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नेताओं का आईने में इतराना !

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बच्चों की एक प्रसिद्ध कहानी “स्नोवाइट और सात बौने” की एक पात्र है एक दुष्ट रानी। उसके पास एक जादुई आईना है, जिससे वह रोज़ सुबह उठने के बाद पूछती है कि बता इस दुनिया में सबसे सुंदर कौन है? और आईना हमेशा कहता है कि आप ही सबसे सुंदर हो रानी। यह सुन रानी खूब इतराती है।

इस लोक लुभावनवादी दुनिया में हर नेता सुबह सो कर उठने के बाद ही नहीं बल्कि हर घंटे आईने से पूछता है कि बता दुनिया में सबसे ताकतवर कौन है। फिर वह आईने में अपनी छवि देखता है, भौहें चढ़ाता है और सिकोड़ता हैं, उसकी आंखों में चमक होती है और वह अपने चेहरे को तरह-तरह से ऐंठता है ताकि आईने को यह भरोसा हो जाए कि वह ही सबसे शक्तिशाली है।

मगर कहानी के आईने की तरह, यह आईना शायद हमेशा सच नहीं बोलता।

इक्कीस जनवरी को शपथ लेने के तुरंत बाद, ट्रंप ने वायदा किया कि उनका दूसरा कार्यकाल अमेरिका का स्वर्णयुग होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 15 अगस्त 2021 को पहली बार ‘अमृत काल’ शब्द का इस्तेमाल किया था – अर्थात भारत का स्वर्णकाल जिसमें वह फिर सोने की चिड़िया बन जाएगा।

इसी तरह, कई साल पहले व्लादिमीर पुतिन ने 2012 में सोवियत साम्राज्य को एक बार फिर खड़ा करने की इच्छा जाहिर की थी और 2012 में शी जिन पिंग ने भी अपने सपने के चीन की परिकल्पना प्रस्तुत की थी।

ट्रंप और मोदी लोकलुभावन राजनीति के प्रोडक्ट हैं। वे लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए हैं और उन्होंने पिछली सरकारों के खिलाफ सत्ता-विरोधी लहर पर सवार होकर जीत हासिल की। वहीं पुतिन और शी जिनपिंग, कम्युनिज्म की पृष्ठभूमि से निकले और धीरे-धीरे तानाशाह बने। लेकिन लोकलुभावनवाद के इस दौर में इन दोनों श्रेणियों के नेताओं के बीच का अंतर धुंधला हो गया है। लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए नेता भी धीरे-धीरे तानाशाही की ओर बढ़ रहे हैं। ट्रंप ने 20 जनवरी 2025 को मुक्ति दिवस बताया है। ठीक उसी तरह जैसे भारत के मामले में अब अलग-अलग तारीखों को स्वतंत्रता दिवस बताया जाने लगा है – 15 अगस्त 1947, 16 मई 2014 और 22 जनवरी 2024। शायद यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा।

लोक लुभावनवादी नेता बदले की आग में जलते रहते हैं। उनकी व्यक्तिगत खुन्नसें, उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण बन जाती हैं। वे अपने आपको सबसे बड़ा देशभक्त साबित करना चाहते हैं।  उनमें से एक मेक्सिको की खाड़ी का नाम बदलकर अमरीका की खाड़ी कर देना चाहता है वहीं दूसरा अचानक नोटबंदी कर देता है।

लेकिन इससे भी अधिक चिंताजनक है सत्ता के ढांचे में बदलाव – सत्ता के गलियारों में कारपोरेट क्षेत्र के बड़े खिलाड़ियों का दबदबा कायम होना। कल हमने देखा कि अमेरिका के कुबेरपति – एलन मस्क, जेफ बेजोस और मार्क जुकरबर्ग – ट्रंप की मंत्रिपरिषद में शामिल होने जा रहे लोगों के आगे और ट्रंप की संतानों के ठीक पीछे खड़े थे। इससे एक खतरनाक टेक कुलीनतंत्र के उदय की सम्भावना नज़र आती है, जिसकी चेतावनी जो बाइडन ने पिछले हफ्ते दी थी। ऐसे ही हम भी जानते हैं कि हमारे देश में भी दो ‘ए’ का राज है।

लेकिन क्या जनता इससे चिंतित है? बिलकुल नहीं। वो तो एकदम बेफिक्र है।

आपने देखा होगा कि मेक अमरीका ग्रेट अगेन (एमएजीए) के समर्थक ट्रंप के शपथ लेते समय खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। आपको याद होगा कि मोदी के सत्ता संभालते समय कितना जश्न मनाया गया था। यह लोकलुभावनवाद का स्पष्ट संकेत होता है। लोकलुभावनवादी नेता दावा करते हैं कि वे और सिर्फ वे ही जनता की नुमाइंदगी करते हैं। वे जनता बन जाते हैं और जनता उनकी हो जाती है।  और इसके साथ ही ट्रंप असली अमेरिका के प्रतिनिधि बन जाते हैं और मोदी, हिंदू भारत के।

लोकलुभावनवादी दावा करते हैं कि वे राजनीति को आम लोगों के निकट ला रहे हैं। यहां तक कि वे प्रत्यक्ष लोकतंत्र के पक्ष में जोरदार तर्क देते हैं। वे कहते हैं कि केवल उन्हें ही जनता की इच्छाओं की समझ और परवाह है। मगर वे यह नहीं मानते कि जनता की इच्छा क्या है, इसका पता ज़मीनी स्तर पर लगाया जाना चाहिए। वे नहीं चाहते कि नागरिक आपस में विचार-विमर्श कर यह तय करें कि कौनसी नीति उनके लिए बेहतर होगी। वे मानते हैं कि उन्हें जनता की इच्छाओं की जनता से अधिक बेहतर समझ है।

हम सब देख रहे हैं कि संस्थाओं के प्रति भरोसा घटता जा रहा है – सरकारी तंत्र में, नागरिक समाज में और मीडिया में भी। सोशल मीडिया और पेड इन्फ्यूलेंसर्स फल-फूल रहे हैं, जो किसी भी नेता के तौर-तरीकों को तर्कसंगत सिद्ध करना जानते हैं – ऐसे तौर-तरीकों को जो अन्यथा चिंता के सबब बनते।

इससे भी बुरी बात यह है कि जिस जनभावना के मुताबिक काम करने का दावा ये लोकलुभावनवादी नेता करते हैं, वह वास्तव में काल्पनिक होती है। जनता की इच्छाएं कभी एक-सी नहीं हो सकती हैं। लेकिन ये नेता जनता के मुंह में अपनी बात डालते हैं – उनके द्वारा सृजित उस काल्पनिक जनता के मुंह में जो एकदम एक-सा सोचती है।

लोकलुभावनवादी राजनेता लोकतांत्रिक राष्ट्र के नेताओं से अलग होते हैं। वे एक अलग श्रेणी के कुलीन होते हैं जो राजनैतिक पवित्रता की सामूहिक कपोल कल्पना की मदद से सत्ता पर काबिज होने की कोशिश करते हैं, जो देश की राजनैतिक परंपरा का अपना स्वयं का संस्करण सृजित करते हैं। वे प्रसिद्धि हासिल करना चाहते हैं, वे लोगों का ध्यान आकर्षित करने वाले दावे और वादे करते हैं, राष्ट्रीय मिथक गढ़ते हैं। वे चाहते हैं कि उनकी नौटंकियों को सब देखें और सराहें और फिर से वही नौटंकी करने की फरमाईश करें।

इसलिए हर रात वे दर्पण के सामने खड़े होते हैं। वे दर्पण से कहते हैं कि वह केवल वह बात कहे जो वे सुनना चाहते हैं। हमारे चारों ओर ऐसे बहुत ज्यादा नेता हैं जो ‘सबसे शक्तिशाली’ बनना चाहते हैं।

“ए आईने बता दुनिया में सबसे ताकतवर कौन है।’

अतीत में ऐसे नेता हुए हैं जो विभाजक थे। लेकिन उन्हें भी तीखी आलोचना और यहां तक कि हिंसक हमलों का भी सामना करना पड़ा। स्वर्णयुग, अमृत काल शायद संभव हो सकता है। लेकिन स्वयं के प्रति दया-भाव जगाने वाले, ध्यान आकर्षित करने की जुगत में लगातार जुटे रहने वाले दम्भी नेताओं के प्रति श्रद्धा भाव ठीक नहीं है। वे जनता को सशक्त करने की जगह, स्वयं को सशक्त करना चाहते हैं। ऐसा नेता जब आईने से पूछेंगे कि सबसे ताकतवर कौन है तो आईना ही किरच-किरच हो जाएगा  (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

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By श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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