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उथलपुथल का नया इतिहास!

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वह 1989 का साल था। यूरोप में कम्युनिज्म पतन की राह पर था। तभी फ्रांसिस फुकुयामा का एक विचारोत्तेजक लेख प्रकाशित हुआ। उसका शीर्षक था ‘द एंड ऑफ हिस्ट्री’ (इतिहास का अंत)। लेखक का दावा था कि बीसवीं सदी में लोकतंत्र ने अधिनायकवादी प्रवृत्तियों को परास्त कर दिया है, यह मानव जाति के वैचारिक विकास का चरम बिंदु है और यह भी कि पश्चिमी उदारवादी लोकतान्त्रिक मूल्यों पर आधारित शासन व्यवस्था अब पूरी दुनिया में स्थापित हो जाएगी। उनका यह दावा और नजरिया, उस समय के घटनाक्रम में प्रतिबिंबित भी हो रहा था। वैसा ही कुछ होता हुआ लगता था।

लेकिन इतिहास का अंत नहीं हुआ। आज करीब 35 साल बाद, दुनिया में उदारवादी लोकतंत्रों से कहीं अधिक संख्या में तानाशाहियां हैं। रूस के व्लादिमीर पुतिन ने यूरोप को द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की सबसे बड़ी जंग में धकेल दिया है। वही चीन के शी जिनपिंग वैश्विक संस्थाओं में रद्दोबदल कर उन्हें अपने जैसा – यानि लोकतांत्रिक मूल्यों से पूर्णत मुक्त – बनाने पर आमादा हैं। इस बीच अमेरिका दुनिया का हेडमास्टर   बन गया है। और लगता है कि ट्रंप का अमेरिका जल्दी ही पुतिन के रूस और शी के चीन का मिश्रण बनेगा।

और ट्रंप अकेले नहीं हैं। दुनिया भर में ऐसे नेताओं की पूरी फौज मौजूद है जिनके रंग-ढंग ऐसे ही हैं। हम उन्हें लोकलुभावनवादी नेता कहते हैं। वे जनता के मन में अपने प्रति आकर्षण पैदा कर, उन्हें लुभाकर सत्ता पर काबिज होते हैं। वे कुछ बड़ा करके दिखाने का वादा और विचार प्रस्तुत करते हैं। इस बीच, स्वच्छन्दतावाद (रोमांटिसिज्म), विशेषकर वैचारिक स्वच्छन्दतावाद, को दरकिनार किया जाता है, उसका मखौल बनाया जाता है।

हिटलर के इन रिश्तेदारों का राज्यसत्ता में दखल देने वाले साजिशकर्ताओं का सफाया करने का इरादा और वादा प्रजा को बहुत सम्मोहक नजर आता है। जो व्यक्ति प्रजातंत्र को कमजोर करता है, उसे महिमामंडित किया जाता है, उसका वाह होती है। नरेन्द्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप इसके उदाहरण हैं। लोकतांत्रिक मूल्य और कानून का राज कांच की अलमारी में बंद  गहने बनकर रह जाते हैं। तभी मुख्य मुद्दा अब यह नहीं है कि सरकार की शक्तियों को कैसे नियंत्रित किया जाए बल्कि यह है कि सरकारों को नए सिरे से कैसे बनाया जाए, उन्हें दुष्ट-खल-कामियों से कैसे बचाया जाए।

ऐसे सभी देश एकला चलो रे की नीति के हामी हैं। वे ‘मेरा देश सबसे पहले’ की नीति पर देश चलाते है।  हर नेता दावा करता है कि सदियों के संघर्ष के बाद, मेरे देश पर लगा अपमान का कलंक मिटा है, तभी अब देश महान पुनरूद्धार के मार्ग पर है। भारत में इसका अर्थ है “भारत फिर से सोने की चिड़िया बनेगा”।

लेकिन इतिहास से यह सबक दो टूक है कि अंर्तमुखी होने से देश का नुकसान ही होता है। इतिहास में इसका सबसे दिलचस्प उदाहरण चिंग राजवंश का है। जब चिंग राजवंश अपने शिखर पर था तब यह चीनी साम्राज्य दुनिया की सबसे बड़ी शक्तियों में से एक था। उसका राज एशिया के विशाल इलाके में था। उसकी समृद्धि और सैन्य शक्ति से पूरी दुनिया जलती थी। लेकिन इन सारी सफलताओं के बावजूद भयावह भ्रष्टाचार, कमजोर शासन, आंतरिक विद्रोह और विदेशी आक्रमण से उसकी शक्ति घटती गई। अंततः उसका पतन हुआ।

कई दशकों से चिंग वंश की दुनिया से अलग-थलग रहने की नीति को व्यापक तौर पर इसके पतन की वजह माना गया है। सन् 1920 और 1930 के दशक में अमेरिका की राजनैतिक, आर्थिक और सैन्य दृष्टि से ‘एकला चलो रे’ की नीति को ही पर्ल हार्बर पर हुए जापानी हमले की वजह माना जाता है. इसी के चलते सन् 1941 में अमेरिका दूसरी बड़ी लड़ाई में कूदने को मजबूर हुआ है।

हालांकि भारत का दावा है कि वह दुनिया से अलग-थलग रहने के रास्ते पर नहीं चल रहा है। विचारकों ने भारत ने एक नए लोकतंत्र की सार्वभौमिकता के उल्लंघन की निंदा पर्याप्त जोर से नहीं की। जबकि भारत के दक्षिण एशिया के अपने भाई-बन्दों से रिश्ते तनावपूर्ण हैं। यूक्रेन और इजराइल को लेकर उसका रवैया ढुलमुल है। लोकतंत्र पर गंभीर प्रहार हो रहे हैं, और कितना भी प्रोपेगेंडा किया जाए, सच यह है कि विश्व में भारत अलग-थलग पड़ गया है।

जाहिर है भारत, अमेरिका और पूरी दुनिया में प्रजातंत्र के बचे रहने की बेहद ज़रुरत है। उस नाते फुकुयामा की प्रतिपादित इतिहास के अंत की थ्योरी की सीमारेखा तक पहुंच चुके हैं। समय के ये सकंट गंभीर हो रहे है जिनमें तानाशाह बनने की लालसा रखने वाला नेता जनता को विभाजित करता है। प्रोपेगेंडा पर फलता-फूलता है और तानाशाही सोच वाले दूसरे नेताओं के साथ जुड़ जाता है। हम अब एक नई दुनिया में रह रहे हैं जिसमें दूसरे देशों को अपने अधीन करने के लिए बड़ी सेना की ज़रुरत नहीं पड़ती। केवल उनमें दासता भाव पैदा करना पड़ता है। उन पर कड़ी नज़र रखनी पड़ती है।

और डोनाल्ड ट्रंप सत्ता संभालने के बाद वैसा ही कुछ कर रहे है। पहले बहुध्रुवीय विश्व के उभरने की उम्मीद थी – ताकि महाशक्तियां और तानाशाह न तो विकृतियां उत्पन्न कर पाते और ना ही उनका बोलबाला बनता। लेकिन सबको लग रहा है दुनिया उथल-पुथल, अनिश्चितताओं की ओर बढ रही है जिसके आगे स्थिरता, अमन चैन चाहने वालों की संख्या कम और बेमतलब की होगी। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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