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इस्लामवादी आंदोलनों को नई सांस!

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बहुत समय नहीं गुज़रा जब लग रहा था कि इस्लाम पुरातन, घिसी-पिटी रूढ़ियों की जंजीरों को तोड़ रहा है। मुसलमानों में बदलाव आ रहा है। पिछले कुछ सालों से धर्म के प्रति उनका रवैया बदल रहा था। वे पुराने बंधनों को तोड़ रहे थे। उनमें स्वतंत्र होने की तड़फ दिख रही थी। वे सुधारों की मांग कर रहे थे।

पश्चिम एशिया में इस्लाम के झंडाबरदारों – सुन्नी सऊदी अरब और शिया ईरान – के बीच की धार्मिक खाई को भरने का काम शुरू हो चुका था। वे एक-दूसरे को स्वीकार करने के लिए राजी नज़र आ रहे थे। मुस्लिम देशों में यहूदी राष्ट्र इजराइल के प्रति स्वीकार्यता भी बनने लगी थी। सन् 2020 के बाद से चार अरब राष्ट्रों ने अब्राहम समझौता स्वीकार कर इजराइल से सामान्य संबंध कायम करने की शुरूआत की थी। सऊदी अरब समेत कई देश भी यही करेंगे, ऐसा लग रहा था।

इस्लाम को राजनीति से विलग किया जा रहा था। उदाहरण के लिए ईरान को लें। गामन नाम के एक डच शोध समूह ने 2021 में एक ऑनलाइन रायशुमारी के नतीजों के आधार पर दावा किया था कि ईरान के लगभग 50,000 उत्तरदाताओं में से आधे से अधिक ने कहा कि ईरान की इस्लामिक क्रांति के बाद से उन्होंने अपना धर्म छोड़ दिया है या बदल लिया है। इसी तरह, सऊदी अरब के युवराज मोहम्मद बिन सलमान, जो दरअसल वहां के शासक हैं, ने अपने परिवार का 18वीं सदी के कट्टरपंथी इब्न अब्द अल-वहाब के अनुयायियों से नाता तोड़ लिया। उन्होंने स्वयं को 2018 में मुजाहिद अर्थात ‘धर्म सुधारक’ का दर्जा दिया। धीरे-धीरे सऊदी अरब में खुलापन आने लगा, हालांकि यह बहुत छोटे पैमाने का था, मगर था तो। क्षेत्र में करवाए गए सर्वेक्षणों में युवा वयस्कों ने कहा कि वे चाहते हैं कि मजहबी संस्थाओं का आधुनिकीकरण हो।

वहां की मस्जिदें लोगों को आकर्षित करने के लिए बड़े सितारों के कंसर्ट, फिल्म समारोहों और खेल प्रतियोगिताओं से मुकाबला कर रही हैं। विश्वविद्यालयों, कार्यालयों और रेस्टोरेंटों में अब पुरूषों और महिलाओं के एक साथ मिलने-बैठने पर पाबन्दी नहीं है। आर्थिक मजबूरियों के चलते महिलाओं को पशुओं को चराने से लेकर टैक्सी चलाने तक के वे काम भी करने पड़ रहे हैं जो परंपरागत रूप से पुरूष करते थे। और चाहे उसकी कोई भी वजह हो, लेकिन सन् 2034 में मुस्लिम बहुमत वाला सऊदी अरब फीफा विश्व कप की मेजबानी करने वाला है।

ईरान में महिलाओं के अधिकारों को लेकर बड़े विरोध प्रदर्शन हुए। यह इसके बावजूद कि कई प्रदर्शनकारियों को बेरहमी से मार दिया गया या गैरकानूनी ढंग से जेलों में ठूंस दिया गया। खाड़ी के रूढ़िवादी देशों में तलाक की दर कई पश्चिमी देशों से अधिक हो गई है। आर्थिक कठिनाईयों के चलते विवाह अधिक आयु में हो रहे हैं और समाज विज्ञानियों का कहना है कि शादी से पहले यौन संबंधों के मामले पहले से ज्यादा हो़ रहे हैं। संभव है कि मिस्र में सेना इस्लामवादियों को सत्ता से बेदखल कर दे। सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात में दुनिया के सबसे पुराने इस्लामी आंदोलन मुस्लिम ब्रदरहुड पर पांबदी लगा दी गई थी।

इस्लाम-आधारित राजनीति में हिंसक जेहादियों का दखल कम हो गया है। पूरी दुनिया में इस्लाम को लेकर जो तनाव और घबराहट थी, वह कम होने लगा था। सन् 2001 में पश्चिमी देशों और अन्य शक्तियों द्वारा शुरू किया गया ‘आतंक विरोधी  युद्ध’ अब उनकी प्राथमिकताओं की सूची में सबसे निचले पायदान पर है।

लेकिन 7 अक्टूबर को तबाही आई। हमास ने इजराइलियों का कत्लेआम किया और इजराइल ने बदला लेने की सौगंध खाई। और उसके बदले की कार्यवाही तब तक जारी रही जब तक गाजा में रह रहे प्रत्येक फिलिस्तीनी को मौत के घाट नहीं उतार दिया गया या वह गाजा छोड़ने पर मजबूर नहीं हो गया। इजराइल को कोई भी रोक नहीं सका और हम पिछले डेढ़ साल से मौत और रक्तपात के गवाह बने हुए हैं। मानवता तहस-नहस हो गई। संवेदनाएं मर गईं। करूणा समाप्त हो गई और सब एक-दूसरे से लड़ रहें हैं। इस्लामिक विद्रोहियों, लड़ाकों और जिहादियों की मौज हो गई है। दुनिया भर के इस्लामिक संगठनों और उग्रवादियों ने अपने पुराने सैद्वांतिक मतभेदों, पंथिक विभाजनों आदि को नजरअंदाज कर सीरिया के विद्रोहियों को उनकी जीत पर बधाई दी है। दमिश्क के नए शासक धार्मिक प्रथाओं और नियम-कायदों को कितनी कड़ाई से लागू करेंगे, इस बारे में अनिश्चितता बनी हुई है।

क्या गाजा पर हुए हमले और इस्लामिक विद्रोहियां के सत्ता पर काबिज होने से एक बार फिर पश्चिम और मुस्लिम विरोधी मानसिकता प्रबल होगी? क्या इसका जमीनी स्तर पर असर पड़ेगा?

गाजा में फिलिस्तीनियों का नरसंहार लगातार जारी है और यह हर मुस्लिम के मन में गुस्सा पैदा कर रहा है, खासतौर से युवा और शिक्षित वर्ग में। युवा, जो एक समय लोकतंत्र और स्वतंत्रता-समानता के आदर्शों के प्रबल समर्थक बन गए थे, अब और ज्यादा अतिवादी बन जाएंगे। और यदि हमें अगले साल के अंत तक न केवल इस क्षेत्र के बल्कि सारी दुनिया के उग्रवादियों की एक नई पीढ़ी उभरती हुई नजर आए, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आर्थिक समस्याएं, ढीला शासन और निरंकुशता, उग्रवाद के पनपने के लिए उर्वर भूमि उपलब्ध करवाते हैं। लीबिया, लेबनान और यमन पहले से ही असफल देश बन चुके हैं। मध्यपूर्व के सबसे अधिक जनसंख्या वाले दोनों देशों – मिस्र और ईरान -की अर्थव्यवस्था डावांडोल है। इसलिए मुस्लिम ब्रदरहुड की धमाकेदार वापिसी हो सकती है। उन्होंने एचटीएस की जीत पर ख़ुशी जाहिर करते हुए बयान जारी किया और “सीरिया की जनता को असद शासन के खात्मे” का श्रेय दिया। हमास भले ही कमजोर हो गया है, लेकिन वह खत्म नहीं हुआ है। अफगानिस्तान, पूर्वी सीरिया और पाकिस्तान में जिहादी पहले से ही सशक्त हैं। बांग्लादेश में भी इस्लामिक उग्रवाद का उभार हो सकता है।

इतिहास गवाह है कि इस्लामवाद, कमजोर होने के बाद दुबारा मज़बूत होता आया है। कई लोगों ने 2011 में ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद जिहादवाद के खात्मे की खुशियां मनाईं थीं। लेकिन इसके केवल दो साल बाद पूरे पश्चिम एशिया में इसने अच्छी खासी ताकत हासिल कर ली थी।

मुसलमानों और इस्लाम से संबंधित इलाकों में हाल के घटनाक्रम का नतीजा एक भयानक विस्फोट के रूप में सामने आ सकता है। हम अपने देश का ही उदाहरण लें। मुसलमानों को लगातार दमित और प्रताड़ित किया जा रहा है, उन्हें उकसाया जा रहा है और अपशब्दों का शिकार बनाया जा रहा है। क्या वह दिन विध्वंसकारी नहीं होगा जिस दिन वे जागेंगे और जवाब देंगे? थिंक टैंको और नीति-निर्धारकों को संभवतः सबसे अधिक चिंता इस बात की है कि शिया और सुन्नी एकसाथ न हो जाएं। ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के एंड्रू हम्मोंद का कहना है कि “अगर दुनिया को लगता है कि इस्लामवादी आन्दोलन अंतिम साँसें ले रहा है, तो वह दिन में स्वप्न देख रही है। मेरा मानना है कि लोकलुभावन राजनीति राजनीतिक इस्लाम के पुनर्जीवित होने का मार्ग प्रशस्त कर सकती है, जिस पर काबू पाना काफी मुश्किल साबित हो सकता है।” (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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