राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के विकल्प सीमित होते जा रहे हैं और साथ ही समय भी निकलता जा रहा है। भाजपा ने राज्य में होने वाले चुनाव के लिए दो समितियां बनाईं, जिनमें उनको नहीं रखा गया। चुनाव प्रबंधन समिति और संकल्प पत्र समिति में वे नहीं शामिल की गईं। हालांकि इस आधार पर कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है। इस बीच यह भी साफ दिख रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद राजस्थान के चुनाव अभियान का नेतृत्व करने वाले हैं। इसका मतलब है कि भाजपा वहां कोई चेहरा पेश नहीं करेगी और अगर भाजपा जीतती है तो मुख्यमंत्री का फैसला उसके बाद होगा। तभी सवाल है कि ऐसी स्थिति में वसुंधरा राजे के पास क्या विकल्प बचता है? क्या वे चुपचाप सामूहिक नेतृत्व में नरेंद्र मोदी के चेहरे पर पार्टी को चुनाव लड़ते देखेंगी या कुछ नई पहल करेंगी?
ऐसा लग रहा है कि नई पहल के लिए अब देर हो गई है। पहले कहा जा रहा था कि अगर भाजपा वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री का दावेदार नहीं बनाती है तो वे नई पार्टी बना सकती हैं। कल्याण सिंह, बीएस येदियुरप्पा, उमा भारती और बाबूलाल मरांडी ने मुख्यमंत्री रहने के बाद अपनी पार्टी बनाई थी। हालांकि सबका अनुभव बहुत खराब रहा और अंत में चारों को भाजपा में लौटना पड़ा। संभवतः इसलिए वसुंधरा ने वह रास्ता नहीं चुना। अब वह रास्ता चुन नहीं सकती हैं क्योंकि चुनाव में बहुत कम समय है।
भाजपा ने बहुत होशियारी से इस मामले में देरी करके उनके विकल्प सीमित कर दिए। इसलिए राजस्थान जनता पार्टी बनाए जाने के जो कयास थे वो खत्म हो गए हैं। अब उनके सामने शिवराज सिंह चौहान वाला मॉडल है कि वे चुपचाप पार्टी आलाकमान की बात मानें और मौके का इंतजार करें। अगर उनके लोगों को टिकट मिलती है तो वे चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बनने के लिए दबाव बना सकती हैं। उन्हें अपने साथ साथ अपने बेटे के भविष्य की चिंता भी करनी है। यह भी बहुत दिलचस्प है कि इधर राजस्थान में वसुंधरा किनारे हुई हैं तो उधर मध्य प्रदेश में उनके भतीजे ज्योतिरादित्य सिंधिया की भी इच्छा पूरी नहीं हो पा रही है।