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पुतिन को लेकर अफ्रीकी देश आशंकित

गुजरे 522 दिनों में यदि कोई पूछता कि आज की दुनिया के नेताओं में से कौन सबसे ज्यादा बदनाम है तो उत्तर तपाक से मिलता– व्लादिमीर पुतिन। यूक्रेन युद्ध और उसके दौरान हुए जुल्मों और दुनिया के कई देशों में अनाज का संकट पैदा करने में उनकी भूमिका ने पुतिन को इस दशक का सबसे बड़ा खलनायक बना दिया है। और हाल में खत्म हुए अफ्रीका-रूस शिखर सम्मेलन से यह और साफ़ हो गया।

सन 2019 से कोविड काल को छोड़ कर हर साल आयोजित होते आ रहे इस सम्मेलन में हिस्सा लेने अफ्रीकी नेता 27 जुलाई को सेंट पीटर्सबर्ग पहुंचे, मगर इस बार उनकी संख्या कम थी। अफ्रीका के 54 राज्य प्रमुखों या शासनाध्यक्षों में से 20 से भी कम इसमें शामिल हुए जबकि सन् 2019 में इनकी संख्या 43 थी। यह गिरावट यूक्रेन पर रूसी हमले से जुड़ी अफ्रीकी देशों की चिंताओं के कारण हुई। और यह तब जब कि रूस 130 करोड़ की आबादी वाले इस महाद्वीप के ज्यादा से ज्यादा देशों से दोस्ती करना चाहता है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेंबली में यूक्रेन युद्ध के पहले साल में युद्ध के मुद्दे पर पांच बार वोटिंग हुई। अधिकांश मौकों पर अफ्रीका के 54 देशों में से 19 ने यूक्रेन का समर्थन किया, जबकि रूस का समर्थन केवल दो देशों ने किया। लेकिन, कुल मिलाकर ऐसे 52 प्रतिशत अवसरों पर अफ्रीकी देशों ने मतदान में भाग ही नहीं लिया।

अफ्रीकी देशों के इस रवैए के पीछे कोई इकलौती वजह नहीं है। इनमें से कई देशों में तानाशाह कुलीनों का शासन है, जिनके रूस से नजदीकी संबंध हैं और इनमें से कुछ में रूस के वैगनर ग्रुप के भाड़े के सैनिक हैं। कई देशों को सोवियत संघ से उनके ऐतिहासिक संबंध आज भी याद हैं, या उनमें पश्चिम की विदेशी नीति को लेकर शंकाएं हैं। ज्यादातर देशों की सोच यह है कि हर बार भूराजनीतिक बदलाव ने साथ अपनी वफादारी बदलने से अच्छा है संतुलित रवैया अपनाना।

जहां तक पुतिन के रूस का सवाल है, उन पर ज्यादातर पश्चिमी देशों ने प्रतिबंध लगाए हुए हैं और उनका देश अलग-थलग पड़ गया है। ऐसे में अब वे अपेक्षाकृत कम विकसित देशों के नजदीक जाने पर जोर दे रहे हैं। उनका कहना है कि रूस का भविष्य अफ्रीका और एशिया में है, जहां के देश आर्थिक विकास के अनुमानों के मुताबिक भविष्य में बहुत बड़े बाजार बन जाएंगे। लेकिन पुतिन ने अफ्रीका के साथ व्यापार का 40 अरब डॉलर का जो लक्ष्य सन् 2019 में तय किया था, वह कहीं से भी पहुंच में नहीं लगता। अफ्रीकी देशों पर रूस का आर्थिक प्रभाव अभी भी चीन जैसे देशों की तुलना में बहुत कम है और पश्चिमी प्रतिबंधों के चलते उसमें और परेशानियां आ रही हैं। लेकिन उनका ‘ब्लैक सी ग्रेन इनिशिएटिव’ से पीछे हटना अफ्रीकी देशों द्वारा रूस से अपने संबंधों पर फिर से विचार करने का मुख्य कारण बन गया है। ‘ब्लैक सी ग्रेन इनिशिएटिव’  रूस, यूक्रेन, तुर्की और संयुक्त राष्ट्र संघ के बीच एक समझौता था, जिसके अंतर्गत काला सागर में स्थित यूक्रेन के बंदरगाहों से अनाज और खाद से लदे जहाजों को सुरक्षित निकलने दिया जा रहा था। पिछली 17 जुलाई को रूस ने कहा कि वह एक साल पहले हुए उस समझौते से हट रहा है, जिसके नतीजे में यूक्रेन से अनाज के निर्यात में बाधाएं हटा दी गईं थीं और विश्व खाद्य संगठन के अनुसार अनाज की कीमतों में 14 प्रतिशत की गिरावट आ गई थी। हार्न ऑफ अफ्रीका (अफ्रीका का सबसे पूर्वी हिस्सा) में काम कर रहे एनजीओ का कहना है कि रूस के इस फैसले से महंगाई और भुखमरी बढ़ेगी।

अनाज के बढ़ते दामों के चलते कई अफ्रीकी नेताओं को भारी घरेलू दबाव और गृहयुद्ध के खतरे का सामना करना पड़ रहा है और उन्होंने रूस के इस समझौते से हटने को लेकर नाराजगी व्यक्त की है। केन्या के विदेश मंत्रालय के प्रमुख ने कहा ‘‘रूस का ‘ब्लैक सी ग्रेन इनिशिएटिव’ से पीछे हटने का फैसला विश्व खाद्य सुरक्षा की पीठ में छुरा भोंकने जैसा है और इसका सबसे ज्यादा बुरा असर हार्न ऑफ अफ्रीका के देशों पर पड़ेगा जो पहले से ही सूखे के कारण समस्याओं से जूझ रहे हैं”।

लेकिन इस दो-दिवसीय सम्मेलन से अफ्रीकी देशों को खाली हाथ लौटना पड़ा क्योंकि पुतिन ने रूस से इस समझौते में दुबारा शामिल होने ताकि यूक्रेन से अनाज का निर्यात जारी रह सके और युद्ध को खत्म करने का रास्ता खोजने के अनुरोध में न के बराबर रूचि दिखाई। इससे उलट उन्होंने पत्रकार वार्ता में कहा कि वह ‘‘सबसे गरीब देशों” को अपनी आमदनी का एक हिस्सा देगा। पर सवाल यह है कि क्या रूस बुरकिनो फासो, जिम्बाब्वे, माली, सोमालिया, इरीट्रिया और सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक को मुफ्त में अनाज देगा?

रूस निश्चित तौर पर अफ्रीकी देशों को अनाज और ईंधन की सप्लाई करने पर ध्यान केंद्रित करेगा, जिससे अफ्रीका के कुलीन वर्ग को रूस के साथ निकट संबंध रखने के लिए प्रेरित किया जा सके। हथियार, भाड़े के सैनिक और वैगनर ग्रुप की सेवाएं– इन सबके चलते सत्ता से किसी तरह भी चिपके रहने के लिए आतुर अफ्रीका के तानाशाह शासकों के लिए रूस एक आकर्षक मित्र हो सकता है। कई देशों जैसे- अल्जीरिया, मेडगास्कर, मोजाम्बिक, युगांडा और जिम्बाब्वे- जिनके शासक वर्ग के रूस से नजदीकी संबंध हैं- ने कई मौकों पर संयुक्त राष्ट्रसंघ में हुए मतदान में भाग नहीं लिया। लेकिन शोध और मतदान के विश्लेषण से यह साफ है कि लगभग 34 अफ्रीकी देश ऐसे हैं, जहां रूस का प्रभाव घट रहा है। सम्मेलन में कम देशों की भागीदारी से स्पष्ट है कि अफ्रीका के नेता रूस से अपने संबंधों को लेकर आशंकित हैं। हालांकि पुतिन और उनके मातहत इसका दोष पश्चिमी दबाव पर मढ़ते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि यह अफ्रीका की उस स्वायत्तता को प्रतिबिंबित करता है, जिसकी वकालत वे करते रहते हैं।

Published by श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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