कांग्रेस महासचिव और हरियाणा के प्रभारी दीपक बाबरिया ने इस्तीफे की पेशकश की है। असल में चुनाव नतीजों के बाद कोई इस्तीफे की पेशकश नहीं कर रहा था। कायदे से प्रदेश अध्यक्ष चौधरी उदयभान को सबसे पहले इस्तीफे की पेशकश करनी चाहिए थी लेकिन वे भूपेंद्र सिंह हुड्डा के इशारे का इंतजार कर रहे होंगे। तभी बाबरिया के इस्तीफे की पेशकश के साथ ही कांग्रेस का इकोसिस्टम उनको शहीद बताने लगा है और कांग्रेस के प्रति उनकी निष्ठा और कांग्रेस नेतृत्व के उन पर भरोसे की चर्चा होने लगी है। लेकिन हकीकत यह है कि दीपक बाबरिया, जहां भी गए वहां कांग्रेस का थोड़ा बहुत नहीं, लगभग पूरी तरह से भट्ठा बैठाया। हरियाणा उनका ताजा शिकार है, जहां उन्होंने कांग्रेस का किला ढहा दिया है। कांग्रेस के 40 फीसदी वोट प्रतिशत पर जाने की जरुरत नहीं है। इस बार की हार कांग्रेस को उस स्थिति में ले जाएगी, जिस स्थिति में 2014 से पहले भाजपा होती थी।
इससे पहले दीपक बाबरिया कांग्रेस को मध्य प्रदेश में इस स्थिति में पहुंचा चुके हैं। बहस के लिए कोई कह सकता है कि इसमें बाबरिया की क्या भूमिका है? लेकिन जब कोई भूमिका नहीं है तो महासचिव और प्रभारी किस बात के थे? जब वे महासचिव थे तभी 2018 में मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने जैसे तैसे सरकार बनाई थी। लेकिन उनके महासचिव रहते ही सरकार सवा साल में गिर गई और उसके बाद के चुनाव में क्या दुर्दशा हुई वह सबने देखा। बाबरिया थोड़े समय दिल्ली के भी प्रभारी रहे और वहां भी कांग्रेस की क्या स्थिति है वह सब देख ही रहे हैं। असल में बिना जमीनी आधार वाले बाबरिया को जहां जहां प्रभारी बनाया गया वहां किसी प्रादेशिक क्षत्रप ने उनको महत्व नहीं दिया। उलटे वे ही प्रादेशिक क्षत्रपों के हिसाब से काम करने लगे, जिससे राज्यों में शक्ति का संतुलन बिगड़ा और अंदरखाने बगावत बढ़ी। फिर भी राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे को उन पर इतना भरोसा है कि कर्नाटक में पार्टी जीती तो विधायक दल का नेता चुनवाने बाबरिया को भेजा गया। मतलब उनको बड़ा बनाने का पूरा प्रयास हुआ लेकिन अफसोस!