श्रीनगर से श्रुति व्यास
श्रीनगर। जैसा अनुमान था वहीं हुआ। हमेशा की तरह श्रीनगर में कम मतदान हुआ। जबिक उन सीटों पर रिकार्ड मतदान हुआ जो भाजपा बनाम एनसी-कांग्रेस एलांयस की जीत-हार में निर्णायक है। ये पीर पंजाल के राजौरी और पूंछ जिले की आठ सीटे है। अभी तक के आंकड़ों के अनुसार इन दोनों जिलों में क्रमशः 70 और 74 प्रतिशत वोटिंग हुई है। भाजपा ने इन सीटों पर मुस्लिम पहाड़ी, बकरवाल, और गुर्जरों को महत्व, उन्हे एसटी आरक्षण दे कर रिझाया है। मगर जिस उत्साह से इन सीटों पर मतदान हुआ है वह चौंकाने वाला है। इन दो जिलों की विधानसभा सीटों में राजौरी (70 प्रतिशत मतदान) मेधर (70 प्रतिशत), सुरनकोट (72 प्रतिशत), बुदल (70 प्रतिशत), पूंछ हवेली 70 प्रतिशत), थानामंडी (68 प्रतिशत) में जोरदार वोटिंग हुई है। साथ ही नौशेरा (69% मतदान) और कालाकोट (66% मतदान) जहां हिंदू वोट कुछ ज्यादा है वहां भी आज के मतदान से कांटे की लड़ाई के संकेत है। सुरनकोट सीट पर ही राहुल गांधी और फारूक अब्दुल्ला की रैली में भीड़ उमड़ी थी उसका असर आज के मतदान से झलका है।
मगर राजधानी श्रीनगर (29.24% मतदान) में कम मतदान और बडगाम में (61.31% मतदान) तथा गंदेरबल में (62.63%मतदान) अच्छे मतदान का सीधा अर्थ है कि एनसी-कांग्रेस विरोधी निर्दलीयों, पीडीपी के लिए मुकाबला निश्चित मुश्किल भरा है। वे उम्मीदवार अपने समर्थकों को घर से कम ही बाहर निकाल पाएं, जो नेशनल कांफ्रेस से मुकाबला करते हुए थे। वे मतदाता वोट ज्यादा करते मिले जिनमें न जाने क्यों यह जिद्द थी कि वोट देने के बाद मतदान केंद्र से बाहर निकलने तक ऊंगली से स्याही पोंछे ले।
मैंने श्रीनगर और गान्दरबल में बार-बार अनुभव किया कि पोलिंग बूथ से निकलते ही वोटरों ने अपनी ऊंगली को पोछा, रगड़ा और घिसा ताकि उस पर वोट डालने का कोई निशान बाकी न रहे। और इनमें सभी शामिल थे, -महिलाएं और पुरुष, युवा और बुजुर्ग, रईस और फ़कीर।
गान्दरबल के एक पोलिंग बूथ पर, 70 या शायद 80 बरस के एक बुजुर्ग ने मुझे गुस्से से कहा -“हमको घुटन हो रही है दस साल से।”
दूसरी टिप्पणी ज़रीफ़ अहमद ज़रीफ़ की थी –“ज़ुल्म के खिलाफ है ये वोट। और पाकिस्तान को बताने के लिए कि हम ज़िन्दा हैं।”
ज़रीफ़ अहमद ज़रीफ़ कश्मीर के बुद्धिजीवी, शायर और सामाजिक कार्यकर्ता बताये जाते हैं। वे छोटे कद के दुबले-पतले बुजुर्ग हैं। उनकी उम्र 81 साल की है और वे उतनी ही उम्र के लगते भी हैं। मगर उनकी आवाज़ में जो जज़्बा, जोश और गुस्सा था, उसे अनदेखा करना संभव नहीं था।
ये दोनों बुजुर्ग वोट देने इसलिए निकले थे क्योंकि उनके दिल में गुस्सा था। वे बदला लेना चाहते थे। और यह करीब-करीब तय है कि उन्होंने ईवीएम का वह बटन दबाया होगा, जो उनके हिसाब से ज़ुल्म के खिलाफ था। मगर दोनों को ही स्याही लगी अपनी ऊंगली के साथ अपनी फोटो खिचवाना मंज़ूर न था। ज़रीफ़ अहमद ज़रीफ़ ने वोट देने के बाद बाहर निकलते ही अपनी ऊंगली से स्याही पोंछ दी। उन्होंने अपनी जेब से रुमाल निकाला और स्याही के अपना निशान छोड़ने से पहले ही उसे मिटा दिया। यहाँ तक कि वे मतदान केंद्र के बाहर खड़े होकर भी अपना फोटो खिचवाने के लिए तैयार नहीं हुए।
और इस मामले में ज़रीफ़ अकेले नहीं थे।
मैंने ज़रीफ़ अहमद को अपना गुस्सा जाहिर करते देखा। वे हिंदी का इस्तेमाल केवल हरि पर्वत पर तिरंगा फहराने के लिए शासन को खरीखोटी सुनाने के लिए कर रहे थे। मैंने उनमें वह कश्मीरी मानसिकता देखी जो कभी बदलेगी नहीं, चाहे दौर कोई भी हो और परिस्थितियां चाहे कितनी ही बदल जाएँ, और जो मानसिकता हर नयी पीढ़ी को पिछली पीढ़ी से विरासत में मिलेगी। मैं जिस कश्मीरी मानसिकता की बात कर रही हूँ वह उन लोगों की है जो शेख अब्दुल्ला के ज़माने के हैं, जो प्रजातंत्र के सारे लाभ और हक हासिल करना चाहते हैं मगर जिन्हें नहीं मालूम कि वे असल में कहाँ के हैं? वे जो पिछले दस साल में हुए ज़ुल्मात के खिलाफ वोट देना चाहते हैं मगर पिछले तीस या उससे ज्यादा सैलून के ज़ुल्मात से आँखें फेर लेना चाहते है। जो प्रजातान्त्रिक दिखना चाहते हैं, मगर चुपके-चुपके। जो बदलाव चाहते हैं मगर जिन्हें पता नहीं है कि वह बदलाव कैसा होना चाहिए।
बहरहाल, आज के मतदान में वह जोश, उमंग और माहौल नहीं था जो दक्षिण कश्मीर में 18 सितम्बर को मतदान के पहले दौर में था। वह आज, मध्य कश्मीर में हुए दूसरे दौर के मतदान में गायब था। सुबह नौ बजे तक श्रीनगर में केवल 4.70 प्रतिशत वोट डाले गए थे और गान्दरबल, जहाँ पिछले चुनाव में मतदान प्रतिशात 67.7 प्रतिशत, में तब तक केवल 12.61 फीसद वोटरों ने बटन दबाया था। दिन चढ़ने के साथ तपिश बढ़ने लगी और मतदान केंद्र सूने होने लगे। गान्दरबल के गांवों की सड़कों और गलियों में वह हलचल नहीं थी जो कुलगाम में 18 सितम्बर को थी। उस दिन पत्रकार बन्धु, एक जिले से दूसरे जिले भाग रहे थे। मगर इस बार, उन्होंने आराम से दोपहर का भोजन किया और बोर हो कर कवरेज खत्म कर दी। उन पर भी मतदाताओं की उदासीनता का असर था।
कुल मिलाकर, मध्य कश्मीर में दूसरे दौर के मतदान पर उदासीनता हावी थी। गान्दरबल में सुबह-सुबह कुछ उत्साह दिखा था मगर उसके बाद, वहां मुझे प्राकृतिक सुन्दरता तो दिखी मगर उत्साही मतदाता नहीं। मतदान केन्द्रों के बाहर लम्बी कतारें नहीं थीं। हाँ, कुछ लोग थे जो मतदान केन्द्रों के अन्दर जा रहे और बाहर निकल रहे मतदाताओं पर नज़र रख रहे थे। हो सकता है कि वे केवल तमाशबीन हों। मगर मुझे तो यही लगा है कि बड़े ध्यान से वोट देने वालों को देख रहे थे। उन्हें दूसरों से बातचीत करने में कोई रूचि नहीं थी। वे चुनाव या उम्मीदवारों के बारे में कुछ भी कहने के लिए तैयार नहीं थे। मगर वे पैनी निगाहों से सब कुछ देख रहे थे। क्या उनके मन में ‘ज़ुल्म’ और ‘घुटन’ से जुड़ी बातें थीं?
पहले दौर में जहाँ बदलाव की चाहत सर्वोपरि थी, वहीं दूसरे दौर में भावनाओं का ज्वार था – ऐसा ज्वार जो लोगों के दिलों से बाहर निकल कर फूट पड़ने पर आमादा था। वे मोदी और शाह के खिलाफ वोट देना चाहते थे मगर वे इतने डरे हुए भी थे की अपनी ऊंगली पर लगा स्याही का निशान मिटा रहे थे। पर फिर यह भी सवाल है कि कश्मीर में दूसरे दौर के मतदान में शहरी श्रीनगर और गान्दरबल और बडगाम में लोग उस तरह से वोट देने बाहर तो नहीं निकले जिससे लगे की वे पिछले दस सालों में हुए ज़ुल्म से ख़फा है, दुखी हैं। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)