बिहार में जातिगत सर्वेक्षण के आंकड़े जारी कर दिए गए हैं। हालांकि इससे जुड़ा मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है लेकिन चूंकि आंकड़े जारी करने पर कोई रोक नहीं थी तो सरकार ने इसे जारी कर दिया। इसके मुताबिक बिहार में पिछड़ों की आबादी 63 फीसदी है, जिसमें 36 पिछड़ी अत्यंत पिछड़े हैं और 27 फीसदी पिछड़ी जातियां हैं। इसमें मुस्लिम पिछड़ों की संख्या शामिल है। हिंदू सवर्णों की आबादी महज साढ़े 10 फीसदी है और अनुसूचित जाति व जनजातियों की आबादी करीब 22 फीसदी है। कुल मुस्लिम आबादी 17.7 फीसदी है, जिसमें करीब पांच फीसदी सवर्ण हैं।
जाति गणना के आंकड़े से एक बाद स्थापित हुई है कि लालू प्रसाद का मुस्लिम-यादव समीकरण बहुत मजबूत है। मुस्लिम आबादी 17.7 और यादव आबादी 14.2 है। इस लिहाज से लालू प्रसाद का समीकरण 32 फीसदी वोट का है। लेकिन सबसे ज्यादा फायदा नीतीश कुमार को होता दिख रहा है। नीतीश बिहार में अति पिछड़ों के सबसे बड़े और संभवतः इकलौते नेता हैं। हालांकि उनकी अपनी जाति कुर्मी पिछड़ी जाति में आती है, जिसका 2.86 फीसदी वोट है। वे कोईरी और धानुक की राजनीति भी करते हैं क्योंकि ये ये दोनों जातियां उनके समीकरण में आती हैं। इन दोनों की साझा आबादी छह फीसदी से कुछ ज्यादा है।
कर्पूरी ठाकुर ने सबसे पहले पिछड़ों और अति पिछड़ों को अलग करके दोनों के लिए अलग अलग आरक्षण की व्यवस्था की थी। लालू प्रसाद और राबडी देवी के राज में राजद ने इस फॉर्मूले पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन नीतीश ने बहुत होशियारी से इसे आगे बढ़ाया। बिहार में उन्होंने अति पिछड़ों को 18 फीसदी आरक्षण दिया और पिछड़ों को 12 फीसदी। नीतीश ने दलित के भीतर भी महादलित का एक अलग वर्ग बनाया। बिहार में दलित आबादी 20 फीसदी के करीब बताई गई है, जिसमें दुसाध और उसकी उप जातियां पांच फीसदी से कुछ ज्यादा हैं। नीतीश की सरकार ने इस जाति को छोड़ कर बाकी सबको महादलित में रखा है, जिनका वोट 15 फीसदी के करीब है। इसमें तीन फीसदी के करीब मुसहर हैं, जिनके नेता जीतन राम मांझी हैं, जो अभी भाजपा के साथ हैं। सो, मोटे तौर पर 10 से 12 फीसदी दलित वोट के नेता भी नीतीश ही हैं।
इस तरह से नीतीश 36 फीसदी अति पिछड़ा, सात फीसदी के करीब कोईरी-कुर्मी और 10 से 12 फीसदी दलित मतदाताओं में पहली पसंद होंगे। अगर मंडल की पार्टियों में से किसी नेता को चुनना होगा तो साढ़े 10 फीसदी सवर्ण मतदाताओं का बड़ा हिस्सा नीतीश को पसंद करेगा। इस लिहाज से जाति गणना के दांव से नीतीश ने अपनी स्थिति बहुत मजबूत की है। राजद और कांग्रेस को उनकी जरूरत है तो भाजपा भी इन आंकड़ों की रोशनी में नीतीश के बारे में गंभीरता से विचार करेगी। सो, अब नीतीश के दोनों हाथों में लड्डू है। बिहार की राजनीति में अप्रासंगिक होते होते कैसे उन्होंने अपने को राजनीति के केंद्र में स्थापित किया यह उसकी मिसाल है।