2014 में वाराणसी ने एक बाहरी व्यक्ति को उम्मीद, भरोसे और आस्था के साथ गले लगा लिया। और वह उनकी भक्ति में डुबा। लेकिन अब, 2024 के मौजूदा वक्त में? …काशी बदल गयी है, उसका माहौल बदल गया है।… इस ऐतिहासिक, आदिशहर की प्राचीनता खो गई है। नया शहर, नई सभ्यता बनाने, नए रंग रोंगन के लिए पुरानी काशी को नष्ट कर दिया गया है, जो ऊपरी तौर पर ताजातरीन और चमकीली भले दिखे लेकिन अंदर से खोखली, खंडित और दिखाऊ है – काशी का एक ऐसा निर्माण, ऐसा विकास है जिसकी कोई आत्मा नहीं है।
वाराणसी से श्रुति व्यास
वाराणसी। शुरुआत यहीं से हुई थी। इसी शहर से भारतीय चुनावों, उसकी राजनीति, उसके मूड और उसके विमर्श की दशा और दिशा का 2014 में बदलना शुरू हुआ था।
और फिर, राजनीति और उसके बदलते नैरेटिव ने वाराणसी शहर को ही बदल दिया।
वाराणसी देश की आध्यात्मिक राजधानी है – तीर्थयात्रियों, पंडे-पुरोहितों और पर्यटकों का शहर। लेकिन 2014 में वाराणसी राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र और नेताओं का तीर्थ बन गया। इसके पहले तक वाराणसी में हमेशा पूजा-पाठ, प्रार्थनाओं की हल्की प्रतिध्वनि गूंजती थी और मंदिरों की घंटियों व शंखों के आवाज़ कभी मंद नहीं पड़ती थी। लेकिन फिर सब पर भारी राजनीति के सुर हो गए। आस्था और राजनीति का घालमेल हो गया। वाराणसी राजनैतिक सुर्खियों का केंद्र बना। राजनीति यहाँ का स्थाई भाव बन गया। भीड़ भरी संकरी सड़कें भगवा में रंग गईं। मोदी का मुखौटा पहने लोग ढोल और नगाड़ों की थापों पर नाचते नजर आने लगे। ‘हर हर मोदी, घर घर मोदी’ के नारे गूँजने लगे और शहर हर-हर की नई गूंज में किलकारी मारते हुए। काशी के लोग खुश, बल्कि यूं कहें कि मस्त थे। चुनाव के समय हर बार लगा कि चुनाव नहीं बल्कि वाराणसी में कोई मेला, कोई उत्सव हो।
धार्मिक आस्थाएं गौण हो गईं थी। देश के भावी प्रधानमंत्री के प्रति भक्तिभाव हर गली और घाट में व्याप्त था। मोदी ने काशी को चुना था तो काशी ने मोदी को गले लगा लिया। वे 3,71,784 वोटों के बड़े अंतर से जीते और दिल्ली के सिंहासन पर विराज गए।
मोदी के प्रति यह आस्था और उत्साह 2019 के चुनावों में भी कायम रहा। शहर उतना ही गदगद था जितना 2014 में। लोगों के उनके प्रति विश्वास में कोई कमी नहीं आई थी। जोश और उत्साह भरपूर था। सारे शहर को मोदी के पोस्टरों से पाट दिया गया था। भाजपा के झंडे साईकिल रिक्शों, मकानों की छतों और पवित्र गंगा नदी में चलने वाली नावों में फहराते नजर आते थे। मोदी के पक्ष में जबरदस्त माहौल बना और इस बार वे पहले से भी बड़े अंतर – 4,79,505 वोटों से जीते।
इस तरह वाराणसी मोदी का किला, उनका गढ़ बना। वाराणसी ने एक बाहरी व्यक्ति को उम्मीद, भरोसे और आस्था के साथ गले लगा लिया। उनकी भक्ति में डुब गया।
और अब, 2024 के मौजूदा वक्त में? काशी बदल गयी है, उसका माहौल बदल गया है। पिछले दो चुनावों का नशा उतर गया है। इस बार प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र, मोदी के उन्माद में सराबोर नहीं है। बाकी देश की तरह वाराणसी में भी उदासीनता और मोहभंग का माहौल है, लोगों में ‘कोई नृप होई हमें का हानि’ का भाव है।
आगे बढ़े उससे पहले वाराणसी की थोड़ी चर्चा कर ली जाए। शिव का यह अति-प्राचीन शहर, दन्तकथाओं और गूढ़ ज्ञान का नगर माना जाता है।
और वह नगर दस वर्षों में नाटकीय और जबरदस्त बदलाव पाए हुए है। यह पहले की तरह यह अब भीड़भाड़ वाला और गंदा शहर नहीं है। शहर के भीतरी इलाके अब खुले-खुले नजर आते हैं। सड़कें चौड़ी हो गई हैं। इसके नतीजे में कई पीढ़ियों से यहां रह रहे काशीवासी अपने पुश्तैनी घर छोड़कर, मामूली मुआवजे लेकर शहर के बाहर बसने को बाध्य हुए हैं। सड़कें भले ही चौड़ी हो गई हों, घाट बड़े हो गए हों, नया ‘नमो घाट’ बनाने के लिए भूमि उपलब्ध हो गई हो, लेकिन इससे शहर परत-दर-परत अपनी अतीत से, अपनी रहयात्मकता से, आध्यात्मिकता और अपने रूहानी चरित्र से महरूम हो गया है।
अलसुबह, जब सूरज और हवा की गरमाहट सुखद और बर्दाश्त किए जाने लायक थी, तब मैंने बॉलीवुड गानों की धुनों के गूंज के बीच घाटों पर दिन की शुरूआत होते देखी। सुबह की गंगा आरती के बाद मैंने देखा कि बड़ी संख्या में पर्यटक अपने शरीर, मन और आत्मा को ठंडक पहुंचाने के लिए गंगा में डुबकियां लगाने लगे है। बच्चे तैरने के गुर सीख रहे थे और आस्थावान हाथ जोड़कर गंगा की प्रार्थना तथा उसके प्रति अपना आदर व्यक्त कर रहे थे। नमो घाट सहित काशी के घाटों को देखकर मुझे अहसास हुआ कि किस तरह एक ‘नए भारत’ ने वाराणसी शहर की प्राचीनता हर ली है। आध्यात्मिकता की आभा फीकी पड़ गयी है। शोर-शराबे, कंक्रीट और खुरदुरे, सतही ‘विकास’ का सर्वत्र बोलबाला है। शहर बदल गया है, उसका वातावरण बदल गया है। अब वह न शांतिपूर्ण है और न दिलोदिमाग और आत्मा को मोह लेने वाला है। तीर्थस्थल की आबोहवा का सहज बहाव, उसका आध्यात्मिक स्पंदन खो गया है।
भव्य काशी कोरिडोर कई मंदिरों और मकानों को गिराकर बनाया गया है जिससे शहर आने वाले को अब नहीं लगता कि वह अतीत में, महादेव की नगरी में चल रहा है। इतिहास और विरासत की प्राचीनता को बलि चढ़ा दिया गया है। मणिकर्णिका घाट का मलबे और गंदगी भरा रूप ‘नई‘ वाराणसी की पहचान बन गया है।
सचमुच इस ऐतिहासिक, आदिशहर की प्राचीनता खो गई है। नया शहर, नई सभ्यता बनाने, नए रंग रोंगन के लिए पुरानी काशी को नष्ट कर दिया गया है, जो ऊपरी तौर पर ताजातरीन और चमकीली दिखती है लेकिन अंदर से खोखली, खंडित और दिखाऊ है – एक ऐसा निर्माण, ऐसा विकास है जिसकी कोई आत्मा नहीं है। यह कार्डबोर्ड का बना शहर लगता है जो न तो कल्पनाशीलता जगाता है और ना ही सौंदर्यबोध।
मुझे नहीं लगता कि जब मोदी ने वाराणसी को क्योटो जैसी स्मार्ट सिटी बनाने की बात कही थी तब उनके मन में ऐसा वाराणसी बनाने का सपना रहा होगा। वाराणसी शहर की आत्मा नष्ट हो गई है, इसकी बुद्धि और विवेक छिन गए हैं और वह अब ज्ञान, आध्यात्मिकता का स्त्रोत नहीं लगती। काशी अब देसी पर्यटकों की धार्मिक डिजनीलैंड बन गई है। तभी स्थानीय पत्रकारों के अनुसार, विशेषकर पिछले पांच सालों में, वाराणसी आने वाले विदेशी पर्यटकों की संख्या में बहुत गिरावट आई है। एक सम्मानित और ज्ञानी काशीवासी का अनुमान है कि यह संख्या एक तिहाई रह गई है। आखिर विदेशी पर्यटक चौड़ी सडकें और चमचम करती इमारतें देखने तो काशी नहीं आते थे!
वाराणसी में विकास तो हुआ है पर यह कैसा विकास है जिसने आधुनिकता और परंपरा को एक दूसरे से एकदम विलग कर दिया है। ऐसा विकास किस काम का जिसमें कुछ दिनों के लिए आने वाले पर्यटकों की खातिर वहां के निवासियों को अपने घरों से महरूम करके, शहर से बाहर बसने के लिए बाध्य कर दिया जाए?
“वाराणसी पहले जैसा नहीं रहा। कितनी ही गर्मी क्यों न हो पहले लोग काशी विश्वनाथ जाते थे। गली सकरी ही सही, लेकिन ठंडी होती थी…अब इन दिनों आप सुबह 8 बजे के बाद जा नहीं सकते,” प्रकाश शिकायती लहजे में प्यास से बेहाल पर्यटकों को ठंडे पानी की बोतलें देते हुए बताता हैं। वह दशावमेध घाट पर एक छोटी सी दुकान चलाता हैं, उसकी कई पीढ़ियां काशी में रहती आईं हैं लेकिन हाल में उनका घर सड़क चौड़ीकरण परियोजना की बलि चढ़ गया।
उसकी बात से गर्मी में चढ़ते पारे के बीच नाराजगी के अंडरकरंट को महसूस किया जा सकता है। और यह सुस्त बल्कि सुप्त चुनावी माहौल से भी जाहिर होता है। यहां न मोदी का उन्माद है न उनको लेकर कोई उल्लास है। काशी विश्वनाथ मंदिर की पृष्ठभूमि में ‘विकास भी, विश्वास भी’ लिखे भाजपा के पोस्टर जरूर दिखते हैं लेकिन काफी दूर-दूर।
“यहां तो सब एकतरफा है। बाकी सब जगह गड़बड़ है”, पंकज अस्सी घाट पर मेरे लिए लेमन मसाला चाय बनाते हुए पूरे यकीन से ऊंची आवाज में कहते हैं। फिर मुझे चाय का कप पकड़ाते हुए बताते हैं, “पर पहले जैसा नहीं रहा। मोदी जी पापुलर हैं क्योंकि कांपटीशन नहीं है”।
वाराणसी में कोई कड़ी टक्कर नहीं है। यह अभी भी मोदी का गढ़ है। कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष अजय राय यहां हार की हेटट्रिक बनाने जा रहे हैं। लेकिन इस बार मोदी की जीत 2014 या 2019 जैसी नहीं होगी। शायद इसी वजह से केवल छह अन्य उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतरने की इजाजत दी गई। लोकप्रिय मिमिक्री कलाकार श्याम रंगीला ने चुनाव लड़ने के लिए पर्चा दाखिल किया था लेकिन वह सिर्फ इस आधार पर निरस्त कर दिया गया कि उन्होंने शपथ नहीं ली!
पर भाजपा के रणनीतिकार चिंतित हैं। वह इसलिए क्योंकि उन्हें संदेह है वे 2019 में मोदी की जीत के 4.79 लाख वोट के अंतर को बढ़ाकर कम से 6 लाख क्या कर पाएंगे। यहाँ तक कि छठे दौर के मतदान के बाद नेताओं की फौज, पत्रकार, प्रचारक, कार्यकर्ता, आदि सभी यहां आकर मतदाताओं को लुभाने में जुट गए। इस बीच कांग्रेस के उम्मीदवार मोदी को कड़ी टक्कर देने के लिए मुस्लिम, यादव और भूमिहार ब्राम्हणों का गठजोड़ बनाने में लगे हुए हैं।
मतदान के एक दिन पहले वारणसी में चुनावी माहौल पूरे शबाब पर है। मतदान के अंतिम दौर में मोदी ने अंतिम अपील एक वीडियो संदेश के रूप में जारी की जिसमें उन्होंने स्वयं को निरंतरता का प्रतीक और दृढ़प्रतिज्ञ सुधारक बताया। लेकिन दस सालों में वाराणसी बदल गयी है। बादल फटते ही रोशनी की एक किरण नमो घाट पर जोड़े हुई हाथों की विशाल प्रतिमा पर पड़ती है। गंगा उदास सी बह रही है। हवा में गर्मी और नमी है। लोगों की व्यावसायीकरण में आस्था है मगर ‘नई काशी‘ की संस्कृति से पैदा हुए बेगानेपन का अहसास भी है।
लगता है यह शहर फिर एक बार भारत के चुनावों के रूख, उसके माहौल और उसके विमर्श को नई दिशा देने जा रहा है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)