जिस पहल का संबंध राष्ट्रीय आम सहमति और संकल्प जताने से है, क्या उसकी शुरुआत से पहले कड़वाहट पैदा होनी चाहिए? क्या यह उचित नहीं होता कि पार्टी व्यवस्था के आम चलन का ख्याल किया जाता?
आतंकवाद से संघर्ष पर भारत का पक्ष रखने के लिए विदेश जा रहे सात प्रतिनिधिमंडलों में सदस्य चयन को लेकर सरकार और कांग्रेस के बीच अवांछित कड़वाहट पैदा हुई है। वैसे शिव सेना का उद्धव ठाकरे गुट भी इस प्रक्रिया को लेकर नाराज है। इस हद तक कि उसने कहा है कि विपक्ष को इन प्रतिनिधिमंडलों का बहिष्कार कर देना चाहिए था। कांग्रेस के साथ मुद्दा यह है कि उसने जो नाम भेजे, केंद्र ने उनमें से सिर्फ एक को शामिल किया।
बाकी तीन खुद चुन लिए। इनमें शशि थरूर भी हैं, जो महीनों से अपने बयानों से कांग्रेस के लिए असहज स्थिति पैदा कर रहे हैँ। कांग्रेस का दावा है कि संसदीय कार्य मंत्री किरन रिजीजू ने पार्टी अध्यक्ष को फोन कर उनसे नाम मांग थे।
राष्ट्रीय सहमति से पहले विवाद क्यों
मगर रिजीजू का कहना है कि फोन उन्होंने औपचारिकता-वश किया था- नाम चुनना सरकार का अधिकार है। इस हाल पर कांग्रेस लाचारी जताने के अलावा कुछ और नहीं कर पाई है। मगर उसके प्रवक्ता ने यह जरूर कहा कि जो सदस्य चुने गए हैं, वे उसके हैं और बाकी बात उनके अपने विवेक पर रह जाती है।
इस वाक्य में यह अपेक्षा जरूर छिपी हुई है कि कांग्रेस नेता पार्टी आलाकमान की इच्छाओं का सम्मान करें। लेकिन अब साफ है कि उन सदस्यों ने ऐसा नहीं किया है। नतीजतन, पार्टी एक तरह की खराब रोशनी में लोगों को नजर आई है।
मगर मुद्दा यह है कि जिस पहल का संबंध राष्ट्रीय आम सहमति और संकल्प जताने से है, क्या उसकी शुरुआत से पहले ऐसी कड़वाहट पैदा होनी चाहिए? क्या यह उचित नहीं होता कि पार्टी व्यवस्था के आम चलन का ख्याल करते हुए सत्ता पक्ष प्रतिनिधि चुनने का काम संबंधित दलों पर छोड़ देता।
इसके बीच अगर कोई नाम (मसलन थरूर) उसकी प्राथमिकता था, तो इस पर संबंधित दल (कांग्रेस) के नेतृत्व से वह राय-मशविरा करता? दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज की ध्रुवीकृत राजनीति में ऐसी आम अपेक्षाएं भी बड़ी बात मालूम पड़ती हैं। इस सिलसिले में यह उल्लेखनीय है कि ऑपरेशन सिंदूर के क्रम में पूर्ण राष्ट्रीय एकजुटता दिखी। उसमें अब अनावश्यक कड़वाहट घुल गई है।
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