भोपाल। ये परसेप्शन का मामला है, भैये। आप चुनाव मैनेजमेंट न करें, कोई बात नहीं। चुनावी गणित पक्ष में न हो, तब भी चलेगा। जनता से केमिस्ट्री न होतो कोई फर्क नहीं पड़ेगा।मगर हां, ज़रूरी है धारणा याकि लोगों में वह परसेप्शन पैदा करना जो वोटिंग के दिन तक कायम रहे। फिजूल है यह सोचना कि धारणा सही है या गलत?
मैं पिछले दो हफ़्तों से घूम रही हूँ। पहले छत्तीसगढ़ और उसके बाद मध्यप्रदेश में।और जो समझ में आया वह यह है कि वोटर न तो दुविधा, विभ्रम में हैं और ना लोगों के मन में कोई द्वन्द है।वह न तो चुनावी गणित से प्रभावित है और ना ही पार्टियों और उम्मीदवारों से केमिस्ट्री बूझते हुए। वह न एकदम मुखर हैं और ना ही एकदम चुप। और एक पुराने गानेकी तरह यह भी कि, ‘ये पब्लिक है, ये सब जानती है’ । असल में आम वोटर मोटा मोटी चुनाव को लेकर, भाजपा व कांग्रेस को ले कर, मुकाबले को ले करअपनी धारणा अनुसार सोचता-बूझता और देखता हुआ है।
मुझे दोनों राज्यों में ऐसे कई लोग मिले जिनसे जब मैंने पूछा कि “इलेक्शन का क्या मूड है?” तो उनका एक ही जवाब था “फाइट है”।मेरा अगला सवाल था, “आपको ऐसा क्यों लगता है कि फाइट है?” जवाब आया, “आप ही तो कह रही हैं कि फाइट है!”
यहाँ ‘आप’ से उनका मतलब श्रुति व्यास से नहीं बल्कि मीडिया से है। “आप ही तो टीवी पर दिखा रही हैं कि कांग्रेस और भाजपा में कांटे की टक्कर है।” “मतलब आपको नहीं लगता कि फाइट है?” जवाब आता है, “नहीं।”
ऐसा नहीं है कि सभी मतदाता यही कह रहे हैं। हाँ, मगर हर पांच में से दो की राय यही है। हर दस में चार जोर देकर कह रहे हैं कि फाइट है ।इस तरह का जवाब हमें दो निष्कर्षों तक पहुंचाता है – पहला यह कि वोटर स्पष्ट तौर पर कुछ कहना नहीं चाहता है। और दूसरा यह कि वह कन्फ्यूज्ड है । लेकिन ये दोनों ही बातें सही नहीं हैं।असल बात यह है कि वोटर के दिमाग में यह धारणा ड्रिल कर दी गई है कि मुकाबला कांटे का है, टक्कर कड़ी है। और यह काम बहुत सलीके तथा होशियारी से हुआ है।
जैसा कि मैंने अपनी पहले की रिपोर्टों में भी लिखा था, जब मैं छत्तीसगढ़ के लिए निकली तब मुझे यही पता था कि वहां कांग्रेस जीतने की स्थिति में है। परंतु छत्तीसगढ़ में लैंड करने के पहले ही मेरी यह ‘मिथ्या धारणा’ टूट कर बिखर चुकी थी। वहां जाकर मुझे लगा कि भाजपा के पक्ष में एक अंडरकरेंट है। अंडरकरेंट की यह बात सबसे पहले कुछ जनमत सर्वेक्षणों से शुरू हुई। दोनों राज्यों में मतदान के करीब एक महीने पहले जनमत सर्वेक्षण हुए जो टीवी के जरिए घर-घर पहुंच गए। और हाँ, एक बात और, गांवों में भी अधिकांश लोगों ने टीवी देखना लगभग बंद कर दिया है।‘‘मैडम, फोन पर सब कुछ तो आ जाता है टीवी तो ऑन ही नहीं होती आजकल,” वे कहते हैं।जबकि मैं सोचती थी कि मेरे जैसे शहरवासियों ने ही टीवी देखना बंद किया है! मगर देहात के लोग शायद हमसे कई कदम आगे हैं।
बहरहाल, इन जनमत सर्वेक्षणों से धारणा बननी शुरू हुई। दोनों राज्यों में धीरेःधीरे कांग्रेस की आसान जीत कांटे की टक्कर बन गई। ऐसा बताया गया कि मध्यप्रदेश की 230 सीटों में से कांग्रेस 113 से 125 जीत सकती है और भाजपा 104 से 116।छत्तीसगढ़ की 90 सदस्यीय विधानसभा के बारे में कहा गया कि चुनाव के बाद उसमें भाजपा के 39 से 45 और कांग्रेस के 45 से 51 सदस्य होंगे।
छत्तीसगढ़ के बारे में बताया गया कि भाजपा ने अपने उम्मीदवार बहुत होशियारी से चुने हैं और इसलिए कांटे की टक्कर होगी। मध्यप्रदेश के बारे में फैलाया गया कि लाड़ली बहना योजना के कारण चुनाव एकतरफा नहीं रहेंगे। टीवी की खबरों, साक्षात्कारों और सोशल मीडिया विश्वविद्यालयों में यह बात बार-बार दुहराई जाने लगी। और इसी नैरेटिव ने एक परसेप्शन बनाया, धारणा का स्वरूप धारा।यह और पुष्ट हुई इस तथ्य से कि दोनों पार्टियों के घोषणापत्र एक-दूसरे से मिलते जुलते थे। फाइट की धारणा में वादों के दांव, प्रतिदांव चले गए।
मध्यप्रदेश में यह धारणा और भी मजबूत है कि लड़ाई कांटे की है। सन् 2018 के चुनाव के समय नारा बदलाव का था। कांग्रेस कह रही थी कि 15 साल बाद बदलाव होना ही चाहिए। बदलाव हुआ भी, परंतु कांग्रेसी एक-दूसरे को संभाल नहीं पाए।नतीजतन हार कर भी भाजपा फिर से सत्ता में आ गई।
बावजूद इसके सरकारें जितने लंबे समय तक सत्ता में रहती हैं उनकी लोकप्रियता में उतनी ही कमी आ जाती है। शिवराज सिंह चौहान 2018 तक सत्ता में थे और फिर 2020 से लेकर अभी तक सत्ता में हैं। ऐसे में लोगों को उनसे ऊबना ही था, थकना ही था।शिवराज का चेहरा, उनकी गर्वनेश, बेचारगी लोगों के दिमाग में भाजपा को डाऊन करती गई। बावजूद इसकेफिर भी धारणा फैलाई गई कि लोग शिवराज से थके नहीं हैं।शिवराज है तभी भाजपा है।
सोशिवराजसिंह और उनकी लाडली योजना ने कंफ्यूजन बनाया कि जनमत बदलाव की इच्छा में कितना है?जमीन पर ऐसे कई कारक दिखे जो कांग्रेस की तुलना में भाजपा के लिए अधिक घातक है। लोगों में गुस्सा है कि 2018 में उन्होंने जो जनादेश दिया था उसे पलट दिया गया। शिवराज लोगों की पहली पसंद नहीं हैं। लोग कहते मिले कि वे राज्य में कांग्रेस और दिल्ली में मोदी का राज चाहेंगे।बावजूद इसके दिमाग में बने हुए परसेप्शन में लोग बताते मिले कि टक्कर कांटे की है।
नरेन्द्र मोदी और अमित शाह धारणाओं का निर्माण करने और मनोवैज्ञानिक युद्ध की कला में उस्ताद हैं। छत्तीसगढ़ में पहले चरण के मतदान के बाद भाजपा के राज्य कार्यालय में पटाखे चलाए गए। मध्यप्रदेश में मीडिया के पूर्वाग्रहग्रस्त होने पर जितना कहे कम होगा। इंदौर में एक स्थानीय पत्रकार ने मुझसे कहा, ‘‘इस बार के चुनाव में मुद्दा बदलाव है…मगर भाजपा 120 सीटें जीत जाएगी”।जब मैंने जानना चाहा कि ये दोनों बातें एकसाथ कैसे सही हो सकती हैं तो उसके पास कोई स्पष्ट उत्तर नहीं था। मगर मीडिया में हर कोई बताता मिला कि भाजपा मध्यप्रदेश और छत्तसीगढ़ दोनों जीत लेगी। यह कैसे होगा और क्यों होगा, यह कोई नहीं जानता। कुछ कहते हैं कि चुनाव का गणित भाजपा के पक्ष में है, कुछ केमिस्ट्री की बात करते हैं और कुछ मोदी के प्रति दीवानगी का हवाला देते हैं।पर मेरी यह स्पष्ट मान्यता बनी है कि मोदी के प्रति दीवानगी केवल लोकसभा चुनाव को प्रभावित करती है, जबकि विधानसभा चुनाव में लोग स्थानीय चेहरे को देखते हैं।
सन् 2023 के चुनाव में हमने एक नई बात देखी है। और वह यह कि धारणा, यथार्थ से ज्यादा महत्वपूर्ण है। लोगों ने अपना वोट डाल दिया है। कुछ की पसंद वास्तविक मुद्दों पर आधारित थी, कुछ ने केवल चेहरों को देखा और कुछ ने नोटा का बटन भी दबाया। पर मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि जो धारणा निर्मित की गई, जो परसेप्शन लोगों के दिमाग में ड्रील किया किया गया था, उसने लोगों की पसंद को प्रभावित नहीं किया होगा। अगर कोई यह सोचता है कि मोदी और शाह द्वारा धारणाओं के निर्माण करने और जनमत को धूर्ततापूर्वक प्रभावित करने की बात के अधिक मायने नहीं है बल्कि शिवराज की लाड़ली बहना और छत्तीसगढ़ की धान राजनीति दोनों राज्यों को उनकी झोली में डाल देगी, तो वह एकदम गलत सोच रहे है। आम वोटर अक्सर प्रचार की बमबारी के बीच आगे नहीं सोच पाते। आप इससे सहमत हो सकते हैं या असहमत, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि इस अमृत काल में चुनाव में जीत या हार धारणा याकि दिमाग में ठूंसे गए परसेप्शन से प्रभावित होती है बनिस्पत चेहरों, मुद्दों और बदलाव की चाहत के। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)