वैसे तो सोनिया और राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को कामकाज की स्वायत्तता दी है। वे स्वतंत्र होकर फैसले कर रहे हैं। लेकिन सबको पता है कि जब नेहरू-गांधी परिवार के तीन तीन सदस्य सक्रिय राजनीति में हों तो किसी बाहरी नेता के लिए स्वतंत्र होकर काम करना कितना मुश्किल होता है। बहरहाल, खड़गे ने अध्यक्ष बनने के 10 महीने बाद और अध्यक्ष पद पर अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की मुहर लगने के छह महीने बाद कांग्रेस कार्य समिति का गठन किया है। उनकी बनाई भारी भरकम समिति में कई सदस्यों को शामिल किए जाने और अनेक बड़े नेताओं को छोड़ देने का कोई तर्क समझ में नहीं आता है।
कमेटी को देख कर एक बात को जाहिर होती है कि सोनिया गांधी के साथ करीब दो दशक तक सक्रिय रहे लगभग सभी लोग कार्य समिति में शामिल किए गए हैं। सोनिया गांधी के साथ काम कर चुके सिर्फ वे ही लोग कार्य समिति में नहीं हैं, जो या तो पार्टी छोड़ कर जा चुके हैं या जिनका निधन हो गया है। सोचें, कोई 15 साल पहले राहुल गांधी ने युवा नेताओं को आगे किया था। उन्हें मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री बनवाया था। उनको अहम जिम्मेदारी दिलाई थी। राज्यों में युवा नेताओं को प्रदेशों की कमान दी गई थी। लेकिन 15 साल के बाद पार्टी घूम फिर कर वापस पुराने रास्ते पर लौट आई है। सवाल है कि उदयपुर के नव संकल्प चिंतन शिविर में तय किए गए सिद्धांतों का क्या हुआ? क्यों कांग्रेस की 39 सदस्यों की कार्य समिति में 50 साल से कम उम्र के सिर्फ तीन नेताओं को ही जगह दी गई?
सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके एके एंटनी को कार्य समिति में रखने की क्या मजबूरी है? क्या सिर्फ इसलिए कि उनके बेटे अनिल एंटनी भाजपा में चले गए हैं और भाजपा के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने उनको पार्टी का राष्ट्रीय मंत्री बनाया है, एंटनी सीनियर को कांग्रेस कार्य समिति में रखा गया है? मनमोहन सिंह तो पूर्व प्रधानमंत्री के नाते कार्य समिति के पदेन सदस्य हैं। लेकिन 82 साल की अंबिका सोनी को कांग्रेस की सर्वोच्च संस्था में रखने का क्या तर्क है? मुख्य कमेटी में 75 साल से ऊपर के अनेक लोग रखे गए हैं। युवा सदस्यों को स्थायी आमंत्रित या विशेष आमंत्रित श्रेणी में जगह मिली है या अग्रिम संगठनों के प्रमुख के नाते जगह मिली है।
एक बड़ा सवाल यह भी है कि मुख्यमंत्रियों को कार्य समिति में क्यों नहीं शामिल किया गया? यह अजीब स्थिति है कि राज्यों के पूर्व मुख्यमंत्रियों को कमेटी में जगह मिली और मुख्यमंत्री के प्रतिद्वंद्वी नेताओं को जगह मिली लेकिन पांचों मुख्यमंत्रियों में से किसी को नहीं रखा गया। किसी न किसी तर्क से इसके जस्टिफाई किया जाएगा लेकिन उस तर्क का कोई आधार नहीं होगा। कांग्रेस को इसका खामियाजा भुगतना होगा। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सीडब्लुसी में नहीं हैं लेकिन सचिन पायलट हैं। प्रदेश की राजनीति में शक्ति संतुलन बनाने की इस कवायद से संतुलन बिगड़ेगा। ऐसे ही हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू सीडब्लुसी में नहीं हैं लेकिन प्रतिभा सिंह को रखा गया है। इससे भी संतुलन बिगड़ेगा। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और उप मुख्यमंत्री टीएस सिंहदेव दोनों कमेटी में नहीं हैं लेकिन ताम्रध्वज साहू को रखा गया है।