साफ तौर पर यूनिफॉर्म सिविल कोड की फिलहाल चर्चा छेड़ने के पीछे मकसद मुस्लिम समुदाय के खिलाफ हिंदू समुदाय के अंदर वर्तमान राजनीतिक ध्रुवीकरण को बनाए रखना या इसे और तीखा करना है। फिलहाल अभी ऐसी संहिता का कोई प्रारूप देश के सामने नहीं है। लेकिन जिस संदर्भ में चर्चा छेड़ी गई है, उसके बीच यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठा है कि क्या सवर्ण हिंदू समुदायों की परंपरा को यूनिफॉर्म कोड बता कर पूरे देश पर लागू करने का प्रयास किया जाएगा?
अगले आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का मुख्य एजेंडा समान नागरिक संहिता होगी, इस बात की पुष्टि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कर दी है। वैसे इसके संकेत तभी मिल गए थे, जब जून के मध्य में 22वें विधि आयोग ने इस बारे में विभिन्न पक्षों से नए सिरे से सुझाव आमंत्रित किए। जबकि उसके पहले 21वें विधि आयोग ने स्पष्ट कहा था कि फिलहाल देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करना ना तो जरूरी है और ना ही वांछित। इसके बावजूद 22वें विधि आयोग ने यह बहस फिर से छेड़ी, तो उसके पीछे कोई सियासी इशारा या मकसद रहा होगा, यह मानने के पर्याप्त कारण हमारे पास हैं।
वैसे भारतीय जनता पार्टी यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने का प्रयास करे, तो इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं है। यह पार्टी के मुख्य एजेंडे में रहा है। यह एजेंडा भाजपा के पुराने संस्करण भारतीय जन संघ के जमाने से रहा है। 1980 में नए सिरे से अपने गठन के बाद भाजपा थोड़े समय तक ‘गांधीवादी समाजवाद’ के वैचारिक गलियारों में भटकती रही। लेकिन 1989 में पालमपुर प्रस्ताव के साथ पार्टी अपने हिंदुत्व के पुराने और अपनी ‘मातृ संस्था’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मूल एजेंडे पर लौट आई थी। तब स्वतंत्रता आंदोलन से निकली और आगे बढ़ी भारतीय राष्ट्रवाद की भौगोलिक विचारधारा के मुकाबले भाजपा ने ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की संघ की धारणा की पुरजोर वकालत फिर शुरू कर दी।
तभी से भाजपा तीन मुद्दों को केंद्र में रखकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को परिभाषित करती रही है। ये तीन मुद्दे रहे हैः अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह पर ‘भव्य’ राम मंदिर का निर्माण, धारा 370 की समाप्ति, और यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करना। अपने वर्तमान कार्यकाल में भाजपा ने पहले दो उद्देश्यों को हासिल कर लिया। (यह दीगर सवाल है कि ऐसा संवैधानिक भावना के अनुरूप किया गया या नहीं।) बल्कि यूनिफॉर्म सिविल कोड से भाजपा का जो मतलब रहा है, उसे भी एक सीमा तक उसने हासिल कर लिया है। तीन तलाक पर प्रतिबंध लगाने का कानून उसी एजेंडे का हिस्सा था। बहरहाल, मुस्लिम पर्सनल लॉ से संबंधित कुछ पहलू अभी भी अस्तित्व में हैं, तो अब यह साफ है कि भाजपा अगले आम चुनाव में उनके खिलाफ मुहिम चलाएगी। अगर वह जीत गई, तो यह तर्क दिया जाएगा कि यूनिफॉर्म सिविल कोड बनाने के लिए उसे जनादेश मिला है।
इसलिए अब इस मुद्दे पर गंभीरता से चर्चा जरूरी है। इसके पहले कि प्रधानमंत्री ने जिस रूप में इस मसले की चर्चा की, उस पर आने के पहले हमें कुछ भ्रमों को दूर कर लेना चाहिए। यूनिफॉर्म सिविल कोड के संदर्भ में इन भ्रमों को जानबूझ कर फैलाया गया हैः
- एक भ्रम का आधार बार-बार दोहराया गया यह कथन है कि एक देश में दो कानून नहीं चल सकते। यहां यह बात साफ कर लेनी चाहिए कि भारत में फौजदारी कानून (criminal law) सबके लिए समान है। यानी चोरी या हत्या का दोषी साबित होने पर मुसलमान को भी वही सजा होती है, जो किसी हिंदू या अन्य धर्मावलंबी को होती है। इस मामले में भारत शरिया या कोई निजी कानून मान्य नहीं है।
- जहां तक दीवानी (civil) मामलों में अलग-अलग निजी कानूनों का सवाल है, तो उसका लाभ सिर्फ मुसलमानों को नहीं मिला हुआ है। यह बहुचर्चित है कि अविभाजित हिंदू परिवार कानून के तहत हिंदुओं को जो टैक्स संबंधी लाभ मिलता है, वह देश में किसी अन्य धर्मावलंबी परिवार को नहीं मिलता है।
- फिर विवाह और उत्तराधिकार के मामले में देश के अलग-अलग हिस्सों में विभिन्न समुदायों की मान्यता के अनुरूप प्रावधान हैं। भारत जैसे विशाल देश में मौजूद विभिन्नता और बहुलता को देखते हुए ऐसा होना स्वाभाविक भी है।
- खुद हिंदू समुदाय में उत्तराधिकार और संपत्ति बंटवारे के लिए दो तरह की संहिताएं- मिताक्षरा और दायभाग- प्रचलन में हैं, जिनका पालन देश के अलग-अलग हिस्सों में किया जाता है।
- इसलिए यूनिफॉर्म सिविल कोड की बहस में सिर्फ मुसलमानो की चर्चा करना ठीक वैसा ही है, जैसे राज्यों को मिले विशेष अधिकार के मामले सिर्फ जम्मू-कश्मीर की चर्चा होती रही है। धारा 370 खत्म करने की बहस में यह सवाल गायब रखा गया कि अगर किसी प्रदेश को विशेष अधिकार मिलना गलत है, तो धारा 371 और 371-ए को संविधान में क्यों मौजूद रहना चाहिए?
- संविधान के इन्हीं प्रावधानों के तहत कई राज्यों के लिए अलग व्यवस्थाएं हैं। मसलन, हिमाचल प्रदेश में बाहरी व्यक्ति के जमीन खरीदने पर रोक है, तो झारखंड में आदिवासी की जमीन गैर-आदिवासी नहीं खरीद सकते। मगर धारा 370 और धारा 35-ए को हटाने की प्रक्रिया में ये तथ्य चर्चा में नहीं आए, क्योंकि इन दोनों धाराओं को जम्मू-कश्मीर और प्रकारांतर मुस्लिम पहचान से जुड़ा बता कर इनके खिलाफ देश में लंबे समय से एक तरह का आक्रामक माहौल बना कर रखा गया था।
यूनिफॉर्म सिविल कोड पर भी इस तरह का माहौल बनाया गया है और अब कहा जा सकता है कि इसमें और आक्रामकता भरने की कोशिश की जा रही है।
एक अन्य तर्क यह है कि राज्य के नीति-निर्देशक तत्व के तहत आने वाले संविधान के अनुच्छेद 44 में यूनिफॉर्म सिविल कोड बनाने का निर्देश राज्य को दिया गया है। इस अनुच्छेद में कहा गया है- ‘राज्य पूरे भारत में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने का प्रयास करेगा।’
स्पष्टतः भाजपा इस मामले में अपनी सुविधा के मुताबिक संविधान का हवाला देती है। संविधान के अनुच्छेद 36 से 51 तक में विभिन्न प्रकार के ऐसे उद्देश्यों का वर्णन है, जिनकी दिशा में बढ़ने की राज्य से अपेक्षा की गई है। इनमें सबको रोजगार और शिक्षा के अधिकार से लेकर प्रबंधन में मजदूरों की भागदारी तक के मकसद शामिल हैँ। सबको समान न्याय और वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने जैसे उद्देश्य भी इनमें हैं। दूसरी तरफ गोहत्या रोकने का उद्देश्य भी राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों में शामिल किया गया है।
वैसे यह बात स्वीकार करनी होगी कि अपनी सुविधा से चयन का दोष सिर्फ भाजपा को नहीं दिया जा सकता। हर सामाजिक/राजनीतिक समूह अपनी सुविधा के अनुरूप संविधान के अनुच्छेद को चुन कर उनके पक्ष में दलील देता रहा है। बहरहाल, यहां समझने की बुनियादी बात यह है कि भारतीय संविधान किसी भी अन्य देश के संविधान की तरह एक compromise document (अधिकतम सहमति का दस्तावेज) है।
संविधान सभा की बहसों से परिचित व्यक्तियों को यह मालूम है कि संविधान बनने के दौर में वहां तीखे मतभेद उभरते रहे थे। मतभेद का आलम यह था कि संविधान सभा देश का एक नाम भी तय नहीं कर सकी। भारत और इंडिया के बीच मत-विभाजन इतना तीखा था कि अंत में ‘India that is Bharat’ कहते हुए संविधान लेखन की शुरुआत की गई।
इसी तरह समाजवादी रुझान वाले लोग जहां राज्य को अधिकतम कल्याणकारी रूप देना चाहते थे, वहीं संविधान सभा के दक्षिणपंथी सदस्यों ने गोहत्या पर रोक, यूनिफॉर्म सिविल कोड या हिंदी को राजभाषा बनाने जैसे मकसदों पर जोर दिया था। उन सभी मतों के बीच सहमति की तलाश में ही नीति-निर्देशक तत्व का हिस्सा संविधान में जोड़ा गया था। तब यह सोचा गया कि ऐसे उद्देश्यों को, जिन पर तुरंत अमल संभव नहीं है- या जिन पर अमल करने की उस समय भारतीय राज्य की क्षमता नहीं थी, उन्हें इस हिस्से में डाल कर उन्हें भावी पीढ़ियों के विवेक और क्षमता पर छोड़ दिया जाए।
समस्या यह है कि पिछले तीन-चार दशकों में भारत में संविधान को एक पवित्र और बहस से परे ग्रंथ के रूप में पेश करने की कोशिश हर तरफ से की गई है। जब कभी किसी मामले में आलोचनात्मक या समीक्षात्मक नजरिया छोड़ दिया जाता है, तो उसका परिणाम तर्कहीनता के रूप में सामने आता है। मसलन, भाजपा समर्थक अगर अनुच्छेद 44 का जिक्र करते हुए संविधान का हवाला देते हैं, तो उस पर विवेक और तर्क आधारित बहस की गुंजाइश सीमित हो जाती है। जबकि विवेकपूर्ण नजरिया यह है कि संविधान भी समय और तत्कालीन परिस्थितियों से जुड़ा दस्तावेज है, जिसकी पर पंक्ति पर हमेशा ही बहस और मतभेद की गुंजाइश बनी रह सकती है।
वैसे इस सिलसिले में एक और महत्त्वपूर्ण बिंदु यह भी है कि भारत का हर मुसलमान (अथवा कोई अन्य धर्मावलंबी) अपने मजहब से संबंधित निजी कानून से बंधा हुआ नहीं है। भारतीय न्यायशास्त्र (jurisprudence) में एक दशक पहले सुप्रीम कोर्ट ने यह सिद्धांत जोड़ा था कि अपने मजहबी निजी कानून को मानना या ना मानना हर नागरिक की स्वेच्छा पर निर्भर है। सिविल मामलों में निजी कानून से चलने वाले किसी मजहबी समुदाय का कोई व्यक्ति चाहे तो भारत के सेक्यूलर सिविल लॉ के तहत अपनी जिंदगी के फैसले कर सकता है।
वह मामला एक मुस्लिम दंपति से जुड़ा था, जो एक बच्चे को गोद लेना चाहता था। मुस्लिम पर्सलन लॉ के तहत गोद लेना अवैध है। तो उस दंपति ने गोद लेने के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। तब सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि उन व्यक्तियों ने भारत के नागरिक के रूप में सेक्यूलर सिविल लॉ के तहत गोद लेने का फैसला किया है, जिसका उसको अधिकार है। कोर्ट ने तब कहा था कि कोई भी व्यक्ति अगर सिविल लॉ के तहत विवाह, तलाक, उत्तराधिकार या गोद लेने जैसे निर्णय लेने के लिए कोर्ट के पास आता है, तो वह भारत के नागरिक के रूप में उसे मिले इसके अधिकार की रक्षा करेगा।
इस तरह भारतीय न्याय शास्त्र में यह सिद्धांत जुड़ा कि मुस्लिम और निजी कानून संचालित अन्य समुदायों के व्यक्ति मजहबी निजी कानून को मानने के लिए बाध्य नहीं हैं। उनके सामने भारत में मौजूद सेक्यूलर सिविल लॉ के तहत जिंदगी जीने का भी अधिकार है। इस तरह एक भारतीय नागरिक के रूप में उनकी चयन की स्वतंत्रता का विस्तार हुआ। हर ऐसे व्यक्ति के सामने तब से यह विकल्प है कि वह किस कानून से चलेगा, इसका फैसला स्वयं करे।
फिलहाल यूनिफॉर्म सिविल कोड के प्रश्न पर बहस करते समय इस पूरी पृष्ठभूमि को ध्यान में रखा जाना चाहिए। बहरहाल, तो अब हम उस संदर्भ पर आते हैं, जिसमें नरेंद्र मोदी ने यह मुद्दा उछाला है। संदर्भ का पहलू तो वही है, जहां से इस लेख में हमने बात शुरू की थी। यूनिफॉर्म सिविल कोड भाजपा का मुख्य एजेंडा है, जिसे हिंदुत्व की राजनीति के तहत पूरा करना प्रधानमंत्री और उनकी सरकार अपना कर्त्तव्य समझते हैं। लेकिन इस बात के पक्ष में जो तर्क उन्होंने दिए, वे उनकी दृष्टि से भले वाजिब हों, लेकिन आधुनिकता और वर्तमान भारतीय संविधान की विचारधारा के नजरिए से वे समस्याग्रस्त हैं।
प्रधानमंत्री ने राष्ट्र की तुलना किसी परिवार से करते हुए कहा कि एक परिवार में दो कानून नहीं चल सकते। यह तुलना बेतुका है। भारतीय राष्ट्र की आधुनिक धारणा किसी खून के संबंध, नस्लीय/जातीय/सांप्रदायिक समरूपता या समान परंपरा पर आधारित नहीं है। आधुनिक भारतीय राष्ट्र का उदय उपनिवेशवाद के खिलाफ साझा संघर्ष करते हुए हुआ, जिसका आधारभूत पहलू साझा हित की समझ या भावना है।
भारतीय राष्ट्र की प्रशासनिक व्यवस्था के लिए संविधान ने जिस राज्य की स्थापना की, नागरिकता की अवधारणा पर आधारित है। भारत का हर नागरिक भारतीय राज्य की इकाई हैं। यानी हर नागरिक का राज्य से सीधा रिश्ता है। जबकि परिवार, समुदाय आदि की कोई संवैधानिक वैधता नहीं है।
सिर्फ अल्पसंख्यक और सदियों से शोषित समुदायों के पहचान संबंधी हितों को भारतीय संविधान में मान्यता दी गई है- लेकिन ऐसा खास ऐतिहासिक एवं सामाजिक परिस्थितियों की वजह से किया गया है।
इसीलिए परिवार के अंदर अपने नियम हो सकते हैं, लेकिन उनकी कोई कानूनन मान्यता नहीं है। किसी परिवार के सदस्य मनमाफिक ढंग से विवाह करने, तलाक लेने, गोद लेने आदि के लिए स्वतंत्र हैं, जिनके इन अधिकारों की रक्षा करने के लिए भारतीय राज्य संवैधानिक रूप से बाध्य है। भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के असंवैधानिक घोषित होने के बाद किसी परिवार के सदस्य अपने यौन रुझान के मुताबिक अपना जीवन गुजारने से लिए भी स्वतंत्र हैं।
कहने का तात्पर्य यह कि परिवार के भीतर कोई यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू नहीं होता। और जब परिवार के भीतर ऐसा नहीं होता है, तो स्वाभाविक है कि राष्ट्र के दिया गया उपरोक्त तर्क सिरे से निराधार है।
दूसरा अहम सवाल यह है कि प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे पर सिर्फ मुसलमानों को क्यों आगाह किया? उन्होंने कहा कि विपक्ष मुसलमानों को भड़का रहा है। फिर उन्होंने तीन तलाक के चलन को लेकर पाकिस्तान सहित कई मुस्लिम बहुल देशों की मिसाल दी। जाहिर है, उन्होंने जब यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात कही, तो चर्चा को मुस्लिम समुदाय तक सीमित रखा। जबकि 22वें विधि आयोग की हालिया पहल का विरोध मेघालय से लेकर झारखंड तक के आदिवासी समुदायों की तरफ से भी किया गया है। अन्य कुछ मजहबी समुदायों और अपनी संस्कृति एवं पारंपराओं के को मानने वाले अन्य समुदायों की तरफ से भी ऐसी आवाज उठनी तय है।
तो साफ तौर पर यूनिफॉर्म सिविल कोड की फिलहाल चर्चा छेड़ने के पीछे मकसद मुस्लिम समुदाय के खिलाफ हिंदू समुदाय के अंदर वर्तमान राजनीतिक ध्रुवीकरण को बनाए रखना या इसे और तीखा करना है। फिलहाल अभी ऐसी संहिता का कोई प्रारूप देश के सामने नहीं है। लेकिन जिस संदर्भ में चर्चा छेड़ी गई है, उसके बीच यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठा है कि क्या सवर्ण हिंदू समुदायों की परंपरा को यूनिफॉर्म कोड बता कर पूरे देश पर लागू करने का प्रयास किया जाएगा? और क्या इस रूप में यूनिफॉर्म सिविल कोड को असल में पूरे भारत के परंपरागत उत्तर भारतीय हिंदू परंपराओं के मुताबिक समरूपीकरण की कोशिश का हथियार बनाया जाएगा?