चुनाव-2024, ग्राउंड रिपोर्ट : शेखावटी से श्रुति व्यास
चुरू/जयपुर। अगले 73 दिनों में करीब 96.8 करोड़ भारतीय अपना-अपना वोट डालेंगे, या कम से कम डाल सकते हैं।और बताया जा रहा है कि कोई2,600 पार्टियाँ मैदान में हैं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है तोहिसाब से, और पिछलों अनुभवों में चुनाव बतौरएक पर्व, जोश-उमंग भरा मौका होना चाहिए।
जैसे सन 2014 का चुनाव था।वह एक मायावीजादू, जोश से भरा-पूरापर्व था।वैसे ही सन 2019 के चुनाव में भी देश वोट डालने के जज्बे से सराबोर था। मगर यह चुनाव, जिसके बारे में बताया जा रहा है कि यह लोकतंत्र को आसन्न खतरे’ के बीच है, में उत्साह और रोमांच दोनों गायब है।आज 19 अप्रैल को,पहले दौर का मतदान है। मगर उसकी पूर्व संध्या तक भी चुनाव बिना चुनावी माहौल के है,बिना गर्माहट के है।
मैं फतेहपुर में हूँ, राजस्थान के शेखावटी इलाके का एक जाना पहचाना ठिकाना। मैं कस्बे में ढूँढ रही थी एक कोई ऐसी हवेली, जो खंडहर होने की राह पर न हो, और एक ऐसा कोई आम आदमी जिससे चलते-चलाते चुनाव पर पूछा जाए। और सड़क पर चलते-चलते ज्योंहि ऐसे एक आदमी को देखा, मैंने सवाल उछाला-
“चुनाव है क्या कोई?”
“शायद”, “हाँ”, “पता नहीं” – ये कुछ उत्तर थे। और फिर एक जवाब आया, जो मुझे कुछ ठीक-ठाक लगा-“हाँ, दिल्ली का चुनाव हैं।”
“दिल्ली के चुनाव?” कौन लड़ रहा?
“मोदी और राहुल गाँधी”
जवाब सपाट, न कोई उत्साह, न जुड़ाव। मानों उसका कोई लेनादेना ना हो।साफ लगावह वोट डालने का इरादा लिए हुए नहीं है। और पूछने पर इसका इरादा बताया भी नहीं।
फिर सौ किलोमीटर दूर चुरू पहुंची तोवही माहौल जो जयपुर से पूरे रास्ते दिखलाई दिया। चुनावी माहौल की झलक ही नहीं। जबकि चुरू को लेकर मैं सुनती आ रही थी कि वहां कड़ी टक्कर है। जैसा की भारत में कई जगह अक्सर दिख जाता है किपूरा चुनाव जातिय खुन्नस, और एक-दूसरे को निपटाने की जिद्द पर लड़ा जाता हुआ। वैसा ही चुरू में है। यही सबसे बड़ा मसला, मुद्दा और इसी पर होगी जीत-हार? जाट (कांग्रेस) बनाम जाट (भाजपा) बनाम राजपूत (भाजपा नेता राजेंद्र राठौड की इलाकाई धमक) में हर कोई आर-पार की लड़ाई बतलाते हुए।इसी की पेंतरेबाजी में फिर यह भी हल्ला बना है कि सत्ता में वापिस लौटने पर भाजपा संविधान बदल देगी और आरक्षण ख़त्म कर देगी।
असल बात सीकर और झुंझुनू होते हुए जयपुर से चुरू के 400 किलोमीटर आने-जाने के लम्बे रास्ते में चुनाव लडा जाता दिखा नहीं। कह सकते है चुनाव लोगों के मन में होगा। कहीकिसी भी तरह की प्रचार सामग्री नहींदिखलाई दी। और यह तब है जब दो दिन बाद19 अप्रैल को वोट डलने हैं।
पूरा इलाका सूखा-रेतीला है, हालांकिसियासी सूखेपन में एक कशिशजरूर नरेन्द्र मोदी के हाईवे किनारे के आदमकद कटआउट्ससे हैं, जिनमें उनके अकेले फोटो के साथ एक-एक कर गारंटियां गिनाई गई हैं।न हाईवे पर ढाबों और चाय की गुमटियों पर झंडे-बैनर टंगे दिखे न गांव-कस्बों की गलियों में। न कोई शोरगुल है, न प्रचार है और ना ही नुक्कड़ सभाएं। बिजली के खम्बों और दीवारों पर हाथ जोड़े, चेहरे पर स्माइल चिपकाए उम्मीदवारों के पोस्टर भी नहीं! ना ही इस या उस पार्टी का साथ देने की अपील करते गीत सुनाई दे रहे हैं। मुझे तो चुनाव आयोग के वे होर्डिंग भी कहीं नज़र नहीं आए जिनमें लोगों से वोट डालने का अनुरोध किया जाता है। सब तरफ यह उदासीनता कि– जो हो रहा है, होने दो हमें क्या मतलब!
सीकर से इंडिया गठबंधन के सीपीएम के कामरेड अमराराम और भाजपा के दो बार सांसद रह चुके स्वामी सुमेधानंद मैदान में हैं।इनमें और झूंझनू में भी लोकल आधार पर वैसे ही चुनाव होता बताया गया जैसे चुरू में कांग्रेस के उम्मीदवार राहुल कस्वां बनाम भाजपा ने पैरालिम्पिक खिलाडी देवेन्द्र झाझड़िया में है।पर चुरू के चुनाव का असल फेक्टर राजपूत भाजपा नेता राजेद्र राठौड है जिन पर राहुल कस्वा का टिकट नहीं होने देने की बात ने जाटों में यह जिद्द बना दी है कि अब चुरू से राजेंद्र राठौड़ की राजनीति खत्म कर देनी है। तभी जाट, मुस्लिम व दलित वोटों की साझा गणित से मौन हवा है कि लड़ाई पूरी तरह लोकल है। कांग्रेस के राहुल कस्वां पिछले चुनाव में भाजपा के टिकट से सांसद चुने गए थे। उनके पिता रामसिंह कस्वा की विरासत उनके साथ है। राहुल आकर्षक व्यक्तित्व के साथजनसंपर्क में समर्थ बताए जाते हैं।
वही भाजपा के पैरालिम्पिक खिलाडी देवेन्द्र झाझड़िया भी जाट है और उनकी ताकत नरेंद्र मोदी का चेहरा है। और इसका मुझे आभास हुआ। प्रौढ लोगों की जमात में राहुल कस्वा की चर्चा सुन जब फ्री हुई तोबात सुन रहे दो नौजवानों ने मुझे बाद में कहा- ये बेकार बाते है। हम तो नरेंद्र मोदी को वोट देंगे। नौजवानों जाटों का अपना मन है।
जी हाँ, वे युवा ही हैं जिनके कारण यह चुनाव इतना बेरंग, बेनूर नज़र आ रहा है। नए युवा भारत में, उम्रदराज़ लोग आउटडेटिड हो गए लगते हैं।युवाओं के लिए मोदी ही आशा की एकमात्र किरण हैं। मोदी उनके लिए एक करिश्माई नेता हैं।
उम्रदराजों की जातिय खुन्नस, जातवाद,विचारधारा-आधारित राजनीति और उनका आदर्शवाद सियायी तौर पर मौन है शायद मन ही मन इससे बहुत कुछ तय हो। लेकिनयुवा-आम वोटरों में अखबार, टीवी चैनल की जगह रील्स ने ली हुई है।तभी चुनाव का हल्ला न होते हुए भी मुझे लगा सोशल मीडिया की समझ रखने वाला युवा वर्ग ही चुनाव का मौन निर्णयकर्ता है। युवाओं के मूड की उत्साहपूर्ण अभिव्यक्ति इंस्टाग्राम और फेसबुक पर हो रही है – रीलों और वीडियो के जरिए। स्वाभाविक तौर पर आभासी दुनिया के बाहर का शोरगुल कम है और उससे एक अजीब सी शांति है। पुराने लोगों का राजनीति और नेताओं से जहा मोहभंग हो गया है।वही नए लोग सक्रिय तो हैं मगर एक अलग आभासी दुनिया में।
वह समय चला गया है जब राजनीतिक प्रतिबद्धता और वोट किसे दिया जाना है, यह परिवार के बुजुर्ग महिला-पुरूष तय करते थे। अब शायद उलटे बुजुर्ग ही युवाओं की पसंद-नापसंद से प्रभावित हो रहे हैं। और युवाओं के लिए राजनीति विचारधारा पर आधारित नहीं है, बल्कि वह ज्यादा धर्म आधारित है, राम, राम राज्य और मोदी के करिश्मे पर।
इसलिए चुनाव में कांग्रेस या भाजपा का शोर या हल्ला-गुल्ला नहीं है। भाजपा के चीखते लाउडस्पीकर नहीं हैं, कांग्रेस की राजनीति और उसकी प्राथमिकताएं बताने वाले पैम्पलेट नहीं हैं और घर-घर जाकर नारे लगाने वाले स्थानीय प्रत्याशी के समर्थक भी नहीं हैं। लेकिन भगवा झंडे (भले रामनवमी के हवाले) बहुतायत में फहराते नजर आते हैं, मोटरसाईकिलों पर राम के नाम वाले झंडे लहराते दिखते हैं और राम के गीत बजाए जा
रहे हैं।
इसलिए उदासीनता भरे चुनावों का मूड मुझे भक्तिमय लगाहै। ज़मीन पर भयावह शांति है, जो गर्मी के सूरज की तरह तीखी और चुभने वाली है। पिछले दो चुनावों का उत्साह और जोश गायब है। हालांकि अभी तो यह शुरूआती समय है। क्या मतदान के शेष चरणों में भी और देश के दूसरे हिस्सों में भी मतदाताओं की चुप्पी बनी रहेगी, यह तो वहां जाने पर ही पता लगेगा। लेकिन राजस्थान के शेखावटी इलाके में चुनाव उतने ही उदास और निर्जीव नजर आ रहे हैं जितनी कि फतेहपुर की जीर्ण-शीर्ण हवेलियां। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)