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मजबूरी में भाजपा के क्षत्रपों को महत्व

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव शुरू होने से पहले ऐसा लग रहा था कि भाजपा के तमाम क्षत्रप पूरी तरह से निपट जाएंगे लेकिन जैसे जैसे चुनाव की प्रक्रिया आगे बढ़ी भाजपा को घूम फिर कर अपने क्षत्रपों की ओर लौटना पड़ा। पांच राज्यों के चुनाव के अलावा भी कई राज्यों में पार्टी के प्रादेशिक क्षत्रपों का महत्व कम नहीं हो रहा है, बल्कि ऐसा लग रहा है कि अगले लोकसभा चुनाव में भी उनको पूरी तरजीह मिलेगी। मिसाल के तौर पर झारखंड में भाजपा को पूरी तरह से बाबूलाल मरांडी पर निर्भर हुई है। उनको अध्यक्ष बनाने के साथ ही उनके करीबी रहे और उनके साथ भाजपा छोड़ कर जाने वालों में शामिल रहे अमर बाउरी को विधायक दल का नेता बनाया है। इसी तरह कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा अब भी लगभग पूरी तरह से संगठन को नियंत्रित कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में सब कुछ योगी आदित्यनाथ के हाथ में है।

बहरहाल, चुनावी राज्यों की बात करें तो राजस्थान में भाजपा आलाकमान ने वसुंधरा राजे को पूरी तरह से अलग-थलग किया था। उम्मीदवारों की पहली सूची में उनका नाम नहीं था और उनके कई समर्थकों की टिकट कट गई। लेकिन दूसरी सूची देख कर ऐसा लगा कि भाजपा ने भूल सुधार किया। वसुंधरा को उनके झालरापाटन सीट से टिकट दी गई और साथ ही उनके करीबियों को भी टिकट दी गई। जयपुर के विद्याधरनगर की बजाय नरपत सिंह राजवी को चितौड़गढ़ से उम्मीदवार बनाया गया। राजेंद्र राठौड़ को भी टिकट मिली। हालांकि इसके बावजूद पहले की तरह वसुंधरा पूरी तरह से कमान में नहीं हैं लेकिन उनका महत्व बढ़ा है क्योंकि पार्टी को लगा कि उनकी नाराजगी नुकसान पहुंचा सकती है।

इसी तरह मध्य प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का नाम लेना ही बंद कर दिया था। ऊपर से तीन केंद्रीय मंत्रियों और राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को विधानसभा का उम्मीदवार बना कर पार्टी ने मैसेज दिया था कि अब शिवराज सिंह के दिन पूरे हो गए। हालांकि उसके बाद शिवराज ने खुद अपना नाम लेना शुरू किया और अब स्थिति यह है कि एक बार फिर वे कमान में हैं। प्रधानमंत्री ने भी जनता के नाम खुली चिट्ठी में उनके कामकाज की तारीफ की और एक रिपोर्ट के मुताबिक भाजपा के अब तक घोषित उम्मीदवारों में 92 उम्मीदवार शिवराज के करीबी हैं। बाकी क्षत्रप नेताओं के समर्थकों की संख्या इसके मुकाबले बहुत कम है।

छत्तीसगढ़ में भी भाजपा ने रमन सिंह की वापसी कराई है। उनको अपनी पारंपरिक सीट से टिकट मिली है और अब वे पूरी तरह से सक्रिय होकर प्रचार कर रहे हैं। हालांकि इन तीनों में से किसी को मुख्यमंत्री का दावेदार नहीं घोषित किया गया है। उधर तेलंगाना में भी पार्टी बंदी संजय कुमार को महत्व देकर चुनाव लड़ रही है। भले भारत राष्ट्र समिति से आए एटाला राजेंद्र पार्टी को चुनाव लड़वा रहे हैं लेकिन बंदी संजय कुमार पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बनाए गए हैं और विधानसभा चुनाव भी लड़ रहे हैं। ध्यान रहे प्रदेश की राजनीति में बंडारू दत्तात्रेय के बाद जी किशन रेड्डी और बंदी संजय कुमार ही सबसे बड़े नेता हैं।

By NI Political Desk

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