कभी जापान और दक्षिण कोरिया एक दूसरे के कट्टर दुश्मन थे। उनके रिश्तों में कड़वाहट के पीछे था अतीत। विशेषकर दक्षिण कोरिया पर जापान के औपनिवेशिक शासन के दौर से विरासत में मिली अनसुलझी समस्याएं। परंतु अब नए और कहीं ज्यादा बड़े साझा दुश्मन से मुकाबला करने के लिए दोनों देशों ने अपनी पुरानी अदावत को भूलने का फैसला किया है। यह बड़ा साझा दुश्मन है चीन। और पुराने दुश्मनों को गले मिलवाया है अमरीका ने, क्योंकि उसके भी इस क्षेत्र में स्वार्थ हैं।
पिछले कुछ सालों से सबसे बड़ी विश्व शक्ति बनने के लिए अमरीका और चीन में प्रतिस्पर्धा चल रही है। चीन ने कभी यह छुपाने का प्रयास नहीं किया कि वह जल्द से जल्द अमरीका को पछाड़कर दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बनना चाहता है। चीन की आसमान छूती महत्वाकांक्षाओं के चलते ही अमरीका, पूरी दुनिया और विशेषकर पूर्वी एशिया में नए दोस्त बना रहा है और पुराने दोस्तों से गलबहियां कर रहा है।
दक्षिण कोरिया और जापान दोनों अमरीका के मित्र रहे हैं परंतु उनकी आपस में कभी नहीं पटी। पिछले वीकएंड पर अमरीका के राष्ट्रपति जो बाईडन ने जापान और दक्षिण कोरिया के शीर्ष नेताओं के साथ पहली बार एक संयुक्त बैठक रखी। जगह थी राष्ट्रपति की आरामगाह कैंप डेविड। दशकों बाद जापान और दक्षिण कोरिया एक-दूसरे से रूबरू हुए और एक-दूसरे से अपनी दशकों पुरानी शिकायतों को भुलाने का प्रयास किया।
सियोल और टोक्यो के बीच संबंधों में पिछले कुछ समय से सुधार आ रहा था परन्तु इसकी गति बहुत धीमी थी। बाइडन इस प्रक्रिया को फार्स्ट फारवर्ड करना चाहते थे क्योंकि उन्हें दुनिया के उस हिस्से में चीन से निपटने के लिए इन दोनों देशों का साथ चाहिए है। बैठक के पहले बाइडन ने दक्षिण कोरिया और जापान के नेताओें के ‘राजनैतिक साहस’ की तारीफ की।
पिछले कुछ महीनों में जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा और दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति यूं सुक-येओल ने आपसी विवादों को सुलझाने और वाशिंगटन के साथ संबंध बेहतर बनाने की दिशा में कुछ कदम उठाए हैं। सन् 2015 के बाद यह पहली बार है कि कोई विदेशी नेता कैंप डेविड पहुंचा हो। कैंप डेविड में हुई हालिया बैठक, अमरीका के अपने सबसे महत्वपूर्ण मित्र राष्ट्रों के साथ संबंधों में ‘एक नए युग’ का सूत्रपात बताई जा रही है।
जापान और दक्षिण कोरिया को एक-दूसरे के नजदीक आने में इतना समय क्यों लग रहा है? पहली बात यह कि जापान की तुलना में दक्षिण कोरिया में ज्यादा नाराजगी और गुस्सा है। उसका मानना है कि जापान ने कभी भी कोरियन प्रायद्वीप पर 1910 से लेकर 1945 तक चले अपने शासन के लिए ढ़ंग से माफी नहीं मांगी। दूसरी ओर जापान का कहना है कि उसने कई संधियों पर दस्तखत कर अपने पापों का प्रायश्चित कर लिया है। जापान और दक्षिण कोरिया के परस्पर संबंधों में समय-समय पर और कड़वाहट घुलती रही है। उदाहरण के लिए सन् 2018 में सिओल में लम्बे समय से चल रहे एक मुकदमे में फैसला आया कि द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान ने कोरिया के नागरिकों से जबरिया श्रम करवाया। इससे दोनों देशों के बीच व्यापार युद्ध शुरू हो गया जिसके चलते उनके रिश्ते इतने खराब हो गए जितने कि 1960 के दशक के बाद से कभी नहीं हुए थे।
परंतु पिछले कुछ समय से सही दिशा में प्रगति हो रही थी और मार्च में दोनों देशों की एक महत्वपूर्ण बैठक भी हुई थी। इसलिए वाशिंगटन को लग रहा है कि उसके पास एक सुनहरा मौका है।
राजनीति में व्यावहारिकता बहुत अहम होती है और शायद इसलिये दक्षिण कोरिया और जापान अपनी दशकों पुरानी दुश्मनी को भुलाकर अपने साझा दुश्मन से मिलकर लड़ने को तैयार हो गए हैं। चीन पूरे एशिया में दादागिरी कर रहा है। वह धरती और समुद्र के कई हिस्सों पर अपना हक जता रहा है। लोकतांत्रिक सरकार द्वारा शासित द्वीप ताईवान को चीन अपना बताता है और उसने कह दिया है कि जरूरत हुई तो वह ताकत के बल पर ताईवान को अपनी ‘मुख्य भूमि का हिस्सा’ बना लेगा। चीन का ताईवान के एयर स्पेस में घुसना और ताईवान के आसपास बड़े सैनिक अभ्यास करना अब बहुत सामान्य बन गया है।
दोनों देशों के बीच बढ़ती नजदीकियों का एक दूसरा कारण है उत्तर कोरिया के सुप्रीमो किम जांग उन। वे कब क्या कर देंगे इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। सन् 2022 से लेकर अब तक उत्तर कोरिया करीब 100 बार नए हथियारों की टेस्टिंग कर चुका है और इस दौरान जापान की ओर भी कई मिसाइलें छोड़ी गईं हैं। फिर यूक्रेन का युद्ध तो है ही। दुनिया के कई देशों पर कुख्यात नेताओं का राज है। ऐसे में हर देश अपनी सुरक्षा को मजबूत रखना चाहता है।
अमरीका दोनों देशों को एक करने के लिए काफी समय से प्रयासरत था। बाइडन प्रशासन के अथक प्रयासों और नई उभरती चुनौतियों के कारण जापान और कोरिया ने एक साथ मिलकर अमरीका के साथ त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इस समझौते के तहत तीनों के बीच सैन्य सहयोग बढ़ेगा और वे गुप्त सूचनाओं का आदान-प्रदान करेंगे। यह भी तय हुआ है कि अमरीकी, कोरियाई और जापानी विदेश व रक्षा अधिकारी हर साल कम से कम एक बार मिलेंगे। और उनकी सेनाएं एकसाथ मिलकर अभ्यास भी करेंगीं। समझौते में यह भी शामिल है कि उत्तर कोरिया या चीन की ओर से नए खतरे के उभरने पर तीनों दोस्त एक-दूसरे के साथ जानकारियां साझा करेंगे।
बहरहाल, समझौते पर दस्तखत हो गए है और फ्लैश बल्बों की चमक के बीच नेताओं ने मुस्कराते हुए एक-दूसरे से हाथ भी मिला लिए हैं। पर कुछ प्रश्न अभी बाकी हैं। एक तो यह कि अगर इन देशों, विशेषकर अमरीका, में नेतृत्व परिवर्तन होता है तब भी क्या यह समझौता बना रहेगा? क्या ट्रंप की प्राथमिकताएं वही होंगीं जो वर्तमान अमरीकी प्रशासन की हैं? क्या ट्रंप चीन और उत्तर कोरिया को खतरा मानेंगे? फिर दक्षिण कोरिया और जापान में भी नेतृत्व बदल सकता है। दोनों देशों के नागरिकों में एक-दूसरे के प्रति अब भी गुस्सा है और समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले नेताओं की लोकप्रियता पर इसका असर पड़ सकता है। इसके अलावा अमरीका के विपरीत, कोरिया और जापान खुलकर यह नहीं कह रहे हैं कि चीन उनके लिए सबसे बड़ा खतरा है। वे ड्रेगन की पूंछ पर पांव रखने से घबरा रहे हैं। बीजिंग ने पहले ही यह साफ कर दिया है कि कैम्प डेविड में हुई शिखर वार्ता से वह खुश नहीं हैं। चीन का कहना है कि त्रिपक्षीय समझौता ‘मिनी नाटो’ है जिसका उद्धेश्य उसके प्रभाव को सीमित करना है। चीनी विदेशमंत्री वांग-यी ने दक्षिण कोरिया और जापान का आव्हान किया है कि पूर्वी एशिया के ‘पुनर्जीवन’ के लिए चीन के साथ मिलकर काम करें।
कुल मिलाकर यह अच्छा है कि जापान और कोरिया अपने अतीत की कड़वाहट को भुलाकर गले मिलने को तैयार हो गए हैं। परंतु इसके साथ ही अमरीका और चीन के बीच दुनिया की सबसे बड़ी विश्वशक्ति बनने की दौड़ ने पूरी पृथ्वी को खतरे में डाल दिया है। बताया जाता है कि अमरीका ने उत्तर कोरिया के नेता किम जांग को भी यह संदेश भेजा था कि वह ‘बिना किसी शर्त के’ उनके साथ उच्चस्तरीय वार्ताएं करने को तैयार है। अमरीका को पता है कि उसके पास समय कम है और दुनिया के शक्ति संतुलन में कभी बदलाव आ सकता है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)