पांच राज्यों में विधानसभा की घोषणा नौ अक्टूबर को हुई थी उसके एक हफ्ते पहले दो अक्टूबर को बिहार में जाति गणना के आंकड़े जारी हुए थे। इसके बाद राजस्थान सरकार ने जाति गणना का आदेश भी जारी कर दिया। उसके बाद से जाति गणना और आरक्षण की सीमा बढाने की राजनीति पर चर्चा हो रही है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी चुनावी राज्यों की अपनी हर रैली में वादा कर रहे हैं कि कांग्रेस की सरकार बनी तो जाति गणना कराएगी। छत्तीसगढ़ में तो उन्होंने वादा किया कि सरकार बनी तो दो घंटे के अंदर जाति गणना का फैसला होगा। तेलंगाना और मिजोरम में भी उन्होंने जाति गणना की चर्चा की। कर्नाटक की जीत से उत्साहित कांग्रेस इसे जीत का अचूक नुस्खा मान रही है।
लेकिन जमीनी रिपोर्ट इससे उलट है। कांग्रेस के प्रदेश के शीर्ष नेताओं के इक्का-दुक्का बयानों को छोड़ दें तो कोई भी नेता जाति गणना की बात नहीं कर रहा है। मध्य प्रदेश के नेता कमलनाथ तो खैर इसका जिक्र ही नहीं कर रहे हैं। चुनावी राज्यों में उम्मीदवार भी इसके बारे में चर्चा नहीं कर रहे हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक ज्यादातर उम्मीदवारों को लग रहा है कि इससे मतदाताओं का एक समूह नाराज हो सकता है। उम्मीदवार तो स्थानीय स्तर पर हर जाति के लोगों से जुड़ा होता है और उनके वोट के लिए प्रयास करता है। इसलिए वह जाति गणना की बहस में पड़े बगैर अपने काम बता रहा है और स्थानीय मुद्दे उठा रहा है। यहां तक कि पिछड़ी जातियों के उम्मीदवार भी जाति गणना के बारे में बात नहीं कर रहे हैं और उसके नाम पर वोट नहीं मांग रहे है। तभी इस मुद्दे पर राजनीति कर रहे नेताओं को इस मुद्दे के महत्व के बारे में नए सिरे से विचार करना होगा खासतौर से लोकसभा चुनाव की रणनीति के लिहाज से।