देश की कई पार्टियां न तो एनडीए में हैं और न विपक्ष के ‘इंडिया’ में। इनमें अगर लोकसभा चुनाव जीतने वाली पार्टियों की बात करें तो 11 पार्टियां हैं, जिनके 91 सांसद हैं। ये पार्टियां किसी के साथ नहीं हैं। इनमें बीजू जनता दल, वाईएसआर कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी, भारत राष्ट्र समिति, अकाली दल, एमआईएम, जेडीएस, एआईयूडीएफ आदि शामिल हैं। लेकिन 11 पार्टियों में से बसपा की स्थिति अलग है। बाकी पार्टियों का आधार बहुत सीमित हैं। एमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी बहुत भागदौड़ कर रहे हैं लेकिन ‘इंडिया’ बनने के बाद उनके विस्तार की संभावना फिलहाल खत्म हो गई है। सो, इन पार्टियों में बसपा ही इकलौती पार्टी है, जिसका आधार पूरे देश में है और जो राजनीति पर असर डाल सकती है।
उत्तर प्रदेश के पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में बसपा प्रमुख मायावती एक तरह से निष्क्रिय हो गई थीं, जिसका खामियाजा उनकी पार्टी को भुगतना पड़ा। वे सिर्फ एक सीट पर सिमट गईं। लेकिन उससे पहले लोकसभा में वे समाजवादी पार्टी के साथ लड़ी थीं और 10 सीटों पर उनके उम्मीदवार जीते थे। उनको पता है कि अगर लोकसभा चुनाव में भी वे विधानसभा की तरह निष्क्रिय रहीं या अकेले लड़ीं तो एक भी सांसद जीतना मुश्किल होगा। उनको यह भी पता है कि भाजपा के साथ सीधे तौर पर वे गठबंधन नहीं कर सकती हैं। तभी विपक्षी पार्टियों को बसपा प्रमुख मायावती से संपर्क करना चाहिए था। उनको जमीनी वास्तविकता समझा कर साथ जोड़ने का प्रयास करना चाहिए था। अगर वे विपक्षी गठबंधन के साथ जुड़ जातीं है तो अगले लोकसभा चुनाव का पूरा खेल बदल जाएगा। उनका वोट आधार देश के हर राज्य में है। विपक्ष की बैठक के बाद उन्होंने हर जगह अकेले लड़ने का ऐलान किया है। उनका अकेले लड़ना भाजपा के लिए नुकसानदेह नहीं है, उलटे हो सकता है कि उनका कुछ वोट भाजपा के साथ जाकर उसको फायदा पहुंचा। उनके अकेले लड़ने का सीधा नुकसान विपक्षी गठबंधन को होगा।