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‘कठुआ वाली लड़की’: गजवा-ए-हिन्द का नया अध्याय

‘कठुआ वाली लड़की’: गजवा-ए-हिन्द का नया अध्याय

मधु किश्वर की पुस्तक ‘द गर्ल फ्रॉम कठुआ: ए सैक्रिफिशल विक्टिम ऑफ गजवा-ए-हिन्द’ (2023: गरुड़ प्रकाशन) एक भयावह पुस्तक है। खोजी पत्रकारिता तथा शोध-विश्लेषण से भरा 641 पृष्ठों का यह ग्रंथ चकित करता और डराता है। बहुतों को इसे पढ़कर काफ्का की प्रसिद्ध पुस्तक ‘द ट्रायल’ की याद आ सकती है, जिस के सज्जन पात्र जोसेफ को पूर्णतः निरपराध होते हुए भी बाकायदा कानूनी प्रक्रिया द्वारा मृत्युदंड दे दिया जाता है।

उस से भी अधिक अविश्वसनीय ‘कठुआ वाली लड़की’ की घटना है। जनवरी 2018 में जम्मू के रसाना गाँव में एक मुस्लिम बालिका की लाश निकट जंगल में मिलती है। पी.डी.पी. का एक नेता फौरन उसे हिन्दुओं द्वारा बलात्कार-हत्या के मामले के रूप में उठाता है। रसाना के मंदिर के हिन्दू पुजारी और उस के बेटे भतीजे को दोषी बताकर तत्काल उग्र आंदोलन खड़ा करता है। सेक्यूलर मीडिया इसे ‘मंदिर में बलात्कार’ की सनसनीखेज घटना बता अंतर्राष्टीय रूप से फैला डालता है। जब राज्य सरकार के दो हिन्दू मंत्री इसे गलत कह कर सी.बी.आई. जाँच की माँग का समर्थन करते हैं, तो उन्हीं को पद से हटा दिया जाता है! चार हिन्दू पुलिस कर्मचारी भी अभियुक्त बनाए जाते हैं। मुकदमे में सात अभियुक्तों में छः को सजा होती है। यह सब डेढ़ साल के अंदर संपन्न हो जाता है!

मधु जी के शोध के अनुसार पूरा मामला फर्जी, और पूरे भारत पर जिहादी कब्जे के मंसूबे के क्रम में ही है। उन्होंने रसाना जाकर, स्थानीय लोगों, घटना से जुड़े व्यक्तियों, अभियुक्त के परिवार तथा आरोप लगाने वालों से बातचीत, पुलिस की कार्रवाइयाँ, दस्तावेज, गवाहों का हाल और बयान, विविध नेताओं, पुलिस अधिकारियों और जजों की टिप्पणियों, तथा बड़े मीडिया एक्टिविस्टों के ट्विट, विदेशी मीडिया की प्रस्तुतियों, आदि का विशद अध्ययन-परीक्षण कर पूरे तीन साल लगा कर यह पुस्तक तैयार की। उन्होंने चुनौतीपूर्ण लहजे में नाम लेकर विविध नेताओं, पुलिस अधिकारियों, जज, और बड़े पत्रकारों को दोषी ठहराया है कि सब ने बिलकुल निर्दोष व्यक्तियों को जाने-अनजाने बदनाम कर और दबाव बना कर दंडित किया। जब कि वास्तविक अपराधी बचे हुए हैं, जो संभवतः मृतक लड़की के निकट के ही लोग हैं।

चूँकि मधु जी दशकों से एक प्रतिष्ठित लेखिका, पत्रकार, और सामाजिक कार्यकर्त्री हैं, इसलिए उन की चुनौती को सरसरी खारिज करना असंभव है। फिर अत्यंत बुजुर्ग, 72 वर्षीया मधुजी ने जिस हौसले, दृढता, और आवेग से मामले की तह में जाने हेतु सारी भाग-दौड़ और जाँच-पड़ताल की, वह युवा पत्रकारों को लजाने वाला है। पूरे मामले पर उन के निष्कर्षों का पंचमांश भी सत्य हो, तो उतना भी देश की राजनीति, कानून, और मीडिया की स्थिति पर स्तब्ध कर देना वाला है।

उदाहरण लीजिएः प्रायः किसी सनसनीखेज घटना में सी.बी.आई. जाँच की माँग होती है। लेकिन इस मामले में ठीक सी.बी.आई. जाँच की माँग न केवल ठुकराई गई, बल्कि माँग करने वाले को ही दंडित किया गया! जबकि उसी राज्य के शोपियां में 2009 में कुछ ऐसी ही घटना में दो मुस्लिम लडकियों की लाश मिली थी जब कांग्रेस-नेशनल कांफ्रेस की सरकार थी, जिस पर पी.डी.पी. के ऐसे ही दुष्प्रचार पर, मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्ला ने सी.बी.आई. जाँच करवाई थी। जिस में सारे आरोप झूठे निकले थे। इस साफ नजीर के बावजूद, कठुआ वाली लड़की मामले में सी.बी.आई. जाँच को जिद पूर्वक ठुकराया गया।

दूसरे, प्रायः राजनीतिक रंग ले लेने वाले मुकदमे की निष्पक्ष सुनवाई दूसरे राज्य में होने की माँग विरोधी लोग करते हैं ताकि राज्य के शासक उसे प्रभावित न कर सकें। इस मामले में ऐतिहासिक हुआ कि मुख्यमंत्री ने ही अपने चहेते एन.जी.ओ. के माध्यम से इस की सुनवाई दूसरे राज्य, पंजाब, में कराने की माँग की। और सुप्रीम कोर्ट ने इसे मान लिया, जबकि उसी कोर्ट ने भी सी.बी.आई. जाँच की माँग ठुकरा दी थी। तीसरे, जिन व्यक्तियों को अपराध के सहयोगी बताया गया, जैसे तृप्ता देवी, और जज के फैसले में जिन का नाम है, उन की कोई गवाही नहीं कराई गई (पृ. 502-03)। फिर मामले को रफा-दफा करने के लिए रिश्वत देने का जो आरोप फैसले में नोट किया गया है, उस धन के किसी प्रमाण की परवाह नहीं की गई।

चौथे, फोरेंसिक गड़बड़ियाँ और अंतर्विरोध, जैसे डॉक्टर की पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट दुबारा काट-पीट करके देना (पृ. 635)। अंततः यह भी, कि अक्तूबर 2019 में जम्मू के सिटी कोर्ट ने गवाहों को यातना देकर झूठी गवाहियाँ लेने की शिकायत पर मामले की विशेष जाँच टीम के छः सदस्यों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश दिया। आखिर, पुलिस उच्चाधिकारियों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज करने के लिए मजिस्ट्रेट को कोई तो मजबूत कारण मिला ही होगा।

ऐसे अनेक विवरण इस पुस्तक में हैं, जिस से लेखिका का आरोप दमदार लगता है। इसीलिए यह डरावनी स्थिति है। यदि आज भारत में निर्दोष हिन्दुओं को मुस्लिम आरोपियों द्वारा दंडित करवाया, और इस का प्रतिवाद करने पर हिन्दू मंत्रियों को भी सत्ता से बाहर किया जा सकता है – तो वस्तुतः यह काफ्का के पात्र से भी बुरी स्थिति है। क्योंकि वह तो काल्पनिक रचना थी, सामाजिक उदासीनता तथा नौकरशाही की हृदयहीनता को दर्शाती थी। यहाँ तो पूरा घटनाक्रम वास्तविक है जिस में राजनीतिक दल, शासक, न्यायाधीश, बड़े पत्रकार, आदि सभी एक संदिग्ध मामले की प्रमाणिक जाँच से भी पल्ला झाड़ते हैं। फिर, आरोपित को पहले से दोषी मानकर सारे उचित-अनुचित कर्म करते मिलते हैं।

यह इसलिए भी भयावह है क्योंकि राज्य और केंद्र, दोनों जगह ऐसे दलों की सत्ता है जिन्हें देश-विदेश में ‘हिन्दू सांप्रदायिक’ कह कर बदनाम किया जाता रहा और आज भी किया जाता है। यदि कथित हिन्दूवादी नेताओं के वर्चस्व में हिन्दुओं का हाल यह हो कि वे सनसनीखेज बना दिए गए किसी मामले में सी.बी.आई. जाँच भी नहीं पा सकते, तो हालात की विवित्रता समझ सकते हैं। अंतिम अध्याय में लेखिका ने भारत की राजनीतिक व्यवस्था पर अपने लंबे अनुभव से कई टिप्पणियाँ दी हैं, जिन पर हरेक विचारशील भारतीय को ठंढे दिमाग से विचार करना चाहिए।

बहरहाल, जिन्हें इस शोध-पुस्तक को पूरा पढ़ने का समय न हो, वे आरंभ के 28 पेज, जिस में लेखिका की सुप्रीम कोर्ट के जजों से एक मार्मिक अपील भी है, और अंत के 18 पेज भी पढ़कर मामले का एक आकलन कर सकते हैं। यह अंतिम अध्याय बहुत महत्वपूर्ण है। इस का आरंभ अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्ध विद्वान अली सिना के शब्दों से होता है, जो ‘कठुआ वाली लड़की…’ मामले को एक सैद्धांतिक संदर्भ और निष्कर्ष दोनों ही देता है।

अली सिना के शब्दों में, ‘‘फिलीस्तीन से कश्मीर, फिलीपीन्स से चेचेन्या, और सोमालिया से नाइजीरिया तक, इस पृथ्वी पर हर कहीं मुसलमान ही विविध घृणित कर्म करने वाले और आक्रामक हैं। जब कि साथ ही वही खुद को पीड़ित बताते हैं। … एक अरबी कहावत है, ‘उस ने मुझे मारा, और रोने-चिल्लाने लगा। फिर वह आगे गया और मुझ पर ही पीटने का आरोप लगाया!’ यही मुहम्मद की सारी कार्रवाइयों का तरीका था। इसी तकनीक ने उन्हें चमत्कारिक रूप से सफल बनाया, और इसी से उन्होंने समाज के ताने-बाने को तहस-नहस कर डाला। इसी तकनीक से उन्होंने संपूर्ण अरब पर अधिकार कर लिया।’’

यदि जम्मू-कश्मीर के गत 33 वर्षों के ही घटनाक्रम का ही जायजा लें, तो उपर्युक्त मुहावरा शत-प्रतिशत सटीक बैठता है। जिन निरीह, सज्जन कश्मीरी पंडितों को निरंतर अपमानित कर और अंततः वीभत्स कत्ल-बलात्कारों से डरा कर अपने पुरखों की भूमि से समूल भगा दिया गया, उन्हीं को दोषी बताया जाता है! जब कि कश्मीरी मुसलमान, चाहे वे किसी भी वर्ग या दल के हों, एक स्वर में अपने को ही पीड़ित बताते हैं। यह आज भी सदाबहार ठसक से चल रहा है। इस हैरत-अंगेज प्रक्रिया में हमारे देश के हिन्दू दल, नेता और बौद्धिक सक्रिय-निष्क्रिय सहयोग कर रहे हैं। ऐसे सामाजिक-राजनीतिक दृश्य की कल्पना तो काफ्का ने भी नहीं की थी!

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Published by शंकर शरण

हिन्दी लेखक और स्तंभकार। राजनीति शास्त्र प्रोफेसर। कई पुस्तकें प्रकाशित, जिन में कुछ महत्वपूर्ण हैं: 'भारत पर कार्ल मार्क्स और मार्क्सवादी इतिहासलेखन', 'गाँधी अहिंसा और राजनीति', 'इस्लाम और कम्युनिज्म: तीन चेतावनियाँ', और 'संघ परिवार की राजनीति: एक हिन्दू आलोचना'।

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