समान नागरिक संहिता एक देश एक कानून की अवधारणा पर आधारित है। इसके अंतर्गत देश के सभी धर्मों, पंथों और समुदायों के लोगों के लिए एक ही कानून की व्यवस्था का प्रस्ताव है, जिसे हर जाति और धर्म के लोगों के लिए लागू किया जाएगा। तलाक से लेकर प्रॉपर्टी, शादी और तमाम तरह की चीजों पर ये कानून लागू होगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में समान नागरिक संहिता को लेकर भोपाल में जो कहाउससे यह मुद्दा देश के विमर्श के केन्द्र में आ गया है। कुछ राजनीतिक दल जरूर समान नागरिक संहिता के नाम पर मुसलमानों को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं। एक ही परिवार में दो लोगों के अलग-अलग नियम नहीं हो सकते। ऐसी दोहरी व्यवस्था से घर कैसे चल पाएगा? इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है। सुप्रीम कोर्ट डंडा मारता है। कहता है कॉमन सिविल कोड लाओ। लेकिन ये वोट बैंक के भूखे लोग इसमें अड़ंगा लगा रहे हैं। लेकिन भाजपा सबका साथ, सबका विकास की भावना से काम कर रही है। सरकार का तर्क है कि समान नागरिक संहिता अर्थात यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड का उद्देश्य देश में मौजूद सभी नागरिकों के वैयक्तिक कानून अर्थात पर्सनल लॉ को एक समान बनाना है, जो बिना किसी धार्मिक, लैंगिक या जातीय भेदभाव के पूरे देश में लागू होगा।
इसके पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने भी समान नागरिक संहिता का समर्थन करते हुए कहा था कि छद्म धर्मनिरपेक्ष दलों ने मुस्लिमों को गुमराह करने का काम किया है, अब उन्हें जागरुक करने के लिए कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक देश भर में अभियान चलाया जाएगा। मुस्लिम समुदाय के लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए इसे तैयार किया जाना चाहिए। मंच के संयोजक इंद्रेश कुमार ने कहा था कि इस्लामिक देशों समेत कई देश ऐसे हैं, जो सभी के लिए एक कानून व्यवस्था का पालन करते हैं। वहां हर किसी के लिए एक कानून है। पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्की, इंडोनेशिया, सूडान, मिस्र, अमेरिका, आयरलैंड, कनाडा, जर्मनी, इंग्लैंड और बाकी कई देशों में यही हो रहा है। इन देशों में रहने वाले मुसलमानों को इससे कोई परेशानी नहीं है। वहां मुस्लिम एक ही कानून का पालन करते हैं, इसके बावजूद भारत में मुस्लिमों को इस पर संदेह क्यों है? देश में तमाम धर्मों का सम्मान करते हुए समान नागरिक संहिता जारी किया जाएगा।
इस कानून के तहत सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान होगा। उल्लेखनीय है कि भारत के विधि आयोग के द्वारा व्यक्तियों व देश के तमाम धार्मिक संगठनों से समान नागरिक संहिता को लेकर सुझाव आमंत्रित किए जाने के बाद से ही इस पर देश में बहस तेज हो गई है। विधि आयोग के द्वारा इस पर सुझाव मांगे जाने के बाद ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के द्वारा समान नागरिक संहिता का समर्थन किये जाने का वयान आया था। अब प्रधानमन्त्री का भी इससे मिलता- जुलता वक्तव्य सामने आया है। मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने भले ही समान नागरिक संहिता की पैरवी की हो, लेकिन छद्म धर्म निरपेक्ष विपक्षी दल और देश भर के मुस्लिम संगठन इसका विरोध कर रहे हैं। इसे लेकर जमकर राजनीति भी हो रही है। मुस्लिम संगठनों का कहना है कि इससे सबसे ज्यादा उनका धर्म और नियम-कायदे प्रभावित होंगे। विपक्षियों का कहना है कि सरकार ने समान नागरिक संहिता का मुद्दा मुसलमानों को टारगेट करने के लिए उठाया है। दरअसल समान नागरिक संहिता का मुद्दा भारत की चुनावी राजनीति में धर्म के आईने में भी देखा जा रहा है। और आगामी 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों से पहले देश में समान नागरिक संहिता को लेकर बहस गर्म है।
उल्लेखनीय है कि समान नागरिक संहिता एक देश एक कानून की अवधारणा पर आधारित है। इसके अंतर्गत देश के सभी धर्मों, पंथों और समुदायों के लोगों के लिए एक ही कानून की व्यवस्था का प्रस्ताव है, जिसे हर जाति और धर्म के लोगों के लिए लागू किया जाएगा। तलाक से लेकर प्रॉपर्टी, शादी और तमाम तरह की चीजों पर ये कानून लागू होगा। वर्तमान में मुस्लिमों को छोड़कर अन्य सभी धर्मों के लिए हिन्दू मैरिज एक्ट 1956 लागू है। समान नागरिक संहिता में संपत्ति के अधिग्रहण और संचालन, विवाह, तलाक और गोद लेना आदि को लेकर सभी के लिए एकसमान कानून बनाया जाना है।
भारतीय संविधान के मुताबिक भारत एक धर्म-निरपेक्ष देश है, जिसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख, बौद्ध, आदि सभी धर्मों व संप्रदायों को मानने वालों को अपने-अपने धर्म से सम्बन्धित कानून बनाने का अधिकार है। भारत में दो प्रकार के पर्सनल लॉ हैं। पहला हिन्दू मैरिज एक्ट 1956, जो हिन्दू सिख, जैन व अन्य संप्रदायों पर लागू होता है। दूसरा मुस्लिम धर्म को मानने वालों के लिए लागू होने वाला मुस्लिम पर्सनल लॉ है। मुस्लिमों को छोड़कर अन्य सभी धर्मों व संप्रदायों के लिए भारतीय संविधान के प्रावधानों के तहत बनाया गया हिन्दू मैरिज एक्ट 1956 देश में लागू होने की परिस्थिति में मुस्लिम धर्म के लिए भी समान संहिता लागू होने की बात की जा रही है। लेकिन विपक्षी पार्टियाँ व मुस्लिम इसका विरोध कर रहे हैं।
समान नागरिक संहिता संविधान की सातवीं अनुसूची में सूचीबद्ध है। इसमें राज्य व केन्द्र दोनों सरकारों को कानून बनाने का अधिकार है। यह विडम्बना ही है कि एक ओर भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25-28 भारतीय नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देते हुए धार्मिक समूहों को अपने स्वयं के मामलों को बनाए रखने की अनुमति देता है, तो दूसरी ओर संविधान का अनुच्छेद 44 भारतीय राज्य से अपेक्षा करता है कि वह राष्ट्रीय नीतियां बनाते समय सभी भारतीय नागरिकों के लिए निर्देशक सिद्धांतों और आम कानून को लागू करे।
उल्लेखनीय है कि समान नागरिक संहिता के लिए बहस भारत में औपनिवेशिक काल से ही चली आ रही है। ब्रिटिश शासन से पहले ही 1757-1858 तक चले ईस्ट इंडिया कंपनी के तहत अंग्रेजों ने भारत पर पश्चिमी विचारधाराओं को थोपकर स्थानीय सामाजिक और धार्मिक रीति-रिवाजों को सुधारने के नाम पर अपराधों, सबूतों और अनुबंधों से संबंधित भारतीय कानून के संहिताकरण में एकरूपता के महत्व और आवश्यकता पर जोर दिया, लेकिन यह सिफारिश की कि हिन्दुओं और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को इस तरह के संहिताकरण से बाहर रखा जाना चाहिए। उसके बाद ब्रिटिश भारत में भी इस मामले पर विवाद होता रहा, लेकिन भारतीयों के अन्य हितों व कल्याण की भांति इस पर भी ब्रिटिश शासकों के द्वारा विशेष ध्यान नहीं दिया गया। अपनी उल्लू सिद्ध करने के लिए हिन्दुओं व मुस्लिमों में फूट डालने के उद्देश्य से भारत में पर्सनल लॉ पहली बार ब्रिटिश राज के दौरान मुख्य रूप से हिन्दू व मुस्लिम नागरिकों के लिए बनाए गए थे। कानून के सामने हिन्दुओं और मुसलमानों का यह अलगाव ब्रिटिश साम्राज्य की फूट डालो और राज करो की नीति का हिस्सा था, जिसने उन्हें विभिन्न समुदायों के बीच एकता को तोड़ने और भारत पर शासन करने की अनुमति दी। भारत में धार्मिक विभाजनों की उनकी समझ के अनुसार अंग्रेजों ने हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई और बाद में पारसी आदि विभिन्न समुदायों के धार्मिक ग्रन्थों और रीति-रिवाजों द्वारा शासित क्षेत्र को अलग कर दिया। इन कानूनों को स्थानीय अदालतों या पंचायतों द्वारा एक ही धर्म के लोगों के बीच दीवानी विवादों से जुड़े नियमित मामलों से निपटने के लिए लागू किया गया था, राज्य केवल असाधारण मामलों में ही हस्तक्षेप करेगा।
ब्रिटिश शासकों को मुस्लिम समुदाय के नेताओं के विरोध का डर था। इसलिए उन्होंने इस घरेलू क्षेत्र में और हस्तक्षेप करने से परहेज किया। भारतीय राज्य गोवा को तत्कालीन पुर्तगाली गोवा और दमन में औपनिवेशिक शासन के कारण भारत से अलग कर दिया गया था। उस समय गोवा नागरिक संहिता के रूप में जाना जाने वाला एक सामान्य पारिवारिक कानून बना रहा था, और बाद में उस कानून को गोवा ने राज्य में लागू कर भी दिया। इस प्रकार आज तक गोवा एक समान नागरिक संहिता वाला भारत का एकमात्र राज्य है। भारत विभाजन के बाद स्वाधीन भारत में भी समान नागरिक संहिता की मांग चलती रही है। बौद्ध, जैन, सिख आदि भारतीय धर्मों के बीच विभिन्न संप्रदायों में बड़े पैमाने पर संहिताबद्ध और व्यक्तिगत कानूनों में सुधार करने वाले हिन्दू कोड बिल पेश किए गए थे। परन्तु मुस्लिम, ईसाई, यहूदी और पारसी को छूट दी गई है। उन्हें हिन्दुओं से विलग समुदायों के रूप में माना गया। आज भी उन्हें अलग समुदाय के रूप में ही पहचाना जा रहा है।
बहरहाल देश भर में एक समान नागरिक संहिता का कार्यान्वयन की बात भारत की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी द्वारा अपने गठन के समय से ही की जाती रही है। बल्कि इसकी पूर्ववर्ती भारतीय जनसंघ भारत विभाजन के पूर्व से ही करती रही है। परन्तु आरम्भ से ही इसे विवादास्पद बना दिया गया है। भारतीय राजनीति में धर्मनिरपेक्षता के संबंध में यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है कि शरिया और धार्मिक रीति-रिवाजों के बचाव में भारत के राजनीतिक वामपंथी, मुस्लिम समूहों और अन्य रूढ़िवादी धार्मिक समूहों व संप्रदायों द्वारा इसे विवादित बना दिया गया है। फिर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद इस विचार को बल मिला है। और भाजपा शासित उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि राज्य भी इस पर चर्चा कर रहे हैं। निश्चित ही समान नागरिक संहिता लागू होने से देश में सामाजिक, आर्थिक सुधार होगा।