औरत होना आसान नहीं है। औरतों को मर्दों के बराबर आजादी नहीं मिलती। समाज उन्हें गलत ठहराने के लिए हमेशा तैयार रहता है। हम औरतों को एक साथ बहुत सी भूमिकाएं निभानी पड़ती हैं। लेकिन हमारी सराहना करने में कंजूसी बरती जाती है। हम आवाज़ उठातीं हैं, लेकिन अक्सर उसे दबा दिया जाता है। कहने को हम यह तय कर सकती हैं कि हम क्या करें। मगर असल में हमें सीमित विकल्पों में से किसी एक को चुनना पड़ता है। हम कहीं भी जाने के लिए आजाद हैं, लेकिन अपनी मर्ज़ी से लोगों से घुलमिल नहीं सकतीं।
एक ऐसी दुनिया में औरत होना आसान नहीं है जो क्रूर, बेरहम और निष्ठुर है। लेकिन फिर भी हम आगे बढ़ रही हैं, मुकाबला कर रही हैं और हमने ठाना है कि हम कभी हार नहीं मानेंगीं। हम अपने अधिकारों के लिए लडती हैं। हमारी बेटियां जन्म ले सकें और अच्छी जिंदगी जी सकें, इसके लिए लड़ती हैं। और हमें रोशनी नजर आ रही है। भविष्य उम्मीद भरा है।
लेकिन एक देश ऐसा है जहां हर दिन, अँधेरी रात होता है। एक देश ऐसा है जहां औरत होना जुर्म है, जो महिलाओं के लिए दुनिया की सबसे बुरी जगह है। वह देश है अफगानिस्तान।
तीन साल पहले अफगानिस्तान की औरतों से उनकी आजादी छीन ली गई। तालिबान आए और उनके सपनों को अपने पैरों तले रौंद दिया। उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान की लड़कियों के लिए स्कूल के दरवाज़े बंद कर दिए। उन्हें खुले में खेलने की मनाही हो गई। न वे कोई काम कर सकती हैं और न गली के नुक्कड़ पर खड़े होकर अपनी सहेली से गप्पें मार सकती हैं। युवा हों या अनुभवी, सभी अफगानी महिलाओं को सभी तरह की नौकरियों से बाहर कर दिया गया। यहाँ तक कि वे सब्जी लेने तक के लिए अपने घरों से नहीं निकल सकतीं।
अफगानी लड़कियों की नयी पौध, जिसने अमेरिकी कब्ज़े के दौरान सपने देखना सीख लिया था, फिर से उसी तंग, अँधेरी गली में धकेल दी गईं हैं, जिसमें उनकी माएं और दादियाँ तालिबान के पिछले शासनकाल में अपने दिन बिताती थीं। पुराना, अँधेरा दौर, फिर से वापस आ गया है। एक बार फिर लड़कियों का कच्ची उम्र में ब्याह किया जा रहा है, उन्हें घरेलू हिंसा का शिकार बनाया जा रहा है, ख़ुदकुशी करने पर मजबूर किया जा रहा है, ड्रग्स का आदी बनाया जा रहा है और उन्हें सार्वजनिक जीवन के सभी क्षेत्रों से बाहर कर दिया गया है। और हालातों में बदलाव की कोई उम्मीद नहीं है। यह है अफगानी औरतों की हालत।
और अब तो तालिबान के यह फतवा भी जारी कर दिया है कि औरतों की आवाज़ उनके घर के बाहर सुनायी नहीं देनी चाहिए। यह नयी शर्त तालिबान सरकार द्वारा पिछले महीने के अंत में जारी 114 पेज की महिलाओं के लिए आचार संहिता में शामिल है।
तालिबान द्वारा अफ़ग़ानिस्तान पर फिर से कब्ज़ा जमाना उस देश के पतन की शुरुआत तो था ही, वह महिलाओं की स्थिति में पतन की शुरुआत भी था। उनका जीवन पूरी तरह बदल गया है – और यह बदलाव अत्यंत भयावह और दुखद है। अफ़ग़ानिस्तान की जनता ने पिंजरे से बाहर झांकना और पंख फैलाकर आकाश में उड़ना शुरू ही किया था कि उसे एक दूसरी दुनिया, एक दूसरे युग में धकेल दिया था – वह दुनिया और वह युग जिसमें हर चीज़ पर रोक है, जिसमें लड़कियां हँस नहीं सकतीं, जिसमें संगीत के लहरियां हवा में घुल नहीं सकतीं, जिसमें कला पर पहरे हैं।
मगर फिर भी उम्मीद की एक किरण बाकी थी।
वह क्यों? वह इसलिए क्योंकि तालिबान ने दावा किया था कि वे बदल गए हैं। उन्होंने महिलाओं के लिए हाईस्कूलों और विश्वविद्यालयों के दरवाजे बंद कर दिए थे मगर इशारों-इशारों में कहा था वे शायद उन्हें फिर से खोल देंगे। उन्होंने कहा था कि कड़े प्रतिबन्ध ढीले किये जाएंगे। मगर हालिया आचार संहिता ने सभी आशाओं पर पानी फेर दिया है। औरतों को घर की चहारदीवारी में कैद कर दिया गया है। उन्हें कई मीटर लम्बे काले ओर नीले लबादों में गुम कर दिया गया है। न उनके बाल बाहर झांक सकते हैं और न उनके पैर के नाखून। उनका कोई भविष्य नहीं है। उनका केवल एक काम है – चौका-चूल्हा और बच्चे पैदा करना।
और दुनिया देख रही है – निशब्द। पूरी दुनिया के सामने तालिबान ने लैंगिक भेदभाव का एक पूरा ढांचा खड़ा कर दिया है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय, दुनिया के पुराने और नए नेता – कोई उनकी मदद करने के लिए आगे नहीं आया है। सत्ता के भूखे दो विक्षिप्त पुरुषों को सब कुछ मिल रहा है – धन और हथियार। वे लड़ रहे हैं, दुनिया को बर्बाद कर रहे हैं। मगर अफ़ग़ान महिलाओं की किसी को फिक्र नहीं है। उन्हें भुला दिया गया है। महिलाओं के अधिकार और सुरक्षा चुनावों में मुद्दे हैं। महिलाएं अपना सर खुला रख सकती हैं या नहीं, यह क्रांतियों का मसला बन रहा है। मगर अफ़ग़ानिस्तान की महिलाएं इस सबसे अछूती हैं।
वे नाउम्मीदी के अँधेरे में आशा का दीपक जला रही हैं। वे पढने-पढ़ाने के तरीके खोज रही हैं। वे अपनी आवाजें हम तक पहुंचा रही हैं – इस उम्मीद में कि हम उन्हें सुनेंगे। उन्हें पता है कि सफ़ेद घोड़े पर सवार कोई राजकुमार उन्हें कैद से छुड़ाने नहीं आएगा। वे केवल चाहती हैं कि उन्हें सुना जाय, उन्हें याद रखा जाए। वे चाहती हैं कि दुनिया जाने और माने कि वे भी कहीं न कहीं हैं। अँधेरे और निराशा की बीच वे लड़ रही हैं। इस युद्ध में वे अकेली हैं और उनका प्रतिद्वंदी उनसे कहीं अधिक ताकतवर है। उनके युद्ध में उनकी मदद करने वाला कोई नहीं है। उन्हें कोई हथियार नहीं दे रहा है, कोई सेना उनकी मदद के लिए नहीं आने वाली है। उनकी खातिर दुनिया तालिबान पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाएगी। मगर फिर भी वे लड़ रही हैं। आखिर वे औरतें हैं! (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)