बेबाक विचार

भारत में लॉकडाउन है सिर्फ जुगाड़!

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भारत में लॉकडाउन है सिर्फ जुगाड़!
वह जुगाड़, जिसमें वायरस के साथ घर बैठ कर मौत का इंतजार है। बिना टेस्ट, बिना मेडिकल तैयारी के 21 दिनका ‘भारत बंद’ घर में वायरस को बैठा कर है। भारत में वायरस का पहला केस वुहान से 31 जनवरी को केरल में आया था। तब से मध्य मार्च तक पूरे भारत में वायरस प्रदेश-दर-प्रदेश पसरा और अचानक एक दिन जब ‘भारत बंद’ का फैसला हुआ तो वह युद्ध मैदान में वायरस से लड़ने के लिए मेडिकल फोर्स, हथियारों, टेस्ट-अस्पतालों से धावा बोल हमले का बिगुल बजा कर नहीं था बल्कि इस जुगाड़सोच में है किघरों में बंद होने से वायरस मर जाएगा। जुगाड़ कामयाब हुआ तो वाह और नहीं तो श्मशान घाट पर बैठ कर लोग सोचेंगे कि इससे ज्यादा भला क्या हो सकता था! मौत नहीं टाल सकते! हां, यही हैं आने वाले वक्त में कोरोना से भारत के लड़ने की तस्वीर!पूरा देश मुगालते में है कि मोदीजी के साहस से, मोदीजी की सख्ती से भारत बच जाएगा। वायरस को गर्मी खा जाएगी। घर में बैठ कर रामायण, महाभारत देखेंगे, नरेंद्र मोदी का सत्संग सुनेंगेऔर हाथ साफ करते रहेंगे तो 21 दिनों में भारत के लोगों के शरीर का इम्यून सिस्टम वायरस को घोल कर नाली में बहा देगा। इसके अलावा सब रामभरोसे है और लॉकडाउन में 130 करोड़ लोगों का टाइम पास है। भारत के 130 करोड़ लोगों की वायरस से लड़ाई बिना मेडिकल तैयारी, बिना सघनजांच-पडताल, मास टेस्टिंग, ट्रेसिंग, अस्पतालों, वेंटिलेशन, पीपीई, चिकित्साकर्मियों केहैं। तभी हम तालाबंदी में वायरस के साथ वक्त काटने को शापित हैं। भारत का लॉकडाउन इंसान और वायरस को एक साथ ताले में बंद करना है और शरीर के इम्यून सिस्टम और वायरस को आपस में लड़ते देते हुए वक्त पास होने देना है। क्या यह गलत बात है? यदि गलत है तो कोई बताए कि लॉकडाउन के साथ वायरस को घटाने याकिमिटिगेट करने, कुचलने याकि सप्रेस करने के लिए वायरस की खोजखबर, उसके फैलाव को पकड़ने के परीक्षणों याकि टेस्ट के जरिए जो महाअभियान शुरू होना चाहिए था क्या वह कहीं दिखलाई दे रहा है? यदि दिखलाई नहीं दे रहा है तो सीधा अर्थ सिर्फ यह है कि 130 करोड़ लोग और वायरस आमने-सामने खड़े हो कर आपस में, अपने घरों में लड़ते रहें। ऐसे वुहान, इटली, स्पेन, न्यूयार्क या दुनिया के किसी भी देश में नहीं हुआ। वहां लॉकडाउन सचमुच में टेस्ट और मेडिकल महाअभियान का जंग बिगुल था। कार्ययोजना और रोडमैप से लॉकडाउन शुरू हुआ। लड़ाई के पूरे रोडमैप के साथ। मतलब टेस्ट से मौत तक याकि दाहसंस्कार के रोडमैप के साथ है। उस नाते रोडमैप का पहला बिंदु टेस्टिंग है। मगर भारत में लॉकडाउन के बाद भी टेस्टिंग ऊंट के मुंह में जीरा है। दस लाख लोगों के पीछे 16 टेस्ट का औसत है, जबकि जिन देशों ने आपातकाल, लॉकडाउन से जंग शुरू की उसमें दक्षिण कोरिया में छह हजार टेस्ट का औसत है तोन्यूयार्क में लॉकडाउन से पहले प्रति दस लाख आबादी पर 16 टेस्ट थे और लॉकडाउन बाद 12 मार्च को 1,145 और 21 मार्च को 6,276 की टेस्टिंग थी। अमेरिका में तीन दिन पहले औसत प्रतिदिन टेस्टिंग 1280 लोगों की थी तो इटली में लॉकडाउन के बाद 25 मार्च को 5268 टेस्ट प्रतिदिन थे। जबकि 130 करोड़ लोगों के भारत में 25 मार्च तककुल ही टेस्ट 25,144 थे।जाहिर है भारत में तालाबंदी जुगाड में हम वायरस को छुपाए बैठे हैं। जिस दिन भारत में प्रति दस लाख के पीछे सौ टेस्ट भी होने लगेंगे और नतीजों में फुर्ती आई नहीं कि भारत में दुनिया का सबसे बड़ा प्रभावित देश होने का ग्राफ बनने लगेगा। कितना खराब है यह लिखना कि भारत में ज्यों-ज्यों कोरोना वायरस का टेस्ट बढ़ेगा, भारत के आंकड़ों के आगे अमेरिका, स्पेन, इटली की श्मशान खबरें सामान्य लगने लगेंगी। लेकिन क्या यह रियलिटी वायरस से लड़ने की सरकार और जनता की लड़ाई के रोडमैप की असलियत नहीं होनी चाहिए? क्यों भारत के टीवी चैनल, मीडिया, नैरेटिव और भारत के लोग यह हल्ला नहीं बना रहे हैं कि बिना टेस्ट के हम कोरोना से नहीं लड़ सकते है। बिना युद्धस्तरीय मेडिकल टेकओवर, स्टेडियम-मैदानों को टेस्ट ग्राउंड, अस्पतालों में कनवर्ट किए हम महानगरों को मरघट बना डालेगें? तुरंत हर तहसील, हर जिले को उनकी सीमाओं में बांध कर उन्हें टेस्ट से लेकर अंत्येष्टि की गाइडलाइन में पाबंद बनाओ। हां,हम यमदूत वायरस से तभी लड़ सकते हैं जब जाग कर, होशहवास में लड़ाई लड़ें। कल सुबह सीएनएन के ग्लोबल टाउनहाउस प्रोग्राम में स्पेन की इस रिपोर्ट को सुन मैं दहल गया कि वहां प्रशासन ने वायरस के मरीज मृतकों के दाह संस्कार को रोक दिया, क्योंकि जगह और कर्मचारी की कमी से फिलहाल प्राथमिकता लड़ना है, समझ नहीं पड़ रहा कि करें तो क्या करें! कितनी दहला देने वाली बात है यह! लेकिन इटली और स्पेन जैसे महाविकसितव भारत से असंख्य गुना अधिक मेडिकल सुविधाओं, संजीदगी, अनुशासन, चुस्त सिस्टम वाले देश में यदि आज मृतकों की अंत्येष्टि भी मुश्किल चुनौती हो गई है तो गरीब, पिछड़े भारत में आने वाला वक्त क्या सिनेरियो लिए हुए होगा, यह क्या समझ नहीं आना चाहिए। क्या जुगाड़ में ही वक्त काटेगें? अपना मानना है कि कोरोना वायरस फिलहाल विकसित देशों में लोगों की जानें ले रहा है तो यह उनके विकसित होने मतलब टेस्ट-मेडिकल सुविधाओं की हकीकत से है। वे वायरस से पहले लड़ रहे हैं तो वे अपने-अपने बूते पहले वायरस पर काबू भी पाएंगे। उनका मेडिकल सिस्टम तुरंत लड़ने में समर्थ है इसलिए वे टेस्ट, इलाज से जंग में जल्दी पहुंचे हैं जबकि भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे तीसरी दुनिया के देश रामभरोसे, लाकडाउन के जुगाड़ में बिना तैयारी के लड़ेंगे। तभी इटली, स्पेन, ब्रिटेन, अमेरिका जैसे देश वायरस से वेंटिलेशन पर गए लोगो को ही बचाने में फेल होते दिख रहे हैं पर मृत्यु दर न्यूनतम रखते हुए। विकसित देशों में मृत्यु दर संक्रमित लोगो में एक से दो प्रतिशत के बीच अटकेगी जबकि भारत सहित तीसरी दुनिया के बाकी देशों में कोरोना वायरस से बनने वाली मृत्यु दर तीन-चार प्रतिशत पहुंच जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। इसलिए क्योंकि इन देशों की वायरस के खिलाफ लड़ाई बिना संसाधन, बिना हथियार, बिना तैयारियों के है। अमेरिका, स्पेन, इटली आदि विकसित देश लॉकडाउन के बाद घरों से वायरस को निकाल उसे अस्पताल ले जा कर लड़ने का फोकस बनाए हुए हैं जबकि भारत में तालाबंद के साथ लोगों को, वायरस को घरों में लड़ने के लिए रामभरोसे छोड़ा जा रहा है। अब इस बिंदु पर यह फुलस्टॉप बनता है कि हम क्या कर सकते हैं? हमारे पास टेस्ट किट, लैब, अस्पताल, वेंटिलेशन, बख्तरबंद पीपीई पोशाक आदि याकि सार्वजनिक-निजीमेडिकल व्यवस्था का कुल जोड़ ही जब जर्जर है और दुनिया के बाजार की खरीददारी की मारामारी में हाबड़तोड़ सामान मंगवा सकना अपने लिए मुश्किल है तो करें तो क्या करें? इस पर फिर विचार करेंगे।
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