षेत्र में 26 प्रतिशत वोट पड़ चुके थे और मतदान केन्द्रों पर भीड़ बनी हुई थी।

कौन सोच सकता था कि यह दिन भी आएगा। मैं उस पीढ़ी की हूँ जिसने यही सुना और पढ़ा है कि कश्मीर में चुनाव केवल एक औपचारिकता होते हैं। ऐसे में यह देखना सचमुच सुखद था कि लोग जम्हूरियत के जश्न में बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी कर रहे हैं।

एक और बात। सुरक्षा उतनी कड़ी नहीं थी, जितनी मेरी अपेक्षा थी। मतदान केन्द्रों को किलों में तब्दील नहीं किया गया था और भीतरी सड़कों पर जगह-जगह बैरिकेड नहीं थे। कारों को चेकिंग के लिए रोका नहीं जा रहा था। ऐसा लग रहा था कि सब कुछ सामान्य है। क्या इससे बेहतर कुछ हो सकता था? (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

Published by श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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